आज पितृपक्ष का पहला दिन है। यह कोई त्यौहार नहीं एक उपहार है। हम अपने लिए तो जन्मदिन से विवाह दिन तक न जाने और क्या – क्या मनाते हैं, आज अपने अग्रज, अपने पूर्वजों को तो याद कर लिया जाये जिन्होंने इतनो अच्छी विरासत, संस्कृति, संस्कार और विज्ञान प्रदान किया हमारी सुख शांति और ऐश-ओ-आराम के लिए। पर सच बोलिए हम हों या आप कितना याद करते हैं उन्हें? आज से प्रारंभ हुआ पितृपक्ष उन्हीं के लिए हैं। इस व्यवस्था को जिसने भी बनाया हो, लागू किया हो, बड़ा उपकार किया है मानव समाज पर।
पूर्वजों को सबसे उत्तम श्रद्धांजलि तो यह होगी की हम पुत्र – पुत्र – प्रपौत्र के रूप में ऐसा कोई काम न करें जिससे उनके नाम के साथ हमारा नाम जोड़कर बदनाम किया जाये। यह संकल्प आज बहुत ही महत्वपूर्ण होगा। श्रद्धांजलि देंगे हम उनको और लाभ होगा हमारा। विकास होगा हमारा, प्रगति और उन्नयन होगा हमारा। तो इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है।आइये स्मरण करते हैं अपने प्रथम पूर्वज को जिन्हें हम ईश्वर भगवान् खुदा जो भी नाम दे।
कुछ एंग्लो इंडियन सोच वालों की नजर में पितृ पक्ष पर्व मानना, यह दिखावा और ढकोसला हो सकता है। परंतु मेरी दृष्टि में नही, दूसरों को बाध्य भी नहीं किया जा सकता। आपको अपने संस्कारों पर भले विश्वास न हो, मुझे तो है। मैं अपने पूर्वजों को झूठा, फरेबी नहीं कह सकता, उनमें दोष दर्शन, छिद्रानवेषण नहीं कर सकता। आपको यदि अच्छा लगे तो कहिए करिए, यही तो सीखा है विदेशियों से, यह अपनी-अपनी सोच है।
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किंतु इसे जरा इस प्रकार सोचिए, कौआ, वृक्ष, कुत्ता ये प्रतीक हैं प्राकृतिक संतुलन के। सोचिए यदि कौआ और गिद्ध न हों तो प्रकृति मे सड़ांध, गंदगी कितनी हो जायेगी? कौआ घरेलू है, गिद्ध डरावना है, यद्यपि दोनों ही प्रकृति के सफाई कर्मी हैं, इसलिए कौआ को पक्षी जगत के प्रतिनिधि रूप में स्वीकार किया गया है। कौआ, कुत्ता, गौरैया, पीपल, वट नदी, सरोवर ये प्रकृति और मानव जीवन के अत्यंत सन्निकट हैं।
अपने पूर्वजों को याद करते समय इन प्रकृति के संतुलन कारकों को भी घ्यान में रखना है, इनका भी पल्लवन पोषण करना है जिससे असंतुलन की स्थिति न बने। आदत बनी रहेगी तो वर्ष भर चलेगी। यदि पर्व त्योहार पर पूड़ी दही खिलाते हो तो आदत बनी रहने पर वर्ष भर कम से कम जूठन भी तो दोगे ही। संरक्षण के अभाव में एक नदी (फल्गु) कैसे सूख गई है, देखो इसे सोचो, मनन करो। गया जाकर ही इसका अनुभव हो सकता है। दूर घर में बैठकर उपदेश देने और लेक्चर झाड़ने से नहीं।
यह पर्व प्रकृति के पोषण का सीधा सा सरल एक संदेश है। यह संदेश वैज्ञानिक सिद्धांतों के रूप में भले ही न गुथा हुआ हो, परंपरा में ये सिद्धांत घुसे पड़े हैं। हम कहानियों से सिद्धांत नहीं सीखते किंतु पाश्चात्य देश हमारी कहानियों मे सिद्धांत ढूंढ़ ही लेते हैं।
जैसे गंगावतरण की परिकल्पना “ओह्म का सिद्धांत” है। इंद्र वृत्तासुर की लड़ाई “ओजोन की समस्या और समाधान” है। विश्वामित्र और वशिष्ठ का द्वंद्व “वर्षा का सिद्धांत” है। मैने इन कथानकों पर बहुत कार्य किया है। आप भी चकित हो जायेंगे पढ़कर। मैने विज्ञान में गंभीर पढ़ाई की है और अध्यात्म में सामंजस्यपूर्ण शोध कार्य, इसलिए इस निष्कर्ष पर पहुंच पाया हूं। कोई कोरा वैज्ञानिक या कोरा आध्यात्मिक, अकंगी चिंतनवाला इसमें सामंजस्य नहीं बिठा पाएगा।
पुत्र की सार्थकता पितृ (माता, पिता) सेवा से प्रारंभ होकर राष्ट्र सेवा तक पहुंचती है और अंततः “सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे संतु निरामया…” तक व्यापक हो जाती है। यही पवित्रता है, उत्कर्ष है और अद्वैत का अंतिम लक्ष्य है।
“जय सनातन”, “जय अद्वैत दर्शन”, जय भारतीय संस्कृति।।
डॉ जयप्रकाश तिवारी
बलिया, उत्तर प्रदेश (94533 91020)