Republic Day Special: संविधान और गणतंत्र का सह अभ्युदय और 70 वर्षों का सहगमन

[‘तेलंगाना समाचार’ के आग्रह पर लेखिका और सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट बबीता झा ने यह लेख भेजा है। इससे पहले इस बारे में वरिष्ठ पत्रकार और लेखिका सरिता सुराणा से चर्चा की गई थी। परिणामस्वरूप एक सारगर्भित लेख आया है। विश्वास है कि पाठकों को ज्ञानवर्धक जानकारी मिलेगी। व्यस्तता के बीच समय निकालकर लेख भेजने के लिए बबीता जी के प्रति आभारी हैं।]

भारत का संविधान केवल एक ऐसी पुस्तक नहीं हैं जिसमें देश के नीति निर्माताओं और प्रशासकों के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत लिखे गए हैं, अपितु यह एक जीवंत और गतिमान मार्गनिर्देशक है। वास्तव में एक राष्ट्र के रूप में भारत के अभ्युदय से साथ ही संविधान का भी अभ्युदय हुआ। यही कारण है कि हमारे राष्ट्रीय आंदोलन के लिए जो प्रेरक सिद्धांत थे, एक नवीन राष्ट्र के निर्माण के लिए जो स्वप्न थे, वे सभी संविधान में मूर्तिमान हुए। देश भले ही स्वतंत्र 1947 में ही हो चुका था, लेकिन गणतन्त्र वह संविधान के लागू होने के साथ ही बना। इसीलिए गणतंत्र दिवस का अवसर संविधान की यात्रा के पुनरावलोकन का भी अवसर है।

संविधान और गणतंत्र की घोषणा एक नए राष्ट्र के अभ्युदय की घोषणा थी। गणतंत्र की सुरक्षा, एकता और अखंडता के समक्ष खड़े कई चुनौतियों के कारण कुछ लोग संविधान को असफल कहते हैं। कुछ लोग इसमें अधिक संशोधन किए जाने के कारण भी इसमें कमियां मानते हैं। वे अमेरिका के संविधान से इसकी तुलना करते हैं जो कि इससे बहुत पहले 4 मार्च, 1789 में पहले लागू हुआ है, लेकिन अभी तक उसमें केवल 33 संशोधन हुए हैं। पर अमेरिका के संविधान से भारत के संविधान की तुलना सही नहीं है। इसका कारण है दोनों की परिस्थितियों में अन्तर। अमेरिका का संविधान बहुत संक्षिप्त है, वहाँ राज्यों को पर्याप्त स्वतंत्रता प्राप्त है, इसीलिए संविधान संशोधन की प्रक्रिया अत्यंत कठोर रखी गई है। एक आम भारतीय की दृष्टि से इन 75 सालों में संविधान हर कसौटी पर खड़ा उतरा है। इसे कुछ उदाहरणों से देखा जा सकता है।

व्यावहारिक गतिमानता

1950 में संविधान के लागू होने से लेकर अभी तक इसमे 105 संशोधन हो चुके हैं। 105वाँ संविधान संशोधन 10 अगस्त 2021 को हुआ जिसका उद्देश्य था ‘अन्य पिछड़ा वर्ग’ (ओबीसी) की सूची बनाने के लिए राज्यों की शक्ति को पुनर्स्थापित करना। इतने अधिक बार संविधान में संशोधन की आवश्यकता होने को कुछ लोग इसकी असफलता का प्रमाण मानते हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। स्वाभाविक रूप से समय के अनुरूप राष्ट्र की परिस्थितियाँ परिवर्तित होती रहती है, अगर संविधान इसके साथ नहीं चलेगा तो या तो वह अप्रासंगिक हो जाएगा या फिर राष्ट्र रूढ़िवादी हो जाएगा। एक सामान्य और स्वास्थ्य विकास के लिए परिवर्तन आवश्यक है। परिवर्तन के लिए यथा आवश्यक कठोर या लचीली प्रकिया अपनाया जा सके इसके लिए संविधान ने संशोधन के लिए तीन तरह की प्रणाली को अपनाया है। यह लचीलापन संविधान के व्यावहारिक होने की पहचान है। संभवतः यही कारण है कि एक राष्ट्र के रूप में भारत के समक्ष कई बार कठिन चुनौती आई लेकिन उसका हल संवैधानिक प्रक्रिया के द्वारा ही निकाला गया, पड़ोसी देशों की तरह तख्तापलट की जरूरत नहीं हुई।

मूल अधिकार-नीति निर्देशक तत्व संघर्ष

संविधान के लागू होने के साथ ही मूल अधिकारों में आपस में संघर्ष और मूल अधिकार और नीति निदेशक तत्त्वों में संघर्ष के रूप में इसके समक्ष एक गंभीर चुनौती आ गई। चंपकम दोराइजी बनाम मद्रास राज्य, गोलकनाथ, शंकरी प्रसाद जैसे केस से इस तरह का संघर्ष देखने को मिला। कई लोगों के लिए यह संविधान की आलोचना करने का अवसर बन गया। लेकिन शीघ्र ही सर्वोच्च न्यायालय ने सामंजस्य के सिद्धांत को लागू करते हुए यह सिद्ध किया कि संविधान के सभी भाग एक सामान्य उद्देश्य, जिसका निरूपण उद्देशिका में है, की प्राप्ति के लिए हैं, इसलिए इनमें विरोधभास नहीं हो सकता है।

न्यायपालिका-कार्यपालिका संघर्ष

संविधान में इस तरह की व्यवस्था की गई है कि राज्य के तीनों अंग- न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका, अपने-अपने क्षेत्र में पूर्ण स्वतंत्र हों, लेकिन एक-दूसरे को संतुलित भी रखते रहे। संविधान के 70 वर्षों की यात्रा में कई बार ऐसे अवसर आए जब किसी एक अंग ने अपनी सीमा का अतिक्रमण किया। नागरिकों के मूल अधिकार और राज्य के नीति निदेशक तत्व के संघर्ष के मुद्दे पर पहली बार कार्यपालिका-न्यायपालिका में टकराव की नौबत आती दिखी। लेकिन केशवानन्द भारती केस में ‘संविधान के बुनियादी ढांचे’ के सिद्धांत का प्रतिपादन कर सर्वोच्च न्यायालय ने एक बहुत ही संतुलित मध्य मार्ग निकाला। बाद में अन्य कई केस में भी इस सिद्धांत का प्रतिपादन और विकास हुआ। लेकिन वर्तमान में यह सर्वमान्य और इस दोनों में टकराव को रोकने के लिए सबसे कारगर सिद्धांत के रूप में स्थापित है।

राजीव गांधी के समय शहबानों बीबी केस, वर्तमान सरकार के समय न्यायिक नियुक्ति के लिए आयोग का मामला आदि कई बार न्यायपालिका और कार्यपालिका एक-दूसरे के सामने आती दिखी लेकिन हर बार संविधान के अंतर्गत ही समाधान निकला।

कार्यपालिका-विधायिका संघर्ष

कार्यपालिका-न्यायपालिका की तरह ही कार्यपालिका और विधायिका में भी संघर्ष के कुछ नाजुक मौके आए। इसका सबसे प्रसिद्ध उदाहरण है- सरकार द्वारा कानून पास करने के बजाय अध्यादेश द्वारा कानून बना कर काम करना। डी सी बाधवा बनाम बिहार राज्य मामले में न्यायालय ने अध्यादेश के प्रावधान के दुरुपयोग रोकने के लिए कुछ दिशा-निर्देश जारी किए।

केंद्र-राज्य संघर्ष

संविधान निर्माताओं के समक्ष के बड़ी चुनौती थी राष्ट्र के संघीय ढांचे को बनाए रखते हुए एक तरफ राज्यों को अपने मामले में पूर्ण स्वतंत्रता देना तो दूसरी तरफ राष्ट्र की अखंडता को सुरक्षित रखना। संविधान ने सातवीं अनुसूची बना कर संघ और राज्यों के बीच कार्य-क्षेत्रों का सुपष्ट विभाजन कर दिया है। दोनों के आय के स्रोत भी सुपरिभाषित हैं। फिर भी अगर विवाद उत्पन्न होता है तो उनका न्यायिक प्रक्रिया से हल निकल सके इसके लिए संविधान के अनुच्छेद 131 के तहत सर्वोच्च न्यायालय में वाद दायर करने की प्रक्रिया का भी उपबंध है। इसके बावजूद विवाद और आरोप-प्रत्यारोप के कई अवसर आए हैं।

सविधान के अनुच्छेद 356 का उपयोग कर राज्य सरकार की शक्ति ले लेना और केंद्र द्वारा राज्य का शासन चलाना जिसे आम भाषा में ‘राष्ट्रपति शासन लगना’ कहते हैं, संघ द्वारा संविधान के आपातकालीन प्रावधानों का दुरुपयोग कर राज्यों की अधिकार क्षेत्र के अतिक्रमण का एक प्रसिद्ध उदाहरण है। लेकिन यहाँ भी सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान के तहत राज्य की स्वतंत्रता और संघ की सुरक्षा के लिए संतुलित रास्ता निकाल लिया है। एस आर बोम्मई केस में न्यायालय ने माना कि अगर राज्य के कार्यों द्वारा संविधान के ‘बुनियादी ढांचे’ को क्षति पहुँचे तब संघ राज्य सरकार को बर्खास्त कर सकता है, या विधान सभा भंग कर नए चुनाव का आदेश दे सकता है अथवा वहाँ राष्ट्रपति शासन लगा सकता है। लेकिन संघ इस शक्ति का दुरुपयोग नहीं कर सकता है। संविधान के अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लगाने से पहले उसे अनुच्छेद 353 के तहत चेतावनी देनी होगी।

राष्ट्र की अखंडता को ख़तरा

भारत एक ऐसा राष्ट्र है जिसे अपने स्वतंत्र के साथ ही जितनी समस्याओं सामना करना पड़ा उतना शायद बहुत कम देशों को करना पड़ा है। स्वतंत्रता के साथ ही विभाजन और सांप्रदायिक दंगो का दंश। ये बाद में भी समय-समय पर उभरते रहे। कभी भाषा के नाम पर उत्तर-दक्षिण का संघर्ष, तो कभी अपने क्षेत्र पर अन्य राज्य के लोगों के विरुद्ध विरोध, जिसे कभी-कभी ‘धरतीपुत्र आंदोलन’ कहा जाता है, ‘महाराष्ट्र मराठियों के लिए’, ‘असम असमियों के लिए’ जैसे नारे इसे अभिव्यक्ति करते हैं। आरक्षण के प्रावधान ने सवर्ण-अवर्णों का विवाद पैदा किया। देश में ऐसी गंभीर स्थिति तब है जबकि अधिकांश पड़ोसी देशों में आंतरिक अस्थिरता और अशांति है और भारत से उनके संबंध बहुत अच्छे नहीं हैं।

लेकिन ऐसी हर समस्या का समाधान न्यायपालिका संविधान के अंदर से निकाल लेती है। यह रेखांकित करता है कि संविधान में इतना लचीलापन है, इतना सामर्थ्य है कि ऐतिहासिक और समसामयिक समस्याओं का हल इसके प्रावधानों के तहत निकाला जा सकता है। भारत जैसा बहुलवादी देश एक संविधान से शासित हो रहा है। प्रत्येक विचार या समुदाय के लोग समस्या उत्पन्न होने पर संविधान और न्यायपालिका की ही दुहाई देते हैं। यह इसके सफलता और जीवंत होने का सबसे प्रत्यक्ष प्रमाण है।

कमजोर वर्गों के रक्षक की भूमिका

संविधान जहाँ एक तरफ अनेक विरोधी पक्षों में संतुलन रख कर राष्ट्र की एकता और अखंडता को अक्षुण्ण बनाए रखने में सफल रहा है, वहीं दूसरी तरफ यह कमजोर और वंचित वर्गों के लिए एक सहारा भी बना है। संविधान ने एक आम नागरिक को, एक आम व्यक्ति को, कुछ मौलिक अधिकार दिया है, जिसे उससे राज्य भी नहीं छीन सकता है। यहाँ तक कि सर्वोच्च न्यायालय, जहाँ संघ-राज्यों के बीच मुक़दमे को छोड़ कर अन्य कोई मुक़दमा सीधे नहीं किया जा सकता है, वहां एक साधारण व्यक्ति सीधे पहुँच सकता है, अगर उसके मौलिक अधिकारों का हनन हो। सर्वोच्च न्यायालय अनुच्छेद 32 के तहत और उच्च न्यायालय अनुच्छेद 226 के तहत रिट आदेश द्वारा उसे अनुतोष दे सकता है। जनहित याचिका ने उच्च और सर्वोच्च न्यायालय के रिट न्यायाधिकार (jurisdiction) को एक नया आयाम दिया है। वास्तव में संविधान भारतीय गणतंत्र के अभिभावक की भूमिका सफलता से निभा रहा है।

लेखिका बबीता झा, एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट

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