विशेष: गणतंत्र दिवस पर याद आते हैं सेनानी पंडित गंगाराम जी वानप्रस्थी

स्वतंत्रता सेनानी पं. गंगाराम एडवोकेट जी की 107 वां जयन्ती हैं। एक मूक समाज सेवी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना हमारा कर्तव्य है। इस लेख के जरिए उनकी महान सेवाओं का हम स्मरण कर रहे हैं। एक साधारण से परिवार में जन्म लेकर जैसे- “स्वाति नक्षत्र की बूंद सीप में पढ़कर मोती बन जाती है” के अनुरूप पं. गंगाराम जी का जीवन अपने आप में इतिहास का एक अध्याय बन गया है।

निर्भीकता और साहस मनुष्य से कहां से कहां पहुंचा देता है इसकी साकार प्रतिमूर्ति है दिवंगत पं.गंगाराम जी एडवोकेट। बासर ग्राम के निकट उफनती गोदावरी नदी में डूबती एक बाल विधवा को प्राण हथेली पर लेकर बचाने कि अदम्य साहसिक घटना से पं. गंगाराम का बाल्य जीवन की सेवा कहानी आरंभ होती है। जब आप केवल सत्रह वर्ष के ही थे। इस साहस भरी वीरता के लिए तत्कालीन निजाम सरकार ने आपको पुरस्कृत व सम्मानित किया था।

गंगाराम का जनम सन् 1916 में उस दिन हुवा जब प्रकृति धरती के नव श्रृंगार के परिधान से परिवेष्ठित करती है। बसन्त पंचमी ८ फरवरी मंगलवार के दिन हैदराबाद के हुसेनी आलम (चंद्रिकापुर) में यह चांद ऊपर से शान्त चन्द्रमा किन्तु भीतर से अग्नि की चिनगारी के रूप में उत्पन्न हुआ। 18 वर्ष की आयु में सरकारी नौकरी में लग गए। जब देखा कि निजामी शासन नादिर शाह के अत्याचार के पद चिन्हों पर चल रहा है तो पं. गंगाराम के हृदय में क्रांतिकारी भव जाग उठा ।

तत्कालीन कान्तिकारी नेता पं. दत्तात्रेय प्रसाद एडवोकेट के सहयोगी के रूप में आप में क्रान्ति कारी जीवन जाग उठा। आपने दत्तात्रेय प्रसाद जी के नेतृत्व में आर्यन डिफेंस लीग की स्थापना की। मोजमजाही मार्केट के निकट पहले बम विस्फोट से तत्कालीन शासक मीर उस्मान अली निजाम के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह का स्वर गूंज उठा। तभी चिकोनिया वाले काण्ड में आपको निज़ाम ने जेल की सिसचों में घर दबोचा। अपराध मुक्त से छूटे ही थे कि फिर प्रतापसिंह बम केस में गिरफ्तार कर लिए गए। इन परिस्थितियों में सरकारी प्रशासनिक सेवा में रहना कठिन हो गया तो नौकरी को लात मार कर भूमिगत हो गए।

तभी सन् 1940 में सत्याग्रह विजय के उपरांत चारों ओर आर्य समाज का प्रभाव जंगल की आग की तरह फैल रहा था तब निश्चय हुआ कि हैदराबाद में हिन्दी माध्यम से एक हाई स्कूल खोला जाए। निज़ाम शासन राजकीय मान्यता देने तैयार न था। सत्याग्रह में बची लगभग चालीस हजार रूपए की सहायता सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा देहली ने देना स्वीकार किया तब केशव स्मारक आर्य विद्यालय की स्थापना में पं. गंगाराम जी ने सक्रिय योगदान दिया और इसी विद्यालय में एक अध्यापक के रूप में जूट गए। कुछ समय बाद आपने विद्यालय की सेवा का परित्याग कर दिया और अमृतसर, पंजाब में विरजानंद ब्रह्मचर्य आश्रम के संचालन में योगदान किया। इस संस्था के संरक्षक के रूप में भारतीय स्वतन्त्रता तक कार्य करते रहे।

इससे पूर्व सन् 1942 में आप उस्मानिया विश्वविद्यालय की ओर से भारतीय वायु सेना में चुन लिये गए किन्तु जनता के सैनिक को विदेशी शासन का सैनिक बनना जचां नहीं। अंग्रेजों के विरुद्ध भारत छोड़ो आन्दोलन देश में पूरे यौवन पर था। तब आप पर “जबान बन्दी” का प्रतिबन्ध लगा दिया गया और दूसरी ओर केशव स्मारक विद्यालय की सेवा से प्रशासन ने ही आपको निकालने के आदेश जारी कर दिए। 1945 में आपने महर्षि दयानन्द का जीवन चरित्र लिखा जिसे निजाम सरकार ने जब्त कर दिया था।

वरंगल पंचम आर्य महा सम्मेलन के आप संयुक्तमंत्री तथा आर्य प्रतिनिधि सभा के उपमंत्री चुने गए। सभा के संगठन के सुदृढ़ करने में आपकी भूमिका महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुई। सन् 1946 में निज़ाम सरकार ने आपके निवास स्थान की तलाशी ली और आपके नाम वारंट जारी कर दिए। परिणामतः आपको फिर भूमिगत होना पड़ा। इन्ही दिनों नोवाखाली का हत्याकांड हूआ और आप बंगाल असम रिलीफ सोसायटी के महामंत्री नियुक्त हुए। महात्मा गांधी के साथ रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। कई दिन महात्मा गांधी के साथ रहे और फिर उनके आदेश से पटना (बिहार) व असाम का दौरा किया। वहां से लौटकर आप आर्य महासम्मेलन जालना के स्वागताध्यक्ष मनोनीत हुए।

1947 में आर्य प्रतिनिधि सभा हैदराबाद के मंत्री निर्वाचित हुए। 29 जुलाई 47 को रजाकारी आन्दोलन के समय आपको निजाम शासन ने नजरबन्द कर दिया। 25 दिसम्बर को अनेक साथियों के साथ जेल से फरार हो गए। पुलिस एक्शन के बाद लातूर में आर्य महा सम्मेलन का अभूतपूर्व सफल आयोजन किया। इतना ही नहीं सन् 1954 में सार्वदेशिक आर्य महा सम्मेलन के आप स्वागतध्यक्ष निर्वाचित हुए और श्री कोतुरी सीतय्या गुप्त ने इस समारोह को सफल बनाने में दिन रात एक कर दिया परिणामतः सारे देश में सम्मेलन की सफलता की चर्चाएं होती रहीं।

आपने कुछ राजनीति में भी कांग्रेस के अध्यक्ष में कार्य किया। हैदराबाद नगर निगम के आप सदस्य निर्वाचित हुए। जिस किसी पद पर आप रहे, अत्यन्त प्रामाणिकता और निष्ठा से अपने दायित्व और कर्तव्यों को पूरा करते रहे। यही कारण है कि जनता आपको विशेष सन्मान देती रही है और जनता का स्नेह और विश्वास सदा आपके साथ रहा।

जैसे हिन्दी साहित्य के महाकवि बिहारी के बारे में कहा जाता है-

सतसइया के दोहरा जो नावक के तीर।
देखन में छोटे लगे, घाव करे गंभीर।।

यही बात पं.गंगाराम जी के व्यक्तिव और कार्य के संदर्भ में भी सटीक कही जा सकती है। जीवन की एक इस मौन साधना करते पं. गंगाराम जी का अध्यात्मिक जीवन, जीवन की उस ऊंचाई तक पहुंच गया था कि वे अब भीतर से आत्मिक उन्नति में अग्रसर हो उठे थे। यही कारण है कि आप अपने जन्म दिन अर्थात बसन्त पंचमी 7 फरवरी 1984 मंगलवार के दिन आर्यसमाज महर्षि दयानन्द मार्ग, सुलतान बाजार में प्रातः 7 बजे से 9 बजे तक वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश कर एक नए अध्याय जीवन में सर्वत्याग प्रवेश किया।

ऐसे अवसर पर उनकी महान सेवाओं का स्मरण कर उनके कार्यों का मूल्यांकन कर उनका अभिनन्दन करना कृतज्ञ जनता का पुनीत कर्तव्य हो जाता है। पं. गंगाराम जी का सारा जीवन समाज सेवा और राष्ट्रोत्पति में ही बीता है। वे अनेक लोगों के प्रेरणा स्त्रोत रहे है। उनकी कार्य करने की एक अपनी ही शैली थी। आपके कार्यों की और मुक सेवा की जितनी भी प्रशंसा की जाय वह थोड़ी ही है। जिस प्रकार दीपक अन्धकार की खाल है और प्रकाश की सेरल है वैसे ही अपने विशेष रूप से आर्य समाजी में सस्थाओं में अपमान को झेला है और निष्ठापूर्वक आर्य संगठन का उचित पथ प्रदर्शन किया है। आपकी सेवाएं इतिहास की सुरक्षित निधि बन चुकी है।

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