लेख-2: ‘सभ्य समाज में अकेलेपन का दर्द भोगते बुजुर्ग और बढ़ते वृद्धाश्रम- कारण और निवारण’

[नोट- ‘सभ्य समाज में अकेलेपन का दर्द भोगते बुजुर्ग और बढ़ते वृद्धाश्रम के कारण व निवारण’ 16 जुलाई को ‘विश्व भाषा अकादमी भारत तेलंगाना इकाई’ की ओर से संगोष्ठी का आयोजन किया गया। संगोष्ठी में सभी वक्ताओं ने सारगर्भित विचार रखे हैं। यह केवल वक्ताओं के विचार ही नहीं, बल्कि वर्तमान और आने वाली पीढ़ी के लिए संदेश भी छोड़ गये हैं। संगोष्ठी में वृद्धाश्रम- अभिशाप और आवश्यक दोनों विचार भी सामने आये। अपने-अपने तर्क में दोनों विचार भी सही हैं। यह केवल व्यक्ति की सोच पर निर्भर करता है कि क्या सही और क्या गलत हैं। ‘विश्व भाषा अकादमी भारत तेलंगाना इकाई’ की इस पहल के लिए हम संस्थापिका सरिता सुराणा जी को बधाई देते है, क्योंकि लोगों के लिए बुजुर्ग एक जटिल समस्या होती जा रही है। इस पर चर्चा होने की जरूरत है। इससे पहले हमने दर्शन सिंह जी का लेख प्रकाशित किया है। इसी कड़ी में यह दूसरा लेख प्रकाशित कर रहे हैं। इन लेखों से एक भी व्यक्ति प्रभावित होता है, तो हम अपने कर्तव्य को सार्थक मानते हैं। हमारा सभी से आग्रह है कि इस विषय पर वे अपनी रचानाएं तुरंत Telanganasamachar1@gmail.com पर भेजे दें। धन्यवाद।]

‘सभ्य समाज में अकेलेपन का दर्द भोगते बुजुर्ग और बढ़ते वृद्धाश्रम- कारण और निवारण’ इस समस्या का मुख्य कारण है नई और पुरानी पीढ़ी के बीच विचारों का अंतर। यह अंतर तो सदियों से चला आ रहा है। वो समाज सभ्य ही कैसे कहलायेगा जहां वृद्धाश्रम होते है। कारण जो भी हो वृद्धाश्रम समाज के लिए है तो शर्मनाक।

हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। एक बुजुर्ग और दूसरा वृद्धाश्रम। आखिर समाज में वृद्धाश्रम की जरूरत ही क्यों है? जीवन की चार अवस्थाएं होती हैं। जैसे- बचपन, जवानी, प्रौढ़ावस्था और वृद्धावस्था। हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि हमारा जीवन चार आश्रमों में विभाजित है- ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम और संन्यास आश्रम।

पहले बाल्यकाल से यौवन काल तक ब्रह्मचर्य आश्रम जिसमें विद्यार्थी अभ्यास करते। फिर शादी करके गृहस्थ आश्रम। इसके बाद वानप्रस्थ आश्रम। जीवन का आखरी पड़ाव है संन्यास आश्रम और वृद्धावस्था। पहले वानप्रस्थ आश्रम आने के वक्त लोग सांसारिक बातों को धीरे धीरे मन से हटा लेने का प्रयास करते थे। अपने बच्चों के गृहस्थ आश्रम में अधिक दखलंदाजी नहीं करते थे। इसलिए युवा पीढ़ी और प्रौढ़ावस्था में अधिक अंतर नहीं होता था।

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आजकल माहौल बदल रहा है। जमाना बदल गया है। मकान छोटे हो गये हैं। मानव के दिल छोटे हो गये हैं। मंहगाई बढ़ गई है। जीवन में संतोष नहीं रहा है। विदेश जाने का मोह या फिर विदेश गए हुए वापस नहीं आ सकते। वो यहां पैसे भेज देते हैं। ऐसा समझ लेते हैं कि पैसे भेजे तो माता पिता की सेवा हो गई। किंतु वृद्धावस्था में बुजुर्गो को स्नेह अधिक चाहिए। हमें प्रोढावस्था से ही थोड़ी सी सावधानी बरतनी चाहिए।

युवा पीढ़ी का दिल जीत लेने चाहिए। सभी पुत्र कुपुत्र नहीं होते हैं और ना ही सभी माता पिता कुमाता-कुपिता होते हैं। दोनों पीढ़ियों में आपसी तालमेल रखना चाहिए। यह विषय गहन है। गहरा चिंतन मांगता है। बुजुर्गों कों अपने आपको व्यस्त रखना चाहिए। अपनी उम्र के लोगों के संपर्क में रहना चाहिए। अपने सिद्धांतों को जबरन अन्य पर थोपना ठीक नहीं है। घरेलू मनमुटाव आपस में ही निपटाया जा सकता है।

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दोनों पीढ़ियों में इतनी समझ आ जाए कि हमें अपने वाले ही काम में आयेंगे। वृद्धों को वृद्धाश्रमों में भेजना या घर से तंग आकर वृद्धों का स्वयं वृद्धाश्रम में चले जाना जरा दुःखद् बात तो है। जरा का संस्कृत में एक अर्थ वृद्धावस्था भी है। जरा में जरा सावधानियां जरुरी है। हमारी वृद्धावस्था को सुखद बनाने के लिए हमें युवावस्था और प्रोढ़ावस्था से ही प्रयत्न करना चाहिए।

– लेखिका भावना मयूर पुरोहित हैदराबाद

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