अपने जीवन में व्यक्ति जब-जब भी स्वयं से संवाद करता है तो उसका अन्तस् उजास के पथ की ओर संकेत करता है जहाँ वह आस की किरण का पुंज सामने पाता है। यही आस उसके आत्मविश्वास में जुम्बिश पैदा करती है और वह जीवन की सच्चाइयों के साथ दृढ़ता पूर्वक साक्षत्कार करता हुआ सकारात्मक पहल करता है। इन्हीं सन्दर्भों को अपनी सृजन यात्रा में उजागर करती रचनाकार डॉ. रमा द्विवेदी का लघुकथा संग्रह ‘ मैं द्रौपदी नहीं हूँ ‘ ऐसा संग्रह है जिसमें सामाजिक ताने -बाने की गहराई से पड़ताल की गई है।
एक सौ ग्यारह लघुकथाओं का यह संग्रह इस बात को उभारता है कि बदलते समाज की बदलती प्रवृत्तियाँ मनुष्यता के भावों को लील कर सामाजिक संरचना के विविध पक्षों को गहराई से प्रभावित कर रही हैं। वहीं समाज की महत्वपूर्ण इकाई परिवार और उसके सदस्य इन प्रवृत्तियों के पाश में जकड़ते चले जा रहे हैं।
प्रथम लघुकथा ‘मैं द्रौपदी नहीं हूँ’ इस संग्रह की शीर्षक कथा है जो सामाजिक-पारिवारिक विडम्बना और विद्रूपता को सामने लाकर अपने समय से जूझती नारी के सम्मान और अस्तित्व पर पसरे असहिष्णुता के अन्धकार को दर्शाती है। वहीं ‘विडम्बना’ कथा यथानाम एक सहज प्रश्न की विस्तृत व्याख्या है कि – ‘खाली घड़ा लेकर हम औरतें क्या चाँद की ओर ताक-ताक कर अपनी और घरवालों की प्यास बुझायेंगे?’ संग्रह की अधिकांश कथाएँ पारिवारिक परिवेश से सन्दर्भित हैं जिनमें विवाह और विवाह के बाद के आन्तरिक संघर्षों का सहज चित्रण किया गया है। वहीं कुछ कथाओं में कोरोना काल की त्रासदी और उससे उपजी मानसिकता का विवेचन उभर कर आया है। लघुकथाकार ने अपने समय की नब्ज़ देख कर सोशिल मीडिया से संदर्भित कथाओं को बुना है जिसमें से ‘टैगियासुर’ एक है।
सामाजिक पारिवारिक सन्दर्भों के साथ ही इस संग्रह में राजनैतिक परिवेश का भी बख़ूबी चित्रण हुआ है। यही नहीं साहित्यिक परिवेश को भी यह संग्रह शिद्दत से प्रस्तुत करता है। ठगुआ कवि, साहित्यिक विदेश यात्रा मुफ़्त , मेरा नाम नहीं, क्यों, हर धान रुपये में बाइस पसेरी, सम्पादक, मूल लेखक कैसे, रिमार्क, कविता चोर, मानद उपाधि तथा धंधा ऐसी ही लघुकथाएँ हैं जिनमें लेखक और लेखन की प्रवृत्तियों को बारीकी से सन्दर्भानुरूप विवेचित तो किया ही है साथ ही इन लघुकथाओं की एक विशेषता यह है कि ये सहज होते हुए भी सामाजिक यथार्थ को सरलता से रेखांकित करती चली जाती हैं। साथ ही सामाजिक सरोकारों को सामने लाकर नारी चिंतन के स्वर को मुखरित करती हैं।
महासागर में उछालें मारती लहरें तथा नवनीत से उभरते झाग और इनके भीतर की गहराइयों को अनुमानित करने की मुद्रा में नारी का अंकन संग्रह के मुख पृष्ठ पर भावपूर्ण रूप से उभरा है। यह वह नारी है जिसके मन के भीतर के वैचारिक सागर की लहरें भी उछलते हुए चेतना के स्तर से चिंतन के विविध आयामों तक उसे यात्री बनाये रखती हैं। ऐसा यात्री जो जीवन के हर पड़ाव पर संघर्ष और विमर्श के साथ आगे बढ़ता रहता है। यह है तो संग्रह का मुख पृष्ठ तथापि भीतर के पृष्ठों में उभरे भाव और विचारों का कोलाज भी है। अन्ततः यही कि संवेदनाओं के पथ पर उभरे स्वरों की अनुभूति से शब्दाकार हुई ये कथाएँ अपने समय को सूक्ष्म रूप से विवेचित करती हैं।
समीक्षक :विजय जोशी
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