विश्व भाषा अकादमी की ‘फणीश्वरनाथ रेणु के साहित्य में आंचलिकता’ विषय पर परिचर्चा गोष्ठी सम्पन्न

हैदराबाद : विश्व भाषा अकादमी, भारत की तेलंगाना इकाई के तत्वावधान में रविवार को ऑनलाइन परिचर्चा गोष्ठी का आयोजन किया गया। तेलंगाना इकाई की प्रदेशाध्यक्ष सरिता सुराणा ने इस गोष्ठी की अध्यक्षता की। उन्होंने गोष्ठी में भाग लेने वाले सभी पदाधिकारियों और परामर्शदाताओं का हार्दिक स्वागत किया। ज्योति नारायण द्वारा प्रस्तुत सरस्वती वन्दना से कार्यक्रम का शुभारम्भ हुआ। तत्पश्चात् इसी सप्ताह दिवंगत हुए साहित्यकारों- सुरेश जैन और राजकुमार छाबड़ा को दो मिनट का मौन रखकर श्रद्धांजलि अर्पित की गई। साथ ही अकादमी सदस्य के आत्मीय जन के दुखद निधन पर उन्हें भी श्रद्धांजलि अर्पित की गई।

‘फणीश्वरनाथ रेणु के साहित्य में आंचलिकता’

यह गोष्ठी दो सत्रों में आयोजित की गई। प्रथम सत्र में ‘फणीश्वरनाथ रेणु के साहित्य में आंचलिकता’ विषय पर परिचर्चा का आयोजन किया गया। रेणु के प्रारम्भिक जीवन के बारे में बताते हुए अध्यक्ष ने कहा कि हिन्दी साहित्य के सुप्रसिद्ध रचनाकार फणीश्वरनाथ रेणु का जन्म 4 मार्च 1921 को बिहार के पूर्णिया जिले के औराही हिंगना गांव में हुआ था। यह फारबिसगंज के पास स्थित है और वर्तमान में अररिया जिले में आता है। इनका बचपन का नाम फनेसरा था और इनकी दादी इन्हें ऋणुआ कहकर बुलाती थी। बाद में नागार्जुन जी ने उसे सुधार कर रेणु कर दिया और तब से ही इनका नाम फणीश्वरनाथ रेणु पड़ गया। इनके पिता शिलानाथ मण्डल सम्पन्न व्यक्ति थे, उन्होंने देश के स्वतंत्रता संग्राम में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। इनकी माता का नाम पाणो देवी था। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा भारत और नेपाल में हुई। इन्होंने जयप्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रान्ति में अहम भूमिका निभाई।

साम्यवादी विचारधारा से प्रभावित

इनका जीवन उतार-चढ़ाव और संघर्षों से भरा हुआ था। वे साम्यवादी विचारधारा से प्रभावित थे और राजनीति में प्रगतिशील विचारधारा के समर्थक थे। अपने पिता से प्रेरणा पाकर उन्होंने भी स्वतंत्रता-संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने 1942 के ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में सक्रिय रूप से भाग लिया। तत्पश्चात् वे साहित्य सृजन की ओर उन्मुख हुए। उन्होंने ‘मैला आंचल’, ‘परती परीकथा’, ‘जुलुस’, ‘दीर्घतपा’, ‘कितने चौराहे’ और ‘पलटू बाबू रोड’ नामक उपन्यास लिखे। ‘ठुमरी’, ‘अग्निखोर’, ‘आदिम रात्रि की महक’ और ‘तीसरी कसम’ आदि इनके प्रमुख कहानी-संग्रह हैं। इन्होंने रिपोर्ताज और संस्मरण भी लिखे। इनके साहित्यिक योगदान के लिए इन्हें भारत सरकार द्वारा ‘पद्मश्री’ सम्मान से सम्मानित किया गया।

उपन्यासों और कहानियों में नायक

परिचर्चा को आगे बढ़ाते हुए मुख्य वक्ता सुनीता लुल्ला ने कहा कि यह उनका सौभाग्य है कि वे रेणु जी जैसे बड़े साहित्यकार से आमने-सामने मिली और उनसे बहुत-सी बातों पर चर्चा की। उस समय उनका उपन्यास ‘मैला आंचल’ उनके कोर्स में था। उनके उपन्यासों और कहानियों में नायक की जगह अंचल प्रमुख रहता था। उनका रहन-सहन और पहनावा बहुत सादगीपूर्ण था। मिट्टी से गहरा रिश्ता था उनका। उनकी कहानी-मारे गए गुलफाम पर ‘तीसरी कसम’ नामक फिल्म बनाई गई थी। उनकी रचनाओं में लेखक के साथ पाठक का जुड़ाव महसूस किया जा सकता था। उनमें लोकगीत, लोककथाएं और आंचलिक भाषा का प्रयोग बहुतायत में मिलता है।

‘पंचलाइट’ कहानी

आर्या झा ने रेणु जी को याद करते हुए कहा कि यह वर्ष उनका जन्म शताब्दी वर्ष है। मेरा जन्म भी बिहार में ही हुआ है, इसलिए मैं रेणु जी के साहित्य को अपने बहुत करीब पाती हूं। उनकी ‘पंचलाइट’ कहानी उन्हें अत्यधिक प्रिय है। उसके नायक को बावरा समझकर जब समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता है तो पंचलाइट जलाने के बाद उसे फिर से समाज में मिला लिया जाता है और फिर गांव में उसका मान बढ़ जाता है।

ज्योति नारायण की एक कविता

ज्योति नारायण ने उनकी एक कविता- ‘दुनिया दूसती है, राम रे राम! क्या पहरावा है’ सुनाई। डॉ.आर सुमन लता ने कहा कि रेणु जी जमीन से जुड़े हुए साहित्यकार थे इसलिए आज वे जमीन पर बैठकर ही उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के बारे में सुनकर आनन्दित हो रही हैं। गोष्ठी में उपस्थित सभी सदस्यों ने अपने-अपने विचार साझा करते हुए इस बात पर सहमति जताई कि फणीश्वरनाथ रेणु निश्चित रूप से आंचलिकता के सिरमौर साहित्यकार हैं।

द्वितीय सत्र में काव्य गोष्ठी

द्वितीय सत्र में काव्य गोष्ठी में अधिकांश रचनाकारों ने ‘मदर्स डे’ के अवसर पर मातृ शक्ति को नमन करते हुए अपनी-अपनी रचनाएं प्रस्तुत की। आर्या झा ने अपनी पुत्री को समर्पित करते हुए यह रचना प्रस्तुत की- ‘तुम, तुम हो! नहीं हो सकती अशक्त!’ भावना पुरोहित ने एक रोचक प्रसंग सुनाते हुए कहा कि बच्चों के दिमाग में कब कौन-सी घटना अपना प्रभाव डालती है, पता नहीं चलता। बच्चे द्वारा यह पूछना बहुत ही संदेशप्रद है कि जिस तरह खीरे का कड़वापन उसका थोड़ा-सा अग्र भाग काटकर दूर किया जा सकता है, वैसे ही जबान का कड़वापन दूर करने के लिए क्या जीभ का थोड़ा-सा हिस्सा काटा जा सकता है? संगीता जी शर्मा ने- ‘मां एक रिश्ता नहीं, कोमल अहसास है’ रचना का पाठ किया।

प्रदीप देवीशरण भट्ट ने अपनी कविता- ‘जिन्दगी से दिल लगाना सीख लो/तुम भी थोड़ा मुस्कुराना सीख लो’ सुनाकर सभी के चेहरों पर मुस्कान ला दी। सुनीता लुल्ला ने छोटी बह्य की गज़ल- ‘यूं नजर में बसा मेरा घर/हर जगह दिख रहा मेरा घर’ प्रस्तुत करके सभी से वाहवाही बटोरी। सुहास भटनागर ने मां को समर्पित अपनी रचना- ‘मां की गोदी में सिर रखना, सो जाना/ढलती उम्र में बहुत याद आता है’ पढ़ कर सभी को भाव-विभोर कर दिया।

ज्योति नारायण ने मुक्तकों के साथ अपनी रचना- ‘प्रभु अब तो आओ, इस कल्प में समाओ’ को सस्वर प्रस्तुत किया। सरिता सुराणा ने ‘ये कैसी मुश्किल घड़ी है आई/सर्वत्र निराशा ही निराशा छाई’ सुनाई। उन्होंने कहा कि वर्तमान समय में हम सब जिस संक्रमण काल से गुजर रहे हैं, उससे बाहर निकलने का एक ही रास्ता है कि हम सब सकारात्मक सोच को बढ़ावा दें और एक-दूसरे का मनोबल बढ़ाएं, क्योंकि मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। ज्योति नारायण के धन्यवाद ज्ञापन के साथ बहुत ही उल्लासमय वातावरण में गोष्ठी सम्पन्न हुई।

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