लेखक प्रवीण प्रणव की नई किताब ‘लिए लुकाठी हाथ’ के लिए वरिष्ठ साहित्यकार प्रोफेसर देवराज के ‘आशीर्वचन’

(ऋषभदेव शर्मा के साहित्य की समीक्षा)

लुकाठी के गुणों का अंत नहीं

प्रिय प्रवीण जी,

‘लिए लुकाठी हाथ’ की पाण्डुलिपि पढ़ने और फिर कुछ लिख भेजने के लिए इतना कम समय था कि गंभीरतापूर्वक लिखने लायक तत्व ढूँढना-खोजना मुश्किल हो गया। मैं जिस तरह का आलसी और कामचोर हूँ, उसके चलते यह काम और भी दुष्कर अनुभव हुआ। फिर भी आपने इतने परिश्रम पूर्वक प्रो. ऋषभदेव शर्मा के साहित्य की जो समालोचना की है, वह टुकड़े-टुकड़े ही सही, अपनी ओर खींचती रही। इसलिए जो कुछ और जितना कुछ पढ़ पाने पर जो भी अनुभव किया, चिट्ठी में लिखे दे रहा हूँ-

आपने अपनी विवेचना-बुद्धि का अधिकतम सदुपयोग करते हुए प्रो. ऋषभदेव शर्मा के काव्य (यद्यपि विवेचना के लिए कुछ ही काव्य-संकलन चुने हैं, लेकिन संदर्भानुसार बात उनके समग्र काव्य-संसार की कर दी है, अत: यह प्रो. ऋषभ के संपूर्ण काव्य-संसार की ही समालोचना है) में उनकी जन-पक्षधर-चेतना को प्रारंभ में ही मूल्यांकन के लिए चुना है। यह मेरे लिए अप्रत्याशित आश्चर्य और संतोष का विषय है कि आपने किसान-मजदूर, शोषित-पीड़ित, निर्धन-निर्बल तथा अधिकारहीन आम-जन में स्त्री को भी शामिल करके प्रो. ऋषभदेव शर्मा के काव्य में एक साथ सबकी खोज की है। आपके इस विवेचन-विश्लेषण के निष्कर्षों में प्रो. ऋषभदेव शर्मा के जन-पक्षधर-काव्य के कुछ वैशिष्ट्यों का उल्लेख है, जैसे- ‘आम जन का जीवन, आम जन का दुख, आम जन का क्षोभ और क्रोध, आम जन की आवाज़ बन कर उनके साथ खड़े रहने की प्रतिबद्धता, आम जन को सावधान करना कि लड़ाई उस व्यवस्था से है, जिसकी मुट्ठी में हवा भी क़ैद है, आम जन का आह्वान कि अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी होगी, जय-पराजय की न सोच कर सत्य के पक्ष में आवाज़ उठाने की जरूरत, धार्मिक उन्माद, भड़कते दंगे, भूखे पेट का व्यवस्था के खिलाफ आवाज़ उठाना हिंसा नहीं, न्याय की मांग, स्त्रियों के भाव, क्षोभ, घुटन, प्रेम, दर्द का सजीव चित्रण, स्त्री सशक्तीकरण के नाम पर स्त्रियों के हाथों में पकड़ा दिए गए झुनझुने, स्त्रियाँ दोयम दर्जे की गुलाम, स्त्रियों को संगठित होकर आवाज़ उठाने की जरूरत’ आदि। कह सकता हूँ कि प्रो. ऋषभदेव शर्मा की तेवरियों और जनपक्षीय मुक्तछंद कविताओं को आपने उसी रचनात्मकता, समालोचक की ईमानदारी और संघर्ष-चेतना के दबाव में पढ़ा है, जिसने कवि से इन कविताओं की रचना कारवाई है।

शायद इसीलिए, जब मैं आपके ‘लेखकीय’ में पढ़ रहा था कि “प्रो. ऋषभदेव शर्मा का रचना-कर्म जनवादी है। बिना ‘वामपंथ’ या ‘प्रगतिशील’ होने का ठप्पा लगाए उनकी रचनाएँ सत्ता के विरुद्ध एवं जनता के हक़ में आवाज़ उठाती रही हैं। शोषक वर्ग के विरुद्ध और शोषितों के साथ खड़े होना उनकी कविताओं की मूल भावना है”, तभी लग गया था कि आपका निष्कर्ष होगा कि “प्रो. शर्मा वंचितों के कवि हैं, सदियों से दबी हुई स्त्रियॉं के कवि, किसान, मजदूरों के कवि हैं या यूँ कहें कि हर उस व्यक्ति के कवि हैं, जिसका रिश्ता पीड़ा से है और ऐसे हर व्यक्ति की आवाज़ प्रो. शर्मा की लेखनी उठाती रही है।”

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प्रो. ऋषभदेव शर्मा के काव्य-संसार में और गहरे उतरते हुए आप प्रेम के उस रूप तक पहुँच गए हैं, जिसकी आभा तो मोती की आभा को पराजित करती लगती है, लेकिन कहीं उसमें आपको खुरदरा प्रेम भी दिख गया है। यह आपकी बहुत पैनी अनुवीक्षण-दृष्टि की छाया लगी, जो मुझे अपने साए में नागार्जुन की उस एक कविता तक ले गई, जिसमें ‘कटहल के छिलके सी जीभ’ उपमा का प्रयोग है। बाबा की वह कविता पाठक को भीतर तक छील देती है और प्रो. ऋषभ की, आपकी नजर में आई यह प्रेम कविता भी प्रेम के साधक-अध्येताओं को सचाई के चाकू से चीर डालती है। क्या आपको नहीं लगता की प्रो. ऋषभ की ये प्रेम कविताएँ ही उन कविताओं की भी स्रोत हैं, जिन्हें आपने ‘नदी, झील, संगम, फूल और मिठास’ की फुनगियों से बातें करती हुई कविताओं के रूप में बड़ी मेहनत से खोजा है और उन्हीं में से कुछ को ‘भेड़िए की बजाय मनुष्य बनने की कोशिश’ में लगे आदमी की कविताएँ कहा है; तभी तो कुल मिला कर प्रो. ऋषभ की ये कविताएँ ‘मानवता के बचे रहने की आशा’ की कविताएँ हैं।

लेकिन भाई, एक अतिवादी निष्कर्ष से बच सके होते तो अच्छा लगता। आप कहते हैं कि “प्रेम को परिभाषित करने के लिए प्रयोग में लाए गए बिंब और प्रतीक न सिर्फ नए और अनसुने हैं, बल्कि ये प्रेम को लौकिक से अलौकिक और जीवन की क्षण भंगुरता से परे पवित्र, निश्चल और रूहानी प्रेम की तरफ ले जाते हैं।” इसमें बिंबों और प्रतीकों का नया या अनसुना होना तक तो बात ठीक है, परंतु यह प्रेम को अलौकिक या रूहानी दिशाओं की ओर ले जाने वाला निष्कर्ष धर्मराज के रथ की तरह ज़मीन से चार अंगुल ऊपर उठ गया लगता है। हाँ आपका यह अध्ययन-निष्कर्ष खूब गले उतरता है कि “प्रो. शर्मा की कविताओं में कुछ भी आयातित नहीं है- कविता में जो भाषिक सौंदर्य है, पौराणिक घटनाओं या पात्रों का मिथक के रूप में प्रयोग है या बिलकुल ही अनोखे अलंकरणों के माध्यम से सौंदर्य की व्याख्या; सब कुछ प्रो. शर्मा के अपने हैं और जिन्हें कहीं और, किसी और की कविता में इस तरह नहीं पाया जा सकता।”

प्रवीण जी, कमाल किया है आपने। आप अचानक प्रो. ऋषभदेव शर्मा की दो कालजयी कविताओं की ओर खींच ले गए। मुझे याद है, संग्रह में आने के पहले ही संयोगवश माँ और पिता पर रची गई ये कविताएँ पढ़ने को मिल गई थीं। मैं भी आप ही की तरह अपने आँसू नहीं रोक सका था। कविताओं में मुझे अपने अदेखे माँ-पिता बहुत याद आए थे। इन कविताओं की काव्यात्मकता अथवा काव्य-शिल्प पर मैं कभी विचार नहीं कर सका। साहित्य के पाठक का यह अक्षम्य दोष है, इस बात को स्वीकार करता हूँ, लेकिन क्या करूँ, ये कविताएँ काव्यशास्त्र की देहरी पर चढ़ने ही नहीं देतीं। आपका मूल्यांकन सही है कि प्रो. ऋषभदेव शर्मा की “दो कविताएँ ऐसी हैं, जिन्हें पढ़ने के बाद एक लंबे विराम की आवश्यकता होती है। आँखें भर आती हैं, मन विचलित होता है, कई स्मृतियाँ मानस-पटल पर कौंध जाती हैं। माँ और पिता के बारे में लिखी गई इन दो कविताओं के लिए प्रो. शर्मा को किसी भी बड़े से बड़े पुरस्कार से सम्मानित किया जा सकता है।”

काव्य की ही तरह प्रो. ऋषभदेव शर्मा के गद्य का विश्लेषण भी आपने अत्यंत व्यापक और बहुज्ञ अध्ययन-दृष्टि का प्रयोग करते हुए किया है। आपके अध्ययन-निष्कर्षों को (भी) निचोड़ कर प्रो. ऋषभ के पत्रकारितेतर गद्य की विशेषताओं की छोटी-सी सूची बनाना चाहूँ, तो काटाकूटी करने के बाद उसमें कुछ-कुछ ये विशेषताएँ होंगी- ‘मूलत: कवि प्रो. ऋषभदेव शर्मा की आलोचना का मुख्य विषय भी कविता, गद्य में कविता जैसा ही भाषिक सौंदर्य, कम शब्दों में अपनी बात प्रभावशाली ढंग से कहने का कौशल, लेखकीय ईमानदारी का निर्वाह, भक्ति कालीन कवियों के मूल्यांकन में भक्ति से अधिक मानवीय मूल्यों की खोज, हिंदी के गोरखनाथ से लेकर अधुनातन कवियों और कथाकारों के मूल्यांकन के साथ ही तेलुगु, तमिल आदि भाषाओं के रचनाकारों का भी मूल्यांकन, हिंदी साहित्येतिहास में स्थान बना चुके छायावाद, प्रगतिवाद, समकालीन कविता आदि आंदोलनों की परीक्षा, लघुकथा जैसी चुनौतीपूर्ण विधाओं का विश्लेषण, कालजयी उपन्यासों की परीक्षा, कथा साहित्य में दलित और आदिवासी विमर्श की खोज, स्त्री-पुरुष संबंधों के चित्रण की परीक्षा, साहित्य में गाँव, बच्चे, मानवाधिकार, वैश्वीकरण का यथार्थ, इक्कीसवीं शताब्दी की कहानी की शक्ति और संभावनाओं की तलाश, हिंदी के भारतीय और वैश्विक संदर्भों का साक्षात्कार, कविता और कथा में शहरीकरण और जनपदीय चेतना की खोज’ आदि। प्रो. शर्मा के गद्य में इन विशेषताओं के खोजी होने के चलते आप समझ सकते हैं कि यह ‘आदि’ हाथी का पाँव है, जिसमें असंख्य पाँव समाए हुए हैं।

‘साहित्य, संस्कृति और भाषा’ पुस्तक के लेखों की समालोचना करते हुए आप लेखक प्रो. ऋषभदेव शर्मा से टकराने की ओर भी बढ़े हैं। इसके एक लेख ‘रामकथा आधारित एनिमेशन ‘सीता सिंग्स द ब्ल्यूज’ : एक अध्ययन’ में प्रो. ऋषभदेव शर्मा रामकथा और उसके चरित्रों के साथ नीना पेले द्वारा किए गए व्यवहार पर टिप्पणी करते हुए ‘आस्थावादी प्रतिबद्ध संस्कृतिकर्मी’ के बदले कलाकार और लेखक की स्वतंत्र चेतना के पक्षधर ‘उत्तर आधुनिक व्यक्ति’ का रवैया अपनाते हैं। प्रवीण जी, आप इससे भीतर ही भीतर बेहद आहत अनुभव करते हैं, इतने अधिक कि अपने आप को यह कहने से नहीं रोक पाते कि “इसमें दो-राय नहीं कि इस फिल्म, जिसमें स्क्रिप्ट, एनिमेशन से लेकर निर्देशन तक का बीड़ा नीना पेले ने उठाया, में उन्होंने बेहतर काम किया है, लेकिन स्थापित मान्यताओं के विरुद्ध जाकर संदर्भ से अलग परिस्थितियों का चित्रण, अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर उस सीमा-रेखा का उल्लंघन है, जहाँ जनमानस की भावनाएँ आहत होती हैं।” इसके बाद इस एनीमेशन से ही अपने समर्थन में उदाहरण देते हैं- “दशरथ की मृत्यु के समय कैकेयी की गोद में उनका सिर होना और कैकेयी का अश्लील फिल्मों की नायिका की तरह नर्स के कपड़ों में अर्धनग्न और उत्तेजक चित्रण समझ के परे है।” सीता, रावण और राम के संबंध में भी वहीं से कुछ प्रसंग चुन कर प्रस्तुत करते हैं, जो आपके लिए इससे भी वीभत्स लगने वाले हैं। अंत में आपकी टिप्पणी है कि आपको यह “उदारमना लेखक द्वारा ‘मूँदें आँखि कतहुं कोउ नाहीं’ वाली उदारता को जारी रखने जैसा लगता है।” सच कहूँ, यद्यपि आप अपने क्षोभ को पचा गए हैं, बहस से भी विरत से ही हो गए हैं, टिप्पणी भी अति संकोच पूर्वक ही की है, फिर भी यहाँ (मूल पाठ के) ‘लेखक प्रो. ऋषभदेव शर्मा’ से (इस पुस्तक के) ‘लेखक प्रवीण प्रणव’ का जो भी थोड़ा-बहुत टकराव दिखता है, वह बहुत प्यारा और ईमानदारी भरा लगता है। वरना, हिंदी में जो लोग प्रशस्तिपरक लेखन के अभ्यस्त हैं, वे अपने प्रिय लेखक के लिखे पर न कोई शंका करते हैं, न सवाल उठाते हैं, न बहस खड़ी करते हैं और न कोई ऐसा आलोचनात्मक टकराव पैदा होने देते हैं, जो उनकी रीढ़ की हड्डी सीधी होने की गवाही दे।

लेकिन भाई, आपकी इतनी प्रभावकारी लेखकीय ईमानदारी के बाद ‘साहित्य, संस्कृति और भाषा’ पुस्तक के ही बहाने प्रो. ऋषभदेव शर्मा के गद्य-लेखन में आई पुनरावृत्ति का स्पष्टीकरण मुझे नहीं जमा। आपने लेखन का एक नितांत सही पक्ष खोजा है– समय-समय पर किए गए लेखन में कहीं-कहीं पुनरावृत्ति-दोष का आ जाना। यह किसी भी ऐसे लेखक के संदर्भ में होना संभव है, जो लगातार और बिना थके लिखता हो अथवा जिसे इतना अधिक लिखना पड़ता हो। यह एक अपरिहार्य लेखन-दोष है, जिसके लिए उस लेखक को कोई ऐसी कैफियत देने की जरूरत नहीं होती, जो पैरों न चल सके। और, उस लेखक के समालोचक को भी- इस दोष का उल्लेख कर देने के अलावा- कोई रक्षा-दीवार खड़ी करने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। अब आप अपना दिया स्पष्टीकरण देखिए, “साहित्य, संस्कृति और भाषा जैसे विषयों पर ये लेख अलग-अलग समय पर लिखे गए हैं, इसलिए कुछ बिंदुओं की पुनरावृत्ति हुई है; लेकिन यह खलती नहीं, क्योंकि हर लेख में पाठकों के लिए बहुत कुछ नया है और जिन बिंदुओं की पुनरावृत्ति हुई है, वे इतने महत्वपूर्ण हैं कि उन्हें बार-बार दुहराया ही जाना चाहिए। विपणन (Marketing) के क्षेत्र में ‘Rule of 7’ एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है, जो यह कहता है कि यदि आप चाहते हैं कि ग्राहक कुछ याद रखे, तो कम से कम सात बार आप उसे ग्राहक के सामने लाएँ।” इसके बाद आप राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्रप्रसाद की ‘साहित्य, शिक्षा और संस्कृति’ पुस्तक के प्रकाशन का उदाहरण देते हैं, जो उनके 28-29 वर्ष की अवधि में समय-समय पर दिए गए भाषणों का संग्रह है। डॉ. राजेंद्रप्रसाद ने पुनरावृत्ति (और विरोधाभास) की संभावना को बड़े सहज रूप में स्वीकार किया है, लेकिन उसके लिए कोई सफाई नहीं दी है। मैं जो कहना चाहता हूँ, आशा है, आप उसे समझ रहे हैं।

प्रो. ऋषभदेव शर्मा द्वारा पत्रकार की भूमिका निभाने के क्रम में किए गए लेखन का मूल्यांकन करते हुए पुन: आपके निष्कर्ष ध्यान खींचते हैं। आपके कुछ निष्कर्ष, जो मुझे खूब भाए, वे हैं– ‘साहित्यकार होने के कारण पत्रकारीय लेखन में पठनीयता का सौंदर्य राजनीतिक विश्लेषकों से अधिक, सरल भाषा में पाठकों के सामने वस्तुस्थिति रखना, अपने विचार बिना किसी लाग-लपेट के प्रकट करने में विश्वास रखना, घटना के भीतरी-बाहरी वर्तमान प्रभाव के साथ ही उसके भविष्य में होने वाले फलितार्थ का संकेत करना, सत्ता-पक्ष और विपक्ष दोनों पर पैनी नज़र बनाए रखना, संवेदनशील मुद्दों पर सशक्त और संतुलित दृष्टिकोण को प्राथमिकता देना, मतदान के प्रति उदासीनता की प्रवृत्ति की आलोचना के साथ ही उसे मतदाता की ओर से ‘नोटा’ के रूप में भी देखने का सुझाव देने के बहाने सभी विषयों में राजनीतिक-सत्ता और नागरिक के संबंधों को परखने पर बल देना’ आदि। यहाँ आपका वस्तुनिष्ठ एवं संतुलित अभिमत और भी प्रभावित करता है– “पत्रकारिता के क्षेत्र में, जहाँ पीतपत्रकारिता का बोलबाला है, जहाँ बहुसंख्यक लोग अंधभक्ति या अंधविरोध के खेमे में शामिल हो बिगुल बजा रहे हैं; जहाँ खबरों की प्रामाणिकता, टीआरपी या पाठक तक पहुँच के आधार पर तय की जाती हो; तटस्थ रह पाना इतनी मुश्किलों और चुनौतियों भरा विकल्प है कि ऐसे किसी भी व्यक्ति को आज विस्मय की नज़र से देखा जाता है। इन कठिन परिस्थितियों में प्रो. ऋषभदेव शर्मा (1957) के संपादकीय लेखों को पढ़ना जेठ की दुपहरी में मलय पवन की शीलता के समान है।”

प्रवीण जी, ‘लिए लुकाठी हाथ’ में समय-समय पर लिखे गए आपके जितने समालोचना-लेख संकलित हैं, वे सभी निजी अध्ययन-निष्कर्षों, गहरी आत्मीयता, मूल्यांकन की गंभीर इच्छा और समालोचना के लिए अनिवार्य सत्यनिष्ठा का प्रतिफल हैं। जब आप कहते हैं कि “मुझे याद है, जब मैंने प्रो. शर्मा को जानना शुरू ही किया था, तब लगता था कि इनकी कविताओं की चर्चा होनी चाहिए। कई मंचों से बाद में यह हुआ भी। लगा कि इनकी कविताओं पर आलेख लिखे जाने चाहिए और वह भी हुआ। इनके समग्र साहित्य को पढ़ कर लगा कि इनके बारे में लोगों को और जानना चाहिए और एक विस्तृत किताब आनी चाहिए”, तो पता चल जाता है कि यह पुस्तक एक ऐसी नागरिक-ज़िम्मेदारी के निर्वाह के लिए सामने आ रही है, जो आज के साहित्य की लेखक-पाठक दुनिया में विलुप्त होने के कगार पर है। ऊपर से, जिस लेखक के साहित्य पर यह पुस्तक केंद्रित है, वह ऐसा है, जिसका व्यक्तित्व सभी के भीतर वैचारिक ऊर्जा जगाता आया है। आप भी अनुभव करते हैं कि “कम ही लोग ऐसे होते हैं, जिनके साथ बात करते हुए आप हर बार कुछ नया सोचने पर विवश होते हैं, हर बार आप कुछ नया सीखते हैं, हर बार आप कुछ नया करने की प्रेरणा पाते हैं और प्रो. ऋषभदेव शर्मा ऐसे ही व्यक्ति हैं।”

ऐसी अगाध आत्मीयता के जल से भीगी हुई टटकी आलोचना हिंदी के पाठकों को एक अलग तरह का पठन-सुख देगी, यह सोच कर अच्छा लग रहा है। अपने ढंग के इस अभिनव कार्य के लिए आपको शुभकामनाएँ।

लिए लुकाठी हाथ/ लेखक- प्रवीण प्रणव/ बिभूति प्रकाशन, बी 302, ग्रीन हिल्स, चंदा नगर, हैदराबाद-500050/ प्रथम संस्करण: 2024/ पृष्ठ 164/ मूल्य ₹ 250/- (पेपरबैक)।

प्रोफेसर देवराज
पूर्व अधिष्ठाता : मानविकी संकाय
मणिपुर विश्वविद्यालय, इम्फाल (मणिपुर)
dr4devraj@gmail.com/
7599045113

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