प्रोफेसर एम वेंकटेश्वर जी नही रहे। उनका न रहना विश्वास ही नही हो रहा है। खबर मिलते ही उनसे संबंधित सारी स्मृतियां आंखों के सामने एक बार ही घूम आई। पहली मुलाकात व्यक्तिगत रूप से उनसे हैदराबाद के कोठी स्थित महिला कॉलेज में आयोजित साहित्यिक सभा में हुई थी। सभा कब हुई यह मुझे याद नही है। वर्ष, तिथि आदि याद रखने के मामले में मैं हमेशा से ही कमजोर रहा हूँ। उस सभा का विशेष महत्व इसलिए था क्योंकि उसमें हंस के तत्कालीन संपादक राजेंद्र यादव, वर्तमान साहित्य के संपादक विभूतिनारायन राय, प्रसिद्ध कहानी और उपन्यासकर शैलेश मटियानी आदि प्रमुख लोगों की उपस्तिथि थी।
वेंकटेश्वर जी उस समय उस्मानिया युनिवर्सिटी से जुड़े हुए थे। शायद हिंदी विभाग के अध्यक्ष थे। सेंट्रल युनिवर्सिटी के सुवास जी द्वारा संपर्क में आये थे। बहुत ही गर्म-जोशी से मिले थे। तेलुगु भाषी होने पर भी हिंदी पर उनका बहुत अच्छा अधिकार था। फर्राटे के साथ बोलते थे। हिंदी बोलते समय कहीं नहीं लगता था कि वे अहिंदी भाषी हैं। जितना अधिकार हिंदी पर था उतना ही अधिकार उनका अंग्रेजी पर भी था। कभी कभार उनसे फोन पर बातचीत हो जाया करती थी। बहुत ही सहृदयी और मिलनसार। जब मैने उन्हें अनुवाद से संबंधित मीटिंग के लिए आमंत्रित किया था तो व्यस्तता के बावजूद उन्होंने उसे स्वीकार किया था और आये भी थे।
वे मेरे संपूर्ण लेखन पर विस्तार से लिखना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने मेरी प्रकाशित रचनाएँ और पुस्तकें भी मंगवाई थी। इसके लिए मुझसे व्यक्तिगत तौर पर मिलकर चर्चा भी करना चाहते थे। हैदराबाद आने पर जरूर मिलने के लिए कहते थे। परंतु हैदराबाद तो मेरा अक्सर आना जाना होता रहा पर उनसे मुलाकात टलती रही। आज उनके न रहने पर इस बात पर मुझे बहुत ही खेद हो रहा है। काश उनसे मिलना न टालता।
हिंदी स्वतंत्र वार्ता के पूर्व संपादक राधेश्याम शुक्ल ने स्वतंत्र वार्ता से अलग होने के बाद भास्वर भारत नाम से एक द्विमासिक पत्रिका निकालना आरंभ किया था। बहुत ही उम्दा गेटअप, उम्दा छपाई, उम्दा पेपर वाली पत्रिका थी यह। उसके हर अंक में वेंकटेश्वर जी का विश्व सिनेमा से संबंधित एक विस्तृत लेख होता था। स्पार्टकस, गान विथ दी विंड, बेनहर जैसे विश्व प्रसिद्ध सदाबहार फिल्मों पर उन्होंने लेख लिखे थे। विश्व सिनेमा के प्रति गहरी समझ थी उनकी। उनके इन लेखों ने इन फिल्मों के प्रति एक नई समझ दी थी पाठकों को। जब भी भास्वर भारत का नया अंक आता मैं सबसे पहले फिल्मों पर उनकी समीक्षा ही पढ़ता था। इसके बाद फोन पर उनसे एक लंबी बातचीत होती। शायद वे भास्वर भारत के परामर्शदाता भी थे। बाद में अचानक वह पत्रिका बंद हो गयी।
हाल ही में पता चला कि राधेश्याम शुक्ल बिना किसी को बताये बीच में ही सब कुछ छोड़ छाड़कर चले गए थे। इस बात से भी वेंकटेश्वर जी बहुत क्षुब्ध हुए थे। वेंकटेश्वरजी जी अक्सर मुझे कहानी लेखन छोड़कर उपन्यास लिखने का सुझाव देते थे। स्वर्गीय रोहताश्व जी भी मुझे अनुवाद के चक्कर में सृजनात्मक साहित्य से डाइवर्ट न होने की राय देते थे। वेंकटेश्वर जी और रोहिताश्व जी दोनों से मेरे अच्छे संबंध थे। परंतु उन दोनों के बीच किसी बात को लेकर गंभीर मतभेद था। जो भी हो हैदराबाद के साहित्य जगत में वेंकटेश्वर जी की गहरी छाप थी। उनके इस तरह जाने की रिक्तता हैदराबाद का साहित्य जगत हमेशा महसूस करता रहेगा।
– लेखक और कहानीकार एन आर श्याम, 12-285 गौतमीनगर मंचेरियल 504208, मोबाइल नंबर 8179117800,
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