मांडणा चित्रकारी राजस्थान की एक प्राचीन लोककला है। हमारी भारतीय संस्कृति मूल रूप से पर्व प्रधान लोक संस्कृति है। यहां प्रत्येक राज्य की अपनी-अपनी समृद्ध सांस्कृतिक परम्पराएं हैं। हमारी संस्कृति मूलतः ग्राम्य जीवन से जुड़ी हुई है। मांडणा चित्रकारी भी ग्रामीण संस्कृति से जुड़ी हुई है। यह एक प्राचीन लोककला है, जो आज भी ग्रामीण अंचलों में जीवित है और प्रचलन में भी है। भले ही वक्त के साथ उसका स्वरुप थोड़ा परिवर्तित हो गया है लेकिन मूल रूप में वह आज भी ज्यों की त्यों है।
प्राचीन काल में गांवों में कच्चे घर और झोपड़ियां होती थी। तीज-त्योहारों और अन्य मांगलिक अवसरों पर उनमें नयापन लाने के लिए और शुद्धिकरण के लिए फर्श और दीवारों को गोबर से लीपा जाता था। फिर उसे सजाने के मकसद से घर की स्त्रियां उन पर विभिन्न प्रकार के मांडणे मांडती थी। ये मांडणे लाल रंग की गेरू या हिरमिच और सफेद खड़िया मिट्टी से बनाए जाते थे।
मांडणों का आकार-प्रकार
विभिन्न मांगलिक अवसरों पर एवं तीज-त्योहारों पर घर को सजाने के लिए बनाई गई कलात्मक आकृतियों को ‘मांडणा’ कहा जाता है। इनका आकार ज्यामितीय होता है, जैसे- गोल, चौकोर, आयताकार एवं त्रिकोणीय आदि। इनको रेखाओं के संयोजन से परस्पर जोड़कर अनेक डिजाइन बनाए जाते हैं। इसे ‘चौक पूरना’ भी कहा जाता है। घर में अलग-अलग स्थानों के लिए अलग-अलग मांडणे मांडने का प्रचलन प्राचीन काल से चला आ रहा है। जैसे, गांवों में झोंपड़ियों और कच्चे घरों में दीवारों पर कलश, कमल, मोर, पुष्प, मछली, शंख और तारे आदि उकेरे जाते हैं।
सुख-समृद्धि का प्रतीक स्वस्तिक
स्वस्तिक के चिह्न को सुख-समृद्धि एवं मांगल्य का प्रतीक माना जाता है। अधिकांश घरों में पांच स्वस्तिक मिलाकर एक स्वस्तिक बनाने की परम्परा है। इसके अलावा पगल्या, दड़ी-गेडिया (बैट-बाॅल), सात ढकणी का चौक, सात कलश का चौक आदि मांडणे नियत स्थान पर मांडे जाते हैं।
कैसे मांडते हैं मांडणे
मांडणा मांडने के लिए हिरमिच या लाल रंग की गेरू का पाउडर बनाकर उसे मिट्टी के कुल्हड़ में पानी डालकर घोला जाता है। इसी तरह सफ़ेद खड़िया मिट्टी को एक अलग कुल्हड़ में घोला जाता है। उसमें फिर थोड़ा सा तेल मिलाया जाता है, जिससे मांडणे में रंग पक्का आता है और चमक भी आती है। इस प्रकार घोल तैयार होने के बाद उसमें कपड़े का एक टुकड़ा डुबोकर अनामिका अंगुली से भूमि पर सुन्दर और नयनाभिराम मांडणे मांडे जाते हैं। जब मांडणा आधा सूख जाता है, तब उसमें बारीक भरती भरी जाती है।
मांडणों का स्थान
स्वस्तिक और पगल्या हमेशा घर में मंदिर के आगे ही बनाए जाते हैं। ‘पगल्या’ देवी-देवता के पद-चिह्नों के रूप में पूजे जाते हैं। इन्हें मांडते समय इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि पगल्या हमेशा घर के अंदर की तरफ आते हुए हों, बाहर की तरफ जाते हुए नहीं। ये एक तरह से त्योहार के अवसर पर देवी-देवताओं के आह्वान के प्रतीक हैं।
इसी तरह पितरों के निवास स्थान के आगे भी पगल्या और दड़ी-गेडिया मांडे जाते हैं। दड़ी-गेडिया एक तरह से उनके मनोरंजन हेतु बनाए जाते हैं, वैसे ही उनके आसन के रूप में ‘गिद्दी’ भी बनाई जाती है। राजस्थान में जहां गांवों में कच्चे घर और झोपड़ियां हैं, वहीं कस्बों में बड़ी-बड़ी हवेलियां बनी हुई हैं। चुरू जिले में और शेखावाटी अंचल में ऐसी हवेलियां अपनी स्थापत्य कला और उत्कृष्ट शिल्पकारी के लिए प्रसिद्ध हैं। इनके भीतर दीवारों पर बने भित्तिचित्र आज भी दर्शनीय हैं और पर्यटकों के लिए आकर्षण का केन्द्र।
दीवाली के मौके पर उन हवेलियों में बने बड़े-बड़े आंगन को पूरी तरह से सजाया जाता था। आंगन के चौफेर चारदीवारी यानि फर्श पर जहां फूल-पत्तियों की बेल उकेरी जाती थी, वहीं चारों कोनों पर चार बड़े-बड़े चौक पूरे जाते थे। आंगन में ‘तिबारी’ में जहां पर बैठकर गृहस्वामी खाना खाते थे, वहां पर ‘गिद्दी-पाटा’ का मांडणा मांडा जाता था।
माता महालक्ष्मी का आह्वान
दीवाली पर माता महालक्ष्मी का आह्वान करने के लिए तिजोरी के आगे उनके पगल्या लाल रंग की गेरू से बनाए जाते हैं। लाल रंग शुभत्व का प्रतीक है। इसी तरह रुपयों के प्रतीक के रूप में इक्कीस या इक्यावन रुपए सफेद रंग के खड़िया पत्थर के घोल से बनाए जाते हैं। ये रुपए चांदी के सिक्कों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
महालक्ष्मी जी के साथ प्रथम पूज्य श्री गणेश जी का आह्वान करने के लिए मुख्य द्वार के दोनों ओर स्वस्तिक बनाकर उनके ऊपर ‘शुभ’ और ‘लाभ’ लिखा जाता है। ताकि गणेश जी ऋद्धि-सिद्धि सहित हमारे घर में विराजमान रहें।
दीपावली पर शुभत्व के प्रतीक हैं मांडणे
दीपावली के आगमन के साथ ही गृहिणियां घर की साफ-सफाई करके घर-आंगन एवं चौबारे पर रंगोली और मांडणे सजाने लगती हैं। यह परम्परा बहुत पुरानी है। हमारे देश में इसे अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है, जैसे- मध्य-प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक व गुजरात में ‘रंगोली’, राजस्थान में ‘मांडणा’, उत्तर-प्रदेश में ‘चौक पूरना’, आंध्र-प्रदेश में ‘मुग्गु’, पश्चिम बंगाल में ‘अल्पना’, हिमाचल प्रदेश में ‘अदूपना’, तमिलनाडु में ‘कोलम’ तथा बिहार में ‘ऐपन’ आदि।
लुप्त हो रही है कला
जिस तरह से आजकल मिट्टी के दीयों की जगह फैंसी लाइट ने ले ली है, वैसे ही लोककलाओं की जगह रेडीमेड रंगोली ने ले ली है। धीरे-धीरे ये लोककला भी विलुप्त होती जा रही है। अब शहरी क्षेत्रों में निवास करने वाली स्त्रियों में न तो इस कला के प्रति वैसा लगाव रहा है और न ही किसी को इसका ज्ञान है। गांवों में भी अब पक्के मकान बन जाने से पहले जैसा चाव नहीं रहा है। जो भी हो, आज़ आवश्यकता है इन लोककलाओं को सहेजने की और उनसे भावी पीढ़ी को रूबरू कराने की। तभी हम अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को बचा पाएंगे।
– सरिता सुराणा, स्वतंत्र पत्रकार एवं लेखिका हैदराबाद