विशेष लेख : गंगा क्या है – नदी, आस्था या विज्ञान?

गंगा एक “नदी है” जो निकलती है गोमुख गंगोत्री से और आकर नीचे हिमालय से हरिद्वार – प्रयाग – काशी होते हुए ऋषि – मुनियों के कुटीरों का स्पर्श – संश्पर्शन करते हुए … जा मिलती है – सागर से और बन जाती है – गंगा सागर।

गंगा हमारी “संस्कृति है” जो विष्णु के नख से निःसृत हो जा समाई ब्रह्मा के कमंडल में और जब निकली कमंडल से बन के, वेगवती – रूपवती – प्रलयंकारी, जा उलझी खुली जटाओं में “शिव” के। इस प्रकार गंगा योजक है – भारतीय संस्कृति के नियामक त्रिमूर्ति का। हमारी आस्था – विश्वास और भावनाओं का।

गंगा है “आस्था” और विश्वास का अटूट संगम। केवल गंगाजल ही है समर्थ, तारने मे राजा सगर के भस्मीभूत हो चुके सहस्रों लाडलो को, इसलिए गंगावतरण बन गया था, एक पवित्र मिशन भगीरथ के लिए। भगीरथ की सफलता के बाद गंगा बन गयी है – भागीरथी’। तारनहार और पालनहार!! हो गयी सुलभ जनसामान्य के लिए, और बन गयी है प्रबल केंद्र, आस्था का, श्रद्धा का, विश्वास का ..।

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सूर्य षष्ठी (छठ) का पवन पर्व पवित्र गंगा या नदियों के तट पर, तट ही नहीं कमर तक महिलाएं साड़ी सहित स्वयं को भिगोये आधे से एक घंटा, कुछ तो और भी अधिक समय तक लगातार जलधारा में खड़े होकर उनकी भौतिक और आध्यात्मिक यह तप का महत्व क्या है, कितना है और क्यों है? यह चिंतन और शोध दोनों ही क्षेत्रों के लिए महत्वपूर्ण तथ्य होना चाहिए। किंतु अफसोस इसे मात्र एक पर्व कहकर सीमित कर दिया गया है। यह हमारे जीवन की सफलता का मूल मंत्र है। हमारे भौतिक जीवन की कठिनाइयां ही “अस्ताचल सूर्य” है, किंतु सबसे बड़ी बात इस “अस्त” का अर्थ “अन्त/समापन” नहीं है। यदि विश्वास, श्रद्धा और पुरुषार्थ हो तो जीवन की इन कठिनाइयां का अंत होगा और एक नया धवल, शुभ्र और पावन सूर्योदय होगा, यह “सूर्योदय” ही हमारे जीवन का प्रभात काल है। गंगा नदी इस व्रत की महिमा और परिणाम की साक्षी है।

गंगा शिव की जटाओं में है। वे हमारी प्राथना, हमारा निश्चय, हमारा दृढ़ संकल्प शिव तक पहुंचाती हैं। शिवत्व का दिव्यतेज और उनकी ऊर्जा का प्रतीक ही यह जगत पोषक, पालक सूर्य है। इसीलिए इसका आध्यात्मिक नाम “पूषण” है, “आदित्य” है। छठ की लोकगीतों में इसका एक महत्पूर्ण नाम “दीनानाथ” है। यह अनायास नहीं है, सयास और सोद्देश्य है। यह सूर्य सृष्टि का प्राण तत्व है। शास्त्रों में कहा गया है – “ध्यायहु सदा मंडल मध्यवर्ती”, किंतु छठ इसमे पूर्ववर्ती और पश्चात्वर्ती को भी जोड़ कर इस मंत्र को और भी सार्थक बना देती है। “प्राण” और “रई” ही आध्यात्म सृष्टि विज्ञान के मूल तत्व है – (द्रष्टव्य प्रश्नोपनिषद)। इस प्रकार गंगा और आदित्य (सूर्य) का अत्यंत महत्वपूर्ण संबंध है। इसे शोध का केंद्रीय विषय वस्तु बनाना होगा। इनके भौतिक, आध्यात्मिक संदर्भ को समझना और समझाना होगा। किंतु हम नितांत भौतिकता और क्षुद्र स्वार्थ के लोभी बनकर कितने नादान हो गए हैं। इस विज्ञान की चकाचौंध में इन तथ्यों से अनभिज्ञ, अबोध भी। क्या हमें इसका दुष्प्रभाव, कुप्रभाव दिखता नहीं? हमे विवश होकर कहना पड़ता है।

अरे, हाय रे नगरीय सभ्यता! हाय रे भौतिकता की प्रगति !! तूने तो सत्यानाश ही कर डाला, सैकड़ों नाले-सीवर का मुह खोलकर, कूड़ा – कचरा बहाकर इस पवित्र नदी में। अरे तूने खून कर डाला है, कोटिशः आस्थाओं का। क्या अधिकार है तुझे किसी की आस्था और भावनाओं को कुचलने का? अरे, किसने दिया तुझे यह हक, यह अधिकार? कुछ शर्म करो! तुझे धिक्कार !! बार-बार और पुनः पुनः धिक्कार !!

गंगावतरण विज्ञान भी है – एक सूत्र है भौतिकी का, कहती है जिसे वह – ओह्म्स ला उच्च वोल्टेज हिमालय (V) से निम्न वोल्टेज गंगासागर के बीच बहने वाली गंगा इस प्रवाह (i) के परिपथ को जोडती है। शिव की जटायें प्रतिरोध (R) की भूमिका निभाते हुए प्रदान करती है – ‘वांछित धारा’, उपयोगार्थ और प्रयोगार्थ।साथ ही प्रदान करती है- एक वैज्ञानिक माडल – “ओह्म्स ला” के लिए।

डॉ जयप्रकाश तिवारी
जन्म भूमि: ग्राम पोस्ट भरसर, बलिया
निवास: लखनऊ, उत्तर प्रदेश

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