पुस्तक समीक्षा : देखना ‘उनकी’ ऐनक से

दुनिया को देखने की ऐनक सबकी अपनी होती है। जीवन को जीने का अंदाज सबका अपना होता है। लेकिन इंसान को समझने के लिए इंसानियत की दरकार सबसे एक जैसा अपेक्षित होना लाजमी है। ‘देखना मेरी ऐनक से’ ललित निबंध संग्रह में लेखक एफ एम सलीम के जीवन अनुभव का विस्तार विविध दृश्यों में प्रस्तुत किया गया है।

‘थोड़ा सा सामान खुशी का’ निबंध में लेखक ने खुशी पाने के लिए मानव समाज को अपनी मानसिकता बदलने के लिए कहा है। उनकी चिंता इन शब्दों में व्यक्त होती है- ‘जब दिमाग में ज़हर बढ़ जाता है तो किसी बच्चे को खेलते हुए देखना, किसी भूखे के लिए दो निवाले का प्रबंध करना या फिर किसी अंधे आदमी को रास्ता पार कराना, किसी को उसकी मंजिल का पता बता देना जैसे छोटे-छोटे कारण आदमी को दिखाई नहीं देते, जिसमें असली खुशी छिपी होती है।’ (पृष्ठ- 12)

‘वो एक फिल्मी थप्पड़’ निबंध के माध्यम से लेखक जिंदगी में अकड़ को छोड़ लचक को अपनाने की सलाह देते हैं। फिल्मों में बिगड़ैल पात्र को एक थप्पड़ से सुधरते दिखाया जाता है। ‘खुद से कब मिलोगे’ निबंध में लेखन ‘मैं’ को दूर करने के लिए खुद से मिलने की आवश्यकता पर बल दिया है। वे कहते हैं- ‘अपने आपसे हुई शुद्ध मुलाकात की ताजगी के साथ जिंदगी को फिर से पूरी शिद्दत से जीने के लिए निकल पड़े।’ (पृष्ठ-14)

एक सामान्य विषय को लेकर विशेष बनाने की कला लेखक बखूबी जानते हैं। ‘चोर पैकेट बेचने वाला एक शरीफ आदमी’ इसी प्रकार का निबंध है। ‘ख्वाब लंबे है तो’ निबंध में लेखक ने प्रेरणास्पद विचार प्रस्तुत किए हैं।

‘इंसानियत जिंदाबाद’ निबंध में अस्पताल की घटना को केंद्र में रखकर लेखक ने सरकारी अस्पताल में पूरे वार्ड के लिए फल और मिनरल पानी का गुप्त दान करने वालों की इंसानियत पर प्रकाश डाला है। निजी अस्पतालों में इलाज कराने वाले धनाढ्यों की संपन्नता को चित्रित करते हुए वे कहते हैं- ‘इंसान जब धन दौलत से संपन्न हो जाता है और दर्जे में आस-पास के लोगों से कुछ ऊँचा होता है तो समझा जाता है कि वह एक तरफ से अकेले होने की स्थिति में पहुँचने लगता है।’ (पृष्ठ- 20)

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‘ये मामू मामू क्या है?’ निबंध में चंदा मामा, माँ के भाई मामा और आस-पड़ोस के लोगों को मामू कहते-कहते पुलिस को मामू कहे जाने पर एक राज्य में पूरे गाँव को थाने में बंद करने की घटना का उल्लेख किया गया है। वे कहते हैं- ‘किसी को मामू बनाने का अर्थ उसे ऐसा-वैसा समझना तो बिल्कुल नहीं था और हम कोशिश करेंगे कि मामू को मामू ही रहने दें।’ (पृष्ठ-22)

‘ढक्कन में थोड़ी सी खराबी थी बस’ निबंध में चिकित्सा जगत के यथार्थ को अनुभवजनित घटनाओं के माध्यम से व्यक्त किया गया है। साथ ही अपनी गाड़ी के खराब होने पर मैकेनिक द्वारा गाड़ी की खराबी पकड़ने के बजाय उसके शागिर्द द्वारा पकड़ा जाता है। आज के समय में हर क्षेत्र में विशेषज्ञता बढ़ती जा रही है। लेकिन व्यावहारिक ज्ञान से अधिक सैद्धांतिक ज्ञान पर ही अधिक ध्यान रहता है।

‘अम्मा रोजगार मिल गया है’ निबंध में चुनावी रोजगार प्राप्त युवक की क्षणिक खुशी का उल्लेख किया गया है। लेखक कहते हैं- ’वफादारी वर्तमान राजनीतिक शब्दकोश में अर्थहीन हो गई है। चलो इसी बहाने बिना पहचान के भी ऐसे लोगों को रोजगार मिल जाता है जो रिश्तेदार भी नहीं है। एक महीने के लिए ही सही।’ (पृष्ठ- 26)

‘बोहनी नहीं हुई साहब…’ निबंध में लेखक ने वर्तमान कॉर्पोरेट संस्कृति के दबदबे में इंसानियत का दम घुटते दिखाया है। वे लिखते हैं- ‘दुकानदार और खरीदार के बीच बोहनी के इस रिश्ते को नई कॉरपोरेट संस्कृति ने धुंधला कर दिया है। शॉपिंग मॉल और सुपर मार्केट की चैन ने दुकानों से मालिकों को हटाकर मैनेजर संस्कृति को बढ़ावा दिया है। ग्राहक और स्टोर संचालक या सेल्समैन के रिश्ते अक्सर अजनबियत ओढ़े रहते हैं।’ (पृष्ठ -28)

‘पैदल हो… तो’ निबंध में असुरक्षित सड़क संस्कृति पर प्रकाश डाला गया है। ‘हाय रे यह टेढ़ापन’ निबंध में दैनिक समस्या पर चिंता व्यक्त की गई है। जहाँ फुटपाथ पर सामान बेचने वालों और नगर निगम की मिली भगत का उल्लेख हैदराबाद से मुंबई तक एक जैसा बताया गया है। ‘अब तो बिगाड़ ही लिए जनाब’ निबंध के माध्यम से लेखक लिखते हैं- ‘मी टू अभियान ने जता दिया है सोशल मीडिया बहुत सारे मुद्दों पर चाहे कितना ही भटक गया हो, लेकिन इस बार उसने मनुष्य के सामाजिक होने के दावे को एक बड़ा ही कुरूप आईना दिखाने की कोशिश की है।’ (पृष्ठ- 33)

‘पति समुदाय के कुछ सदस्य’ निबंध को चुटीले अंदाज में प्रस्तुत किया गया है। ‘आह… उनकी शादियाँ’ निबंध में कुंवारे युवकों को केंद्र में रखा गया है, जो शादी कर नहीं पाते अथवा जिनकी घर की जिम्मेदारियों में शादी हो नहीं पाती है। ‘हम लोकल नहीं रहे’ निबंध में अजनबी संस्कृति को लेखक ने संवेदनात्मक अभिव्यक्ति दी है। ‘ट्रायल रिंग के बाहर’ निबंध में सड़क परिवहन के चालक लाइसेंस प्राप्त करने वालों की अनियमितता को केंद्र में रखते हुए जागरूकता की अपेक्षा की गई है।

‘उनकी संवेदनशीलता’ निबंध में संवेदनशीलता के अर्थ को लेखक ने अपनी संतान को डॉक्टर के द्वारा सुई लगाए जाने के अर्थ से लेकर पुलिस विभाग द्वारा प्रयुक्त अर्थ तक विवेचित किया है। वे लिखते हैं- ‘उधर के इलाके बहुत संवेदनशील हैं, उस ओर न जाएं। बिना देखे, बिना जाने समझे, लोग एक का पक्ष लेकर दूसरे को नुकसान पहुँचाने पर उतारू हो जाते हैं। शायद सारी दुनिया में इस तरह की नकारात्मक संवेदनशीलता ने हजारों लाखों लोगों की जानें ली है।’ (पृष्ठ-44)

लेखक इसे दो परिवार, व्यक्ति, देश, धर्म, भाषा प्रत्येक स्तर पर नकारात्मक होने से बचाना चाहते हैं। ‘सेल्फी का स्वार्थ’ निबंध के माध्यम से लेखक ऐसे स्वार्थी लोगों से सावधान करते हैं, जो सेल्फी को रिश्तों में दरार डालने के लिए उपयोग करते हैं।

‘ये कैसी करतबबाजी’ निबंध के माध्यम से लेखक ने शेयरिंग ऑटो के रोचक किस्से का उल्लेख करते हुए लोगों में परिवहन जागरूकता की भावना को पुष्ट किया है। ‘इक्कीस में भी उन्नीस बीस’ निबंध शीर्षक के स्तर पर अत्यंत रोचक है, किंतु लेखक की दृष्टि आधी आबादी के सशक्तिकरण के लिए व्याकुल है। वे कहते हैं ‘आश्चर्य नहीं कि आज भी हजारों, बल्कि लाखों लड़कियाँ केवल इसी वजह से अपने निजी जीवन की खुशियों को पाने और अपने व्यक्तित्व की विशेषताओं को पहचानने से वंचित रह जाती हैं। क्योंकि उनके घर के मालिक (पिता, भाई, पति और पुत्र) यह मान बैठे होते हैं कि उनके घर की महिलाओं को नौकरी करने की अनुमति नहीं है।’ (पृष्ठ- 49)

‘आखिरी बस का कंडक्टर’ निबंध में रोजमर्रा के जीवन से जुड़े दैनिक विषय की रोचक प्रस्तुति की गई है। आखिरी बस के कंडक्टर की इंसानियत को लेकर लेखक विशेष रूप से उद्धरित करते हैं। ‘… और हम वीडियो बनाने में रह गए’ निबंध में वर्तमान समय की ज्वलंत समस्या को लेखक ने प्रस्तुत किया है। वे लिखते हैं- ‘देखने और दिखाने का जुनून सिर चढ़कर बोल रहा था। उस वीडियो बनाने की छोटी सी अवधि में कोई हालात और प्रकृति के चलते अपराधी बन जाता है तो दूसरा उसका शिकार बन जाता है और हम वीडियो बनाने में रह जाते हैं।’ (पृष्ठ-54)

‘वो भी है, तन्हाई भी!’ निबंध मानव जीवन के संवेदनशील विषय को लेकर लिखा गया है। ‘एक बार जम के प्रेशर होना साब’ निबंध का आरंभ तो लेखक घरेलू समस्या से करते हैं, किंतु लेखक की सोच का विस्तार इतना होता है कि वे इसे मानवता तक विस्तृत कर देते हैं। लिखते हैं- ‘काश कि ऐसा कोई प्लंबर हो, जो हम इंसानों के रिश्तों के पाइपों में भरी छल, कपट, ईर्ष्या, घमंड और हीन भावना की धूल मिट्टी को निकाल कर प्यार मोहब्बत की प्रेशर बढ़ा दे, ताकि आपस की दूरियां कम हो और रिश्तों की आत्मीयता का पानी एक-दूसरे की ओर तेजी से बहता रहे। (पृष्ठ-58)

‘न नूरी है न नारी है’ निबंध में युवा स्त्री पीढ़ी के सही या गलत राह चुने जाने के विषय पर प्रकाश डाला गया है। ‘बादल का एक टुकड़ा’ के माध्यम से जल संरक्षण की समस्या को चित्रित किया गया है। ‘परोपकार से क्या मिलता’ निबंध में लेखक ने निस्वार्थ भाव से और अभाव के भाव से ग्रस्त व्यक्तियों द्वारा दूसरों की सहायता करने के प्रसंग को लिया है। ‘अभी कहे तो किसी को न एतबार आए’ निबंध में सोशल मीडिया के माध्यम से होने वाले धोखे का वर्णन किया गया है। वह प्रेम या धन किसी भी रूप में हो सकता है, जिससे सतर्क रहने की ओर संकेत किया गया है। ‘जेब खोलकर खर्च, दिल खोलकर खुशी नहीं’ में एक सामाजिक विषय को लिया गया है। ‘उनका भी रोना रो लें’ निबंध बहू -बेटी में चिर अंतर के भाव को व्यक्त करता है। ‘नए आदमी की पुरानी आदतें…’ निबंध शॉपिंग मॉल की संस्कृति में मेले का मजा लेने की सोच को रोचक प्रस्तुति मिली है।

‘बस इनकार कर देना’ निबंध में जिम्मेदार नागरिक बनने हेतु प्लास्टिक बैग से इनकार करने के लिए कहा गया है। ‘सुपुत्रों के पिता’ निबंध में लेखक द्वारा बेटी से अधिक बेटे के पिताओं से सुपुत्रों को संस्कारी और योग्य बनाने की कामना की गई है। ‘बहुत खूबसूरत है यह दुनिया…’ निबंध में लेखक ने जिंदगी और मौत के बीच दुनिया की खूबसूरती का चित्रण किया है। ‘छत्तीस से तिरसठ बनाना’ निबंध में लेखक ने जान और बदन की तरह न हो तो न सही, किंतु सुगंध और सुमन की तरह बनने की सीख देते हुए आपसी नजदीकियों को बढ़ाने की प्रेरणा दी है। ‘और मर्दों ने उसे…..’ निबंध में लेखक स्त्री को मानवी की दृष्टि से सम्मानित स्थान प्रदान करने हेतु पुरुषों को प्रशिक्षित करने की सीख देने की वकालत करते हैं।

‘दुल्हन वही, जो पिया मन भाए’ निबंध में लेखक नवदंपति का शब्द चित्र खींचते हुए युगल रूमानियत का चित्रण करते हैं। ‘वो माँ थी’ निबंध में लेखन में एक माँ को वृद्धावस्था में शराबी पुत्र, वधू और नाती-पोती की जिम्मेदारी लेते दिखाया है। ‘बस्ती में डूब गया तालाब’ निबंध में बढ़ते शहरीकरण और जनसंख्या में कुएँ और तालाबों को लुप्त होते देख कर लेखक व्यग्र होते हैं।

‘पिताजी न पीटते तो…..’ निबंध में माता-पिता द्वारा अपनी संतान को सही संस्कार देने की प्रेरणा दी गई है। ‘उल्टी गंगा बहाने के लिए’ निबंध में प्रकृति को अपनी सुविधा के लिए निर्देशित, नियोजित करने वाली नहर-सुरंग परियोजनाओं पर प्रकाश डाला गया है। लेखक ने विशेष रूप से तेलंगाना सरकार के गोदावरी नदी परियोजना को केंद्र में रखा है।

‘मुफ्त में बदनाम है काजी’ निबंध में गंभीर विषय को प्रस्तुत किया गया है। लड़की के जीवन के निर्णय भाई, पिता द्वारा लिए जाने और उस निर्णय का विरोध करने पर उसका कत्ल करने वाले समाज की भर्त्सना की गई है। ‘कभी आई लव यू नहीं कहा, लेकिन….’ निबंध में दांपत्य जीवन के निष्कलुष प्रेम का वृद्ध युगल दंपति के माध्यम से चित्रण किया गया है।

‘कहीं खराबी सिम कार्ड में तो नहीं है।’ निबंध के माध्यम से लेखक ने मोबाइल के सिम से बात बढ़ाते हुए कहते हैं – ‘एक सिम कार्ड हमारे भीतर भी है। मन, आत्मा और बुद्धि के बीच पता नहीं कहाँ फिट है। इसके बदलने का कोई विकल्प नहीं है।’ (पृष्ठ- 93) आगे वे कहते हैं- ‘आदमी के भीतर छुपे हुए इस ज़मीर नामी सिम कार्ड को वायरस से मुक्त करना बड़ा मुश्किल काम है। (पृष्ठ- 94)

‘अम्मा हम इंटरनेशनल हो गए हैं’ निबंध के माध्यम से बाजारवादी संस्कृति का प्रस्तुतीकरण हुआ है। ‘अंकल नहीं हूँ मैं’ निबंध रोजमर्रा के विषय से संबंद्ध है। ‘मीडिया के सवाल’ निबंध के माध्यम से लेखक ने हर आदमी में अच्छे आदमी के होने का विश्वास जताया है, जो सोते हुए या जागते हुए पाया जाता है। ‘दुनिया को सुंदर बनाने का ख्वाब’ निबंध में बढ़ते नैतिक पतन से मानवता पर संकट छाने का दुःख लेखक ने व्यक्त किया है। ‘दोस्त दोस्त न रहा’ निबंध में लेखक आधुनिक दुनिया की जीवन पद्धति से चिंतातुर है। वे कहते हैं – ‘आस-पास की दुनिया से अजनबी बने रहने का यह माहौल सारी दुनिया में पनप रहा है।’ (पृष्ठ- 104)

स्मार्टफोन में डूबती दुनिया को बचाने की कबायत में लेखक बेचैन हैं। ‘उन्हें सास-बहू ही रहने दे’ निबंध में सामाजिक, पारिवारिक जीवन के सामान्य विषय को प्रस्तुत किया गया है। ‘बात उनकी मसीहाई की’ निबंध में चिकित्सा जगत के विषय प्रस्तुत हुए हैं। ‘थकन ओढ़ के सोता है कोई’ निबंध में लेखक ने गरीबों द्वारा थकान ओढ़ने, अमीरों द्वारा थकान उतारने की बात करते-करते कामकाजी नारी के थकान पर दृष्टिपात किया है।

‘कुछ निगाहे करम इधर भी जनाब (बैक बेंचर्स)’ निबंध में लेखक ने विद्यार्थियों के प्रति शिक्षक के उत्तरदायित्व पर प्रकाश डाला है। ‘कुछ और आगे है अंतिम विकल्प’ निबंध में प्रेम के नाम पर हत्या -आत्महत्या से लेखक क्षुब्ध हैं। ‘कौशल से दोस्ती कर ले’ निबंध में आधुनिक शिक्षित बेरोजगारों पर कलम चलाया गया है। वे लिखते हैं – ‘शिक्षा और कौशल की दोस्ती कहीं पीछे हट गई, शिक्षा को हारने से बचाना है तो कौशल को साथ चलना होगा।’ (पृष्ठ-116)

‘जब चोर और कोतवाल मिलकर डांटने लगे’ निबंध में चोर- पुलिस के बीच पिसती आम जनता के त्रास को उद्धृत किया गया है। ‘बारिश ज्ञान की हो या आसमान की’ निबंध में लेखक ने बड़ी गहरी बात कही है। क्योंकि सही पात्र में उनका संचयन न हो, तो उनका बरसना व्यर्थ है। ‘हैदराबाद मेट्रो सत्रह साल पहले खुली आँखों से देखा हुआ एक ख्वाब’ निबंध में मानव जीवन विकास की गति को मेट्रो के माध्यम से उद्धृत किया गया है।

‘आ तुझे मैं गुनगुनाना चाहता हूँ’ निबंध स्त्री सशक्तिकरण के लिए समर्पित है। ‘ख्वाब… छोटे-छोटे’ निबंध में माँ-बाप के ऊँचे ख्वाब को पूरा करने के तनाव में विद्यार्थियों के आत्महत्या के विषय को प्रस्तुत किया गया है।

‘भाई साहब… अंकल जी आप भी!’ निबंध में लेखक ने यातायात के अनुशासन की ओर ध्यान केंद्रित किया है। ‘बढ़ता जा रहा है कृत्रिम दुनिया का जाल’ निबंध में लेखक खेल के साथ सपनों के भी डिजिटल होने से रोजमर्रा के यथार्थ जीवन में अनुभव की कमी पर चिंतित है। ‘पढ़े-लिखे लोगों की भीड़’ निबंध में लेखक ने भीड़ की मानसिकता का उल्लेख किया है। ‘देखो! वह अनदेखा दिखाई देता है’ निबंध में लेखक तकनीकी विकास की खूबियों से रोमांचित होते हैं। यह विकास रेडियो, टीवी, स्मार्टफोन तक हो चुका है, पर रुकता नहीं है।

‘तीन पंक्तियों की तलाश’ निबंध में लेखक ने रोजमर्रा के जीवन को रोचक और नई दृष्टि से देखने की आवश्यकता की ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया है। ‘तो आवाज़ें गुम हो जाती हैं’ निबंध में संगीत जगत का शोर आत्मा तक नहीं पहुँचने की टीस अभिव्यक्त हुई है। ‘घर से तो अच्छे ही कपड़े पहन के निकले थे’ निबंध में नई पीढ़ी के तनउघाड़ूपन की प्रवृत्ति को चित्रित किया गया है। निबंध के माध्यम से आजादी और बेशर्मी में अंतर को लेखक ने समझाना चाहा है। ‘मेरी कविता छपी नहीं’ निबंध में रचनाधर्मिता के औदात्य को रेखांकित किया गया है। ‘साहब, मैं सफेदपोश नहीं हूँ’ निबंध में वस्त्र से व्यक्तित्व का अनन्य संबंध विवेचित किया गया है।

‘कभी जब मैं तुम्हें समझ न पाऊँ’ निबंध में पीढ़ियों के अंतराल को व्यक्त किया गया है। ‘उजड़ जाओ या बसे रहो’ निबंध में गुरु नानक के द्वारा प्रयुक्त वाक्य के माध्यम से लेखक ने अच्छे लोगों को उजड़ कर सब जगह फैलने के लिए कहा है तथा संकुचित मानसिकता वालों को अपने ही स्थान पर जमे या बसे रहने हेतु कहा है। ‘उनकी बस आनी ही नहीं थी’ निबंध में भागमभाग वाली नई पीढ़ी की अति व्यस्तता पर ध्यान केंद्रित किया गया है। वे कहते हैं- ‘आज के कॅरियर केंद्रित समाज में कम लोगों ने अपना समय बचा रखा है, जो वो उसे बस के इंतजार में खर्च करें, जिसे आना ही नहीं है।’ (पृष्ठ- 150)

‘अपने ही घर में चोरी’ निबंध में बिजली की चोरी जैसे विषय को प्रस्तुत किया गया है। ‘आओ आईना देखे…’ निबंध में सड़कों पर अनाधिकार कब्जा करने वाले ठेलेबंडियों की समस्या केंद्र में है। ‘कभी मैं खुद के वास्ते तुझे तलाश करूँ’ निबंध में अपने काम से प्यार करने के लिए लेखक ने कहा है। ‘जाना कहाँ है भाई’ निबंध में लेखक ने चलने वालों से उसके मंजिल की जानकारी रखने के लिए कहा है। ‘कहीं गुमराह न कर दे दौलत और कामयाबी’ निबंध में लेखक ने संपन्नता और खुशहाली को बड़ी सरलता के साथ विवेचित किया है। वे कहते हैं दुनिया के हर व्यक्ति को यह हक है कि वह संपन्न हो, लेकिन इस बात की भी चिंता होनी चाहिए कि संपन्नता का उद्देश्य खुशहाली हो।’ (पृष्ठ-159)

‘बेमकसद की छोटी-छोटी लड़ाइयाँ’ निबंध में आज के मानव समाज में व्याप्त बेमतलब की लड़ाइयों पर तंज कसा गया गया है। ‘जिंदगी कीमती है परीक्षा और परिणाम से’ निबंध को पक्षी की कहानी के माध्यम से विषय को रोचकतापूर्वक चित्रित किया गया है। ‘पैरों पर उनका विश्वास’ निबंध में पर्यावरण एवं स्वास्थ्य की ओर कदम उठाने की प्रेरणा दी गई है। ‘क्या घर मुझसे प्रेम करता है’ इस निबंध संग्रह का अंतिम निबंध है। जहाँ लेखक भीड़ भरी दुनिया में एकाकी पड़ते जा रहे मानव समाज के प्रति चिंतातुर होकर कहते हैं- हमारे शहरीपन ने हमसे एक-एक करके यह सब खूबियां छीन ली है और हमारे हाथ में एकाकी होते जाने के साधन थमा दिए हैं।’ (पृष्ठ-168)

इस प्रकार ‘देखना मेरी ऐनक से’ ललित निबंध के माध्यम से लेखक बातों ही बातों में मानव जीवन शैली की विविध समस्याओं को समाहित करते हुए कहीं न कहीं समाधान भी प्रस्तुत किए हैं |

पुस्तक: देखना मेरी ऐनक से
लेखक: एफ एम सलीम
प्रकाशक: फाइन डिजिटल प्रिंट, हैदराबाद
प्रथम संस्करण: 2024
मूल्य: ₹200
पृष्ठ: 168

समीक्षक: डॉ. सुषमा देवी,

एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, बद्रुका कॉलेज, काचीगुडा, हैदराबाद-500027

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