हैदराबाद : मौलाना आजाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी हैदराबाद के हिंदी विभाग द्वारा “भारतीय साहित्य में अंबेडकरवादी चेतना” पर एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया। संगोष्ठी के द्वितीय सत्र की अध्यक्षता प्रो. शकीला खानम की। इसमें अनेक वक्ताओं ने अपने अपने विचारों को साझा किया।
इस अवसर पर शकीला खान ने बताया कि पाठ्यक्रम को वैज्ञानिक दृष्टिकोण देने की आवश्यकता है। साथ ही साहित्य में वैज्ञानिक दृष्टिकोण लाने की आवश्यकता है। नई शिक्षा नीति की बात करते हुए उन्होंने कहा है कि मैं अपने विश्वविद्यालय डॉ. बीआर ओपन यूनिवर्सिटी में एंकरिंग कोर्स और इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी के अलावा अन्य पाठ्यक्रमों को महत्व देती हूं। उल्लेख किया और यह भी बताया कि मन की गंदगी साफ करना चाहिए। जब तक मन की गंदगी साफ नहीं करेंगे तब तक कोई विकास नहीं होगा।
भारतीय साहित्य में अंबेडकरवादी चेतना शीर्षक एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी की सराहना करते हुए कहा कि बाबा साहब अंबेडकर पर सबसे ज्यादा मौलाना आजाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी में शोध कार्य हो रहा है। उन्होंने यह भी कहा कि इस तरह के काम अंबेडकरवादी चेतना के ही लोग करा सकते हैं।
विशिष्ट वक्तागण के रूप में डॉ. माया देवी ने कहा कि एक मृत समाज में चेतना डालने जो काम किया गया है वही अंबेडकरवादी चेतना है। जाति-प्रथा केवल देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी है। इसलिए यह विश्व मानवता की बात करता है। इसी को अंबेडकरवादी चेतना कहते हैं।
प्रो. संजय मदार कन्नड़ साहित्य के माध्यम से दलितों की चेतना को कन्नड़ की आत्मकथाओं के माध्यम से व्यक्त किया। आत्मकथा के उदाहरण से उन्होंने दलित समाज के विकास और शिक्षा पर जोर दिया और सभ्य समाज का विकास और समानता और भाव बाबा साहब के चेतना से ही पूर्ण हो सकता है।
मुख्य वक्ता प्रो. रेखा रानी कहा कि भारतीय साहित्य विश्व साहित्य में क्या, क्यों और कैसे लगाने से हमारे भीतर चेतना उत्पन्न होती है। उसका यथार्थ रूप में उपस्थित होना ही चेतना होती है। उन्होंने साहित्य के विमर्शों में जैसे किन्नर, वृद्ध और किसान विमर्श को संक्षिप्त में बताते हुए कहा कि व्यवस्थाओं की कमी को उजागर किया जाना चाहिए। प्रेमचंद के साहित्य का उदाहरण देकर उन्होंने अंबेडकरवादी चेतना को परिभाषित किया। अंत में उन्होंने कहा कि अंबेडकर एक विचार है जो कभी नहीं मरता। अंबेडकर चेतना समस्त मानव पर बात करता है न सिर्फ दलितों के लिए न केवल स्त्रियों के लिए विश्वमानव क्षमता बंधुत्व पर बात करते हैं।
वक्तागण में डॉ. पार्वती जी ने अपने वक्तव्य में कहा है कि भारतीय भाषा एक समृद्ध साहित्य लेखन का रूप धारण किया है। हिंदी साहित्य के साथ ही दलित साहित्य भी जुड़ गया है। इसका मूल अंबेडकरवादी चेतना या दलित साहित्य में दिखाई पड़ता है। समता का अधिकार दिलाने की चेष्टा बाबा साहब ने ही की है। ज्योतिबा फुले और अनेक दलित साहित्यकारों का वर्णन किया। प्रेमचंद के साहित्य में भी अंबेडकरवादी चेतना मिलती है।
डॉ. नम्रता वागडे जी ने कहा कि चेतना हमारी वाणी से आनी चाहिए। उन्होंने मराठी स्त्री आत्मकथा ‘माझी मी’ के बारे में बताते हुए बाबा साहब के कथन को उन्होंने दोहराया शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो का उदाहरण देकर अंबेडकरवादी चेतना को उजागर कियाl। स्त्री पढ़ेगी तो दो घर के लोगों को शिक्षित करेगी। साथ ही स्त्रियों की उन्नति को बताया।
डॉ. पठान रहीम खान ने अंबेडकरवाद की पृष्ठभूमि को विस्तार से बताया हुए कहा कि हिंदी साहित्य में प्रेमचंद और यशपाल की रचनाओं में दलित चेतना लक्षित होते हैं। हिंदी साहित्य हिंदी साहित्य में दलितों की चेतना पर जोर देते हुए अंबेडकरवादी वैचारिकी को परिभाषित किया। प्रो. समी सिद्दीकी जी ने अपने वक्तव्य में कहा कि उर्दू की कविताओं में भी अंबेडकरवादी चेतना मिलती है।
उन्होंने उर्दू के कई साहित्यकारों का नाम लेकर अपने वक्तव्य को आगे बढ़ाते हुए कहा कि ग़ज़ल में दलित विमर्श को प्रतिबिंबित करते हैं और कविताओं के माध्यम से दलित विमर्श को बताया जाता है। उन्होंने कहा कि उर्दू साहित्य में भी दलित चेतना पर भी शोध कार्य हो रहे हैं। इस सत्र में शोधार्थी एवं विद्यार्थियों ने अपने प्रपत्र को भी प्रस्तुत किये। इस सत्र का संचालन एवं धन्यावाद ज्ञापन डॉ. पठान रहीम खान ने किया।