मैं बार-बार कहती हूँ और फिर कहूँगी कि सृजन कार्य कोई आसान कार्य नहीं है। एक पुस्तक सृजन के पीछे कई बेचैन दिन और कई अधजागी रातें होती हैं। मेरा अनुमान है कि इस पुस्तक की लेखिका आर्या झा जी भी कुछ इसी परिस्थिति से गुजरी होंगी। लेकिन आपकी अनसोई रातें और बेचैन दिन साकार रूप में हमारे समक्ष है। तो अब हम अब आगे बढ़ते हैं और इस पुस्तक के संबंध में थोड़ा बहुत जानने की कोशिश करते हैं।
जैसा कि आप देख सकते हैं इस कहानी संग्रह का नाम है ‘आधा इश्क़’। और इस नाम से ही पता चल रहा है कि यह प्रेम कथाओं का संग्रह है। प्रेम एक अनुभूति है। इस अनुभूति से अमूमन सभी लोग गुजरते हैं। यह कुछ नहीं देखता। जात पात, ऊँच-नीच, अमीर ग़रीब इन सब चीजों से प्रेम परे है। प्रेम इंतज़ार है, जिजीविषा है, त्याग है, चाहत है।
इस पुस्तक में प्रेम के विभिन्न रूप समाहित है। प्रेमी प्रेमिका का प्रेम, पति पत्नी का प्रेम, माता-पिता का प्रेम, विभिन्न रिश्तों के बीच का प्रेम। बल्कि ये कहूँ तो कम नहीं है कि यह 18 कहानियों का संग्रह प्रेम से ओत प्रोत है।
अकसर प्रेम कथायें अधूरी रह जाती हैं। हालाँकि अब ऐसा नहीं होता। अब तो प्रेम करना मान्य है और आज अधिकतर युवायें प्रेम करते हैं और उनकी कहानी पूरी भी होती है। परंतु पहले ऐसा नहीं था। एक मध्यम परिवार के दलपहले प्यार करना मतलब बहुत बड़ा जुर्म करना होता था। माँ-बाप की नाक कट जाती थी। और माँ-बाप के उस नाक को बचाये रखने की ज़िम्मेदारी बेटियों की ही होती थी।
इस कथा संग्रह की पहली कहानी ‘आधा इश्क़’ एक अधूरे प्रेम की दास्ताँ है, जिसमें कहानी की नायिका रेवा को अपने पिता की इज्जत के लिए अपने प्रेम का गला घोंटना पड़ता है। वह अपनी सिंदूर तक धो डालती है।
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लेखिका कहती है – “आँखों से निकलते आंसू और माँग की लाली दोनों पानी के साथ बह गये। यही उसकी पहली हार थी। क्या होता अगर वह माँग भरी रखती! क्या होता अगर अपनी बात पर डंटी रहती! शायद विरोधी शक्तिशाली न बन पाते।”- (आधा इश्क़, पेज 16)।
लेखिका स्वतंत्र सोच की समर्थक है। उन्हें स्त्रियों का हार मान लेना स्वीकार्य नहीं। इसी कहानी में एक और जगह वह कहती हैं- “ओह! लव, प्यार, इश्क़, मोहब्बत यही तो ज़िंदगी की सबसे बड़ी मुसीबत है। माँ-बाप बच्चों से इतना प्यार करते हैं कि उन्हें जीने की आज़ादी नहीं दे पाते। और अगर उनकी बात न मानकर बच्चे अपनी ज़िंदगी में मशगूल होते हैं तो बुरी औलाद कहलाते हैं।”- (आधा इश्क़, पेज 34)।
‘आधा इश्क’ कहानी में वर्तमान और अतीत का इतना सुंदर समन्वय हुआ है कि पाठक एक धारा कि तरह कहानी के साथ प्रवाहित होता रहता है। अनकही कहानी में भी नायिका पिता की ख़ुशी पर अपना इश्क़ क़ुर्बान कर देती ती है। पिता बेटी से वादा लेता है कि “क़सम खाओ कि सिर्फ़ पढ़ोगी और किसी तरह की दोस्ती में नहीं पड़ोगी। पापा ने अपने सिर की क़सम दी थी। लेखिका कहती है कि एक ही पल में जीवन दिया और जीने का हक़ छीन लिया।” ये कैसा प्यार है। – (अनकही- पृष्ठ 50)।
इस संग्रह की अधिकतर कहानियाँ 90 के दशक के हैं, जहाँ प्रेम और परिवार में से एक को चुनना पड़ता था। आर्या झा के कई पात्र परिवार की बात मानकर प्रेम की बलि दी है और एक संस्कारी बेटी बनकर दिखाई है। पिता एक टिपिकल खलनायक है जो पुत्री को इस प्रेम के जंजाल से निकालने के लिए दो तरफ़ी बातें करते हैं। यानी पुत्री को कुछ और और उसके प्रेमी को कुछ और ही कहानी कहकर प्रेमी प्रेमिका के बीच गलतफहमियाँ पैदा करता है।
अंततः पुत्री अपने पिता की बात मानकर अपने प्रेम की बलि दे देती है और उनके इच्छानुसार उनके बताये हुए लड़के से शादी कर अपना कर्तव्य पूरी तरह निभाती हैं। कहानी ‘आधा इश्क़’ में भी ऐसा ही होता है। रेवा प्रेमी को छोड़कर पिता के पसंद के लड़के से शादी कर लेती है। और जीवन तमाम स्वयं को कर्तव्य कि वेदी में खुशी-खुशी आहुति देती रहती है। कहानी की एक पंक्ति देखें- “कमाल का फ़लसफ़ा है ज़िंदगी का। जिससे प्यार है उससे निभा नहीं सकते और जिससे निभाते हैं उससे प्यार से अधिक कर्तव्य जुड़ा होता है।”- (आधा इश्क़, पेज 34)।
स्त्री क्या है? उसका अपना अस्तित्व क्या है? सिर्फ़ क़ुर्बानी देना और कर्तव्य की वेदी में जलते रहना? वो भी पिता, भाई और पति के कहने पर? स्त्री के अस्तित्व के संबंध में प्रसिद्ध साहित्यकार मृदुला सिन्हा कहती हैं कि स्त्री “पति बच्चों और परिवार से कटकर अपना अस्तित्व ही नहीं समझती। उसे इन रिश्तों को जीना ही सुखकर लगता है। वह हर पल अपनी आहुति देती आह्लादित होती रहती है।”
कहने का अर्थ यह है कि स्त्रियाँ अपने कर्तव्यबोध में इस तरह तल्लीन हो जाती है कि उसका अपना सुख या दुःख नज़र ही नहीं आता। अपने कर्तव्य से ही वह प्रेम कर बैठती हैं। जैसा कि मैंने कहा इस कहानी संग्रह में प्रेम के विभिन्न रंग मिलेंगे। प्रेमी प्रेमिका का प्रेम तो अक्सर हर जगह मिलता है यहाँ पति पत्नी का ऐसा अटूट प्रेम है जो पाठक को न सिर्फ अचंभित करता है बल्कि प्रेरणा भी देता है ।
सदा सुहागन कहानी में विधवा होने के बाद भी डॉ विदिशा स्वयं को सदा सुहागन मानती है और न सिर्फ़ ऐसा मानती है सुहागिन कहलाना भी पसंद करती है। वह अपनी माँ से भी सदा सुहागन रहने का वरदान माँगते हुए कहती है- “मैं उनकी अर्द्धांगिनी उनसे पूर्ण होकर ही तुमसे आशीर्वाद माँगती हूँ।” और माँ को सदा सुहागन रहने का आशीर्वाद देने के लिए विवश भी करती है ।
प्रेम तो स्त्री और पुरुष दोनों ही करते हैं। परंतु उन दोनों के प्रेम में अंतर होता है। इस अंतर को दर्शाते हुए अनकही कहानी में लेखिका कहती हैं- “स्त्री और पुरुष की सोच यहीं तो अलग होती है। यहीं मात खा जाता है उनका प्रेम। स्त्री अपने साथी के दर्द को जीती है। उसे समा लेती है ख़ुद में। जैसे जन्मी ही हो अपने प्रिय के दर्द को वहन करने के लिए। जबकि पुरुष बस उसे खुश देखना चाहता है। उनकी भीगी हुई आँखें उसे हारा हुआ महसूस कराती हैं। वह तिलमिला उठता है। वह हार बर्दाश्त नहीं कर सकता।”- (अनकही- पृष्ठ 50)।
और इस हार से बचने के लिये पुरुष चाँद तारे भी तोड़ने पर आमादा हो जाता है। कभी आपने किसी स्त्री के मुख से सुना है चाँद तारे तोड़ने वाली बात? नहीं, ऐसी बातें पुरुष ही करते हैं। क्योंकि उन्हें स्त्री को खुश करना होता है। स्त्री तो अपने आप को ही संपूर्ण रूप से प्रेम में समर्पण कर देने में विश्वास करती है। हम सबको पता है कि कहानी कहीं और से नहीं आती हमारे अग़ल बग़ल में ही होती है। बस उन्हें शब्दों में बांधने की ज़रूरत होती है।
महान साहित्यकार अज्ञेय ने कहा- “जीवन में मानव के साथ क्या घटित होता है, उसे साहित्यकार शब्दों में रचकर साहित्य की रचना करता है, अर्थात साहित्यकार जो देखता है, अनुभव करता है, चिंतन करता है, विश्लेषण करता है, उसे लिख देता है। साहित्य सृजन के लिए विषयवस्तु समाज के ही विभिन्न पक्षों से ली जाती है। साहित्यकार साहित्य की रचना करते समय अपने विचारों और कल्पना को भी सम्मिलित करता है।” आर्य झा की कहानियाँ भी उनकी आत्मानुभूति से जुड़ी हुई है। यही कारण है कि ये कहानियाँ पाठकों को भावनाओं में बहाने में सक्षम है।
कॉलेज का समय, दोस्तों की मस्ती, उनके क़िस्से और उन सबकी ज़िंदगी की कथागाथा सरल शब्दों में इस कहानी संग्रह में कम्पाइल किया गया है। शब्दों का फ्लो ऐसा है कि वह पाठक को अपने साथ बहा ले जाती है। इसे पढ़ते हुए हम हम नहीं होते हम इन कहानियों के पात्र बन जाते है। हम अपने हॉस्टल लाइफ में चले जाते हैं। अपनी फेयरवेल पार्टी, हमारा ख़ुद का कॉलेज का टूर, प्रोफेसर का लेक्चर आदि का मज़ा लेते हुए हम हमारे अपने मित्रों के साथ इन कहानियों में गोता लगाने लगते हैं।
चूँकि लेखिका स्वयं ही एक सशक्त महिला है। अतः इस कहानी संग्रह की स्त्रियाँ भी बड़ी सशक्त है। लेखिका ने कहीं भी उसे कमजोर नहीं दिखाया है। प्रेम में सफल हुई या नहीं, परिवार वाले उनकी बात माने या नहीं माने, जहाँ भी गई जो भी परिस्थिति में रही उसमें ढलते हुए पति का और परिवार का सहारा बनी। अकसर पुरुष स्त्री का सहारा बनते हैं। यहाँ स्त्रियाँ अपने पति का सहारा बनी है। अधूरा इश्क़ की मुख्य स्त्री पात्र रेवा पति के कंधे से कंधे नहीं मिलाती है वह पति को सहारा देती है। दहेज कहानी में नायिका मंगनी टूटने पर अपने मंगेतर को खलनायक बताते हुए उपन्यास लिख डालती है। वह हार मानने में विश्वास नहीं करती।
डॉ विदिशा अपने प्रेमी पति के जाने के बाद इस तरह टूटती है कि उसके बच्चों को यहाँ तक कहना पड़ता है कि “माँ तुम भी क्यों न मर गई पापा के साथ!” परंतु वह उठती है। सम्भालती है ख़ुद को, बच्चों को। बच्चों के साथ साथ ख़ुद की पढ़ाई पूरी करती है। नौकरी करती है और सभी स्त्रियों की प्रेरणा श्रौत बनती है।
सदा सुहागन कहानी सत्य कथा से प्रेरित बहुत ही भावपूर्ण है। इस कहानी के लिए लेखिका ने स्वयं कहा है- “उनकी कहानी लिखने का एकमात्र उद्देश्य नारियों में सृजनात्मक शक्तियों का संचार करना है। आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास है कि यह सत्यकथा संपूर्ण नारी जाति के लिये प्रेरणास्पद साबित होगी।”- (सदा सुहागन, पेज 48)।
स्त्रियों को सशक्त बनाने का यह सुंदर माध्यम है। इस संग्रह की कई कहानियाँ मुझे बहुत ही सरल और मधुर लगी। विशेषकर आध्यात्मिक प्रेम पढ़कर मुझे दिलवाले दुल्हनियाँ सिनेमा की याद आ गई। जहां नायक अपनी प्रियतमा को लेकर भागता नहीं है, न ही चुपके से शादी करता है। वह घरवालों का दिल जीतता है।
रीया की माँ खुश थी पर पिता के निर्णय से भिज्ञ थी। उन्होंने बस इतना ही कहा- “बेटा वह नहीं मानेंगे। पर आदित्य ने बड़ी विनम्रता से कहा- “आपने बेटा कहा है मुझे, बस अपना आशीर्वाद दीजिए।”- (आध्यात्मिक प्रेम, पेज 85)। और वह वो बनकर दिखाता है जो रिया के पिता की चाहत होती है। फिर सबकी मर्ज़ी से उससे विवाह करता है।
कहानी संग्रह में प्रेम की पूर्ति के लिए पुनर्जन्म का सहारा भी लिया गया है। ‘आवारा मसीहा’ कहानी का नायक अपनी पत्नी के मरने के 25 वर्ष बाद उसी की स्वभाव वाली स्त्री तारा को पाता है। लेखिका ने यह दर्शाया है कि तारा उसकी पहली पत्नी ही है जो पुनः पैदा होकर 25 वर्ष बाद उसकी सूनी बगिया को पुनः संवारने हेतु आई है।
प्रेम के साथ-साथ कई सामाजिक समस्याएँ भी कहानी में चलती रहती है। सबसे बड़ी समस्या तो दहेज की है जो आज भी समाज को खोखला बना रहा है। स्वाभाविक है लेखिका इसको नज़रअंदाज़ नहीं कर पाई है। ‘दहेज’ शीर्षक कहानी में अच्छा भला तय रिश्ता सिर्फ़ पैसे के लिए टूट जाती है। लेखिका कटाक्ष करते हुए कहती हैं- “ऑफ़र लेटर के पहले उसके द्वारा होनेवाली टूट फुट के लिए दहेज रूपी कॉशन मनी माँग लिया जाता है। कहने की ज़रूरत नहीं कि जितना बड़ा खानदान उतना ही तगड़ा दहेज। दोगले दोमुहें लोग जो समाज सेवी बनने का ढोंग करते हैं। वह भी लालच में मुँह फाड़े रहते हैं।”- (दहेज, पेज 73)। बहुत सुंदर कटाक्ष है।
स्त्री के मनोभावों का प्राकृतिक चित्रण एक स्त्री जिस सहजता से कर सकती है वैसा कोई नहीं कर सकता। महियसी महादेवी वर्मा ने श्रृंखला की कड़ियाँ में लिखा है- “पुरुष के द्वारा नारी का चरित्र अधिक आदर्श बन सकता है, परंतु अधिक सत्य नहीं। पुरुष के लिए नारीत्व अनुमान है। परंतु नारी के लिए अनुभव। अतः अपने जीवन का जैसा सजीव चित्र नारी हमें दे सकेगी वैसा पुरुष बहुत साधना के उपरांत भी शायद ही दे सके।” अतः स्त्री के बग़ैर साहित्य सृजन असंभव है। लेखिका आर्या झा ने अपने इर्द गिर्द घटे घटनाओं को अपने अनुभवों के साथ जोड़कर उसमें कल्पना का छौंक लगाकर ‘आधा इश्क़’ कहानी संग्रह में कहानियों का प्लैटर परोसा है।
जमाना नया है लोग मॉडर्न है। एक ओर जहां लेखिका ने अपने प्रेम के लिए स्ट्रगल करते हुए सैक्रिफाइस करना दिखाया है वही दूसरी ओर तीसरी औलाद कहानी में बोल्ड और अक्खड़ लड़की का बाग़ी होकर लिविंग रिलेशन शिप में रहते हुए भी बताया है। और यहाँ माँ उसे मारती डाँटती या भगाती नहीं है, बल्कि उसका साथ देती है। पंक्ति देखिए – “एक पल को तो दिमाग़ ही घूम गया। यह क्या कर डाला बाग़ी बिटिया ने। मगर जब घर ही छोड़ दिया था तो सवाल क्या और जवाब क्या। इस वक्त उसे नसीहतों की नहीं बल्कि मदद की ज़रूरत थी।” (तीसरी औलाद, पेज-91)। माँ उसका साथ देकर अपनी खोई हुई बेटी को पाने में सफल होती है।
सुंदर सरल और सहज तरीक़े से 18 कहानियों के माध्यम से प्रेम के विभिन्न पहलुओं के रूप में लेखिका अपनी बात रखती गई हैं। जितनी बातें कहनी है उन्होंने उतनी ही बातें कही हैं। इधर उधर कहीं भटकी नहीं हैं और न ही जटिल शब्दों के जाल में फँसी है। जिससे पाठक के लिए इसे समझने में कोई कठिनाई नहीं होती। कहानियों को सुखांत बनाकर इन्होंने “अंत भला तो जग भला” वाली कहावत चरितार्थ किया हैं, जो पाठक के मन में सकारात्मकता का बोध उत्पन्न करता है। सकारात्मक सोच के साथ हम किताब को बंद कर पाते हैं। विश्वास है कथा प्रेमी को यह कहानियों का प्लैटर रुचिकर अवश्य लगेगा।
समीक्षक डॉ आशा मिश्र “मुक्ता”