फिल्म समीक्षा: 8 A. M. METRO, रिश्ते में गुंजाईश…

आप चाहे कोई फ़िल्म देखने जाएँ या कोई नाटक देखने जाए, आप जब लौटें तो दिमाग में कुछ लेकर लौटना चाहिए. ऐसा बहुत कम होता है, पर कल मेरे साथ हुआ. मुझे 8 A. M. METRO का फर्स्ट डे फर्स्ट शो देखने का अवसर मिला. मैं भी फिल्म देखने के बाद बहुत कुछ अपने मन में लेकर आया.

इंसानी रिश्तों के बीच एक गुंजाईश होती है, रिश्ता पति पत्नी का ही हो ज़रूरी नहीं है, इस गुंजाईश में एक अनचाहा अनाम रिश्ता पनप जाता है. भावुक इंसान होने के नाते मेरे साथ तो अक्सर ऐसा होता है, लेखक होने के नाते मैं उनको कागज़ पर उतारता भी हूँ. इस फिल्म की कहानी सफल हुई है, उस गुंजाईश में जगह बनाने को. तीन चौथाई हिस्से तक फिल्म नायिका प्रधान रही, आख़िर के एक चौथाई हिस्से में नायक की कोशिश रही, तीन चौथाई पर हावी होने की, पर हो न सकी. इसकी दो वजह थीं, पहली- फिल्म का पहला सीन और मानव स्वभाव, जो स्त्री की तरफ़ झुक ही जाता है. रिश्ते में गुंजाईश के अलावा एक बात और है, QU Factor. ये मेरी अपनी बनाई हुई समाजशास्त्र थ्योरी है. जैसे Q का U के बिना कोई वजूद नहीं होता, वैसे ही कोई भी दो अनजान इंसान एक दूसरे के पूरक हो जाते हैं, अचानक और बहुत थोड़े समय के लिए ही सही.

मुझे तीन चौथाई हिस्से पर कहानी ख़त्म होती लगी, जब प्रीतम और इलावती अलग दिशाओं में जाते हैं. पर कहानी का दोबारा शुरू होना और कहानी का प्रीतम पर केन्द्रित हो जाना, कहानी का पुनर्जन्म लगा. इस पॉइंट पर मुझे लगा की कहानी दो जनों ने लिखी है. पहले हिस्से में प्रीतम इलावती का पूरक था, जबकि दूसरे हिस्से में इलावती प्रीतम का पूरक बना चाहती है. कहानी में लेखक का आना, दोनों किरदारों से उसका जुड़ाव महसूस करता है. मेरा अपना अनुभव है कि लेखन अपने पाठक में ही अपना करदार ढूँढ लेता है. कुल मिला कर फिल्म देखते हुए स्क्रीन से जुड़ाव रहा. यह सफल निर्देशन और उत्कृष्ट अभिनय का कमाल है.

अब अभिनय की बात करते हैं, सैयामी खेर, फिल्म का केंद्र बिंदु थी, इलावती के घबराने वाले सीन को अभिनय और निर्देशन के हिसाब से पांच में से चार सितारे. कई जगह तो इलावती ने प्रीतम पर पूरी छा गयी. शायद कहानी इलावती के इर्द-गिर्द ही बुनी गयी थी.

गुलशन देवैया, प्रीतम के किरदार के अभिनय के लिए चार सितारे ही दूंगा. कास्टिंग के नज़रिए से सैयामी और गुलशन बिलकुल खरे उतारते हैं, कास्टिंग के लिए पूरे पांच सितारे. गुलशन ने जिस तरह से कहानी को दुबारा उबारा उसके लिए तीन सितारे. कहानी को फिर से उबारना एक मुश्किल काम होता है, इसके लिए गुलशन ने बहुत मेहनत की. मुझे लगता है ये दोनों काफ़ी आगे जायेंगे.

कल्पिका गणेश मृदुला के किरदार में बिलकुल बंगाली लगीं, निर्देशन और कपिला के चहरे के भाव मुझे महसूस करते रहे जैसे वो असल में कोई रूह हो, जैसा की कहानी में आखिर में पता चलता है.

निमिषा नायर रिया के किरदार में सटीक थी. फिल्म में रिया के आने पर लगा कहानी तीन परिवारों में बंट गयी है, बहुत सही लगा जब वो अपने पति को देखकर चिल्लाती है. काफी स्वाभाविक दृश्य था. इनको तीन सितारे देने पड़ेंगे. अगर इनका रोल कुछ ज़्यादा होता तो और भी ख़ुद को साबित कर सकती थी.

राजीव कुमार लेखक के किरदार में, यह मेरे लिए नया नहीं था क्यूंकि राजीव ने एक बार मेरे नाटक में यही किरदार निभाया था. लेखक का दूकान पर जाने वाला सीन बताता है लेखक और निर्देशक परदे के पीछे रहने वाले जीव हैं. लेखक का इलावती को जन्मदिन की बधाई देना, मुझको छू गया, क्यूंकि लेखक ऐसे ही अपने किरदार बुनता है, राजीव को भी चार सितारे.

निर्माता राज आर. किशोर साहब को बधाई इस लिए भी देना चाहूँगा क्यूंकि कहानी को परदे पर पहुँचाना, एक बहुत बड़ा काम है. राज रचकोंडा साहब ने दिल से निर्देशन किया है, इनको भी दिल से बधाई. कौसर मुनीर साहब की शायरी बहुत ख़ूब और गुलज़ार साहब तो मेरे दिल के काफी क़रीब हैं.

कृति में जब तक कि और अच्छा होने की गुंजाईश न हो तब तक कृति, कृति नहीं है. फिर भी फिल्म को पांच में से चार झिलमिलाते सितारे. और आख़िर में कहना चाहूँगा, मैंने ख़ुद को कहानी में पाया. काफ़ी दिनों बाद कोई फिल्म अपने दिल के नज़दीक लगी. यह भी एक संयोग ही था कि मैं जब फिल्म देखकर लौटा तो 8 P. M. की METRO थी.

8 A. M. METRO के लिए अनेक शुभकामनाए.

समीक्षक सुहास भटनागर

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