कादंबिनी क्लब हैदराबाद की मासिक गोष्ठी में ‘बिहार की कविताओं में नदी’ पर हुई सारगर्भित चर्चा

हैदराबाद : कादंबिनी क्लब हैदराबाद की 347वीं मासिक गोष्ठी का आयोजन गूगल ऐप पर श्री अवधेश कुमार सिन्हा (नई दिल्ली) की अध्यक्षता में आयोजित किया गया। क्लब की अध्यक्षा डॉ अहिल्या मिश्र एवं कार्यकारी संयोजिका मीना मूथा ने संयुक्त रूप से आगे बताया कि इस अवसर पर मुख्य अतिथि एवं प्रमुख वक्ता के रूप में डॉ अशोक कुमार ज्योति (असिस्टेंट प्रोफेसर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय) उपस्थित थे। विशेष अतिथि के रुप में श्रुति कांत भारती (मिलिंद प्रकाशन) की उपस्थिति रही। शुभ्रा महंतो द्वारा कवि निराला रचित सरस्वती वंदना की सुंदर प्रस्तुति दी गई।

डॉ अहिल्या मिश्र ने उपस्थित महानुभावों का शब्दपुष्प से स्वागत करते हुए कहा कि कोरोना की विकट परिस्थितियों का डटकर सामना करते हुए कादम्बिनी क्लब निरंतर साहित्य की सेवा में गतिमान रहा है। संस्थान ने 2 जून को 28वें वर्ष में पदार्पण किया है। और यह दीर्घ यात्रा स्थानीय और अस्थानीय सभी रचनाकारों, साहित्यकारों के बहुमूल्य सहयोग के कारण ही संभव हुआ है। क्लब नवांकुरों को मंच प्रदान करते हुए उन्हें तराशने का कार्य करता है। पठन-पाठन, चिंतन-मंथन, वरिष्ठ साहित्यकारों से परिचय कराना संगोष्ठी सत्र का विशेष आयोजन क्लब की प्रमुख गतिविधियां हैं। आभासी दुनिया का साथ इस कोरोना काल में महत्वपूर्ण कड़ी है। और तकनीकी ज्ञान से परिपूर्ण प्रवीण प्रणव संगोष्ठी सत्र संयोजक संचालन कर्ता की भूमिका व जिम्मेदारी बहुत महत्वपूर्ण रही है।

डॉक्टर मिश्र ने प्रमुख वक्ता डॉ अशोक कुमार ज्योति का परिचय संक्षेप में देते हुए कहा कि आज ‘बिहार की कविताओं में नदी’ विषय पर प्रपत्र प्रस्तुत करेंगे। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से उनका जुड़े होना ही उनके व्यक्तित्व का परिचायक है। कवि लेखक संपादक के रूप में आप जाने जाते हैं।

प्रवीण प्रणव ने कार्यक्रम का संचालन करते हुए कहा कि डॉ अशोक कुमार का परिचय सुनकर हमें अब उन्हें सम्मुख मिलने और सुनने की उत्सुकता बढ़ रही है। उन्होंने प्रपत्र प्रस्तुति के लिए उन्हें सादर आमंत्रित किया। डॉक्टर अशोक कुमार ज्योति ने ‘बिहार की कविताओं में नदी’ विषय पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि नदियां हमारी जीवनदायिनी हैं। विज्ञान जब विकसित नहीं था तब नदियों से ही कृषि संस्कृति, ऋषि संस्कृति का उद्गम हुआ। नदियां जल और अन्न भी देती हैं।

ऋषि संस्कृति ज्ञान की पोशक है और कृषि संस्कृति जीवन की पोशक है। नदी, झरने, सरिता, निर्झरिणी तरंगिणी, कल-कल नादिनी आदि अनेक नामों से नदी को जाना जाता है। नदी से प्यारा मुहावरा भी बनता है ‘नदी को नाव’ समाज के प्रांगण में व्यक्तिगत व्यवहार में उपयोग होता रहा है। नद धातु से नदी शब्द की उत्पत्ति हुई। धारा और प्रवाह नदी से निकले शब्द हैं। नदी से जहां मुहावरा बनता है वही शब्दों की यात्रा भी बनती है। दूध की नदी, पानी पानी होना, भंवर आदि शब्द जल से संबंधित है। मिथिला का क्षेत्र अनेक नदियों से घिरा है। नदियों की महत्ता जीवन की धारा बनती है और वही वह भौगोलिक मापदंड का रूप भी जताती है।

उदाहरण स्वरूप महाकवि विद्यापति, आचार्य शांतिकेतु, कवि नागार्जुन, भुवनेश्वर प्रसाद मिश्र आदि कवियों के काव्य की पंक्तियां भी डॉक्टर अशोक ने प्रस्तुत की। नदियों के संगम पर मेला लगता था, मंदिर बनाए गए अतः नदियाँ सांस्कृतिक केंद्र की पहचान बनी। नदियां हमारे लिए शोक का कारण भी बनती रही है। बिहार के लोग बाढ़ से त्रस्त हुए, कोसी नदी ने कई बार विकराल रूप धारण किया। नदियों में प्रवणता है तभी वह हमारे जीवन की चर्चा में शामिल हो जाती है। नदियों को बांध दिया गया तो उसके परिणाम भी भुगतने पड़े। आज आवश्यकता है कि गंगा की स्वच्छता पर ध्यान दिया जाए। नदियां प्रदूषण मुक्त हो इस पर विचार आवश्यक है। नदी जीवन को आगे बढ़ने का सूत्र देती है।

कबीर जी कहते हैं कि “गंगा की तरह मन को भी निर्मल कर लो तो हरी भी पीछे-पीछे आएगा।” गति में ही जीवन का सिंगार है। जिस नदी के तट पर हमने अपनी सभ्यता का विकास किया है वह अक्षुन्न है। हमें उन नदियों के प्रति कृतज्ञता रखनी होगी। नदी के तट की सभ्यता संस्कृति को संरक्षित करें, यह मानव की महानता का परिचायक है। प्रवीण प्रणव ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि डॉ अशोक ने ऋग्वेद से लेकर नदी के उद्गम और मुहावरों की बात करते हुए वर्तमान कवियों की पंक्तियों को उद्गारित किया।

राहत इंदौरी, निदा फ़ाज़ली, दुष्यंत आदि साहित्यकारों ने भी नदी मिथक का बहुत सुंदर उपयोग किया है। आज बेशक हमें एक नया विषय अभ्यास के लिए मिला है। डॉ अहिल्या मिश्र ने कहा कि हमारी संस्कृति के साथ सभ्यता की उड़ान नजर आती है। नदियाँ सुखदाई भी रही और दुखदाई भी रहीं। अशोक ने तत्सम से तद्भव शब्दों को हमारे सामने रखा। प्रदूषण जैसे समस्या को भी विस्तार से रखा गया। गंगा जमुना सरस्वती इन तीन नदियों का जिक्र साथ-साथ होता रहा है परंतु सरस्वती नदी लुप्तप्राय है। आज बड़ी ही सुंदर और सारगर्भित चर्चा हुई है।

अवधेश कुमार सिन्हा ने कहा कि इतिहास साक्षी है कि भारत की विभिन्न संस्कृतियाँ नदियों के किनारे ही पनपी हैं। नदियों से संबंधित लोकगीत भी बने। आज आवश्यकता है प्रदूषण से नदियों को बचाने की। जीवनदायिनी को जीवित रखेंगे तो हमारे संस्कृति भी बची रहेगी। इस अवसर पर रमाकांत श्रीवास और चंद्र प्रकाश दायमा ने भी अपनी बातें रखी।

दूसरे सत्र में कवि गोष्ठी का आयोजन हुआ इसमें भावना पुरोहित, संपत देवी मुरारका, ज्योति नारायण, डॉक्टर अहिल्या मिश्र, डॉ अशोक कुमार ज्योति, दीप्ति मिश्रा, अवधेश कुमार सिन्हा, चंद्र प्रकाश दायमा, किरण सिंह, निवेदिता चक्रवर्ती, दर्शन सिंग, दीपक दीक्षित, विनीता शर्मा, प्रवीण प्रणव, रवि वैद्य, सुषमा देवी, संतोष झा, सत्यनारायण काकड़ा, विनोद कुमार गिरी अनोखा, डॉ सुरेश कुमार मिश्रा, सरिता सुराणा, श्रीनिवास रमाकांत, सीताराम माने, सुख मोहन अग्रवाल, श्रुतिकांत भारती, अर्चना झा, मोनिका जायसवाल, अवनीश कुमार, राहुल कुमार, शुभ्रा महंतो, ने अपनी रचनाओं से सभी को मंत्र मुग्ध कर दिया। गीत, कविता, गजल, लघुकथा आदि विभिन्न विधाओं का सभी ने आनंद लिया।

अध्यक्षीय टिप्पणी में अवधेश कुमार सिंह ने सभी रचनाकारों को सराहा तथा सभी का हौसला बढ़ाया। लेखन की ओर इसी प्रकार अग्रसर रहने की प्रेरणा दी। ज्योति ने समापन पर उपस्थित गणों के प्रति आभार व्यक्त किया। सफल संचालन के लिए प्रवीण प्रणब को बधाई दी गई।

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