वयोवृद्ध लेखक सलमान रुश्दी के चाहने वालों को भले ही हताशा हुई हो, लेकिन नॉर्वेजियन लेखक जॉन फॉसे (1959) को साहित्य में 2023 का नोबेल पुरस्कार दिया जाना स्वागत योग्य और प्रशंसनीय है। बताया जा रहा है कि फॉसे गद्य और नाटक दोनों में माहिर हैं, और उनके काम की विशेषता इसकी काव्यात्मक भाषा, मानवीय स्थिति की गहन खोज और इसकी अनूठी और नवीन शैली है। ज़्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि उनके पास मानवीय भावनाओं की बारीकियों और रोजमर्रा की भाषा की सुंदरता को पकड़ने का हुनर है।
उनके नाटक और उपन्यास अक्सर छोटे नॉर्वेजियन कस्बों और गाँवों पर आधारित हैं, लेकिन वे प्रेम, करुणा, दुःख और जीवन में अर्थ की खोज जैसे सार्वभौमिक विषयों पर आधारित हैं। हो सकता है कि उनके लेखन की विश्व स्तर पर इस स्वीकृति से साहित्य में गाँवों और लोक जीवन के मूल्यों की वापसी को बल मिले। आखिर ये ही तो वे चीज़ें हैं जो कृत्रिम बुद्धिमत्ता के युग में आदमी को रोबोट बनने से बचाएँगी। शायद आने वाले वक़्तों में मनुष्यता को फॉसे जैसे लेखकों की और ज़्यादा ज़रूरत पड़े जिनका ध्यान समकालीन मानव जीवन के बेतुकेपन को उजागर करने पर हो।
सयाने बता रहे हैं कि फॉसे के काम का कई भाषाओं में अनुवाद किया गया और उनके नाटक दुनिया भर में खेले गए हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि हिंदी और भारतीय भाषाओं में भी ऐसे विश्व साहित्य के अनुवादों पर ध्यान दिया जाएगा। क्योंकि अभी इस लिहाज से हम काफी पीछे हैं। इस ओर ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है कि दुनिया को आपस में जोड़े रखने के लिए साहित्यिक अनुवादों की बड़ी भूमिका है। युद्धोन्माद में ग्रस्त दुनिया को साहित्य ही यह समझा सकता है कि संवेदना के स्तर पर सारी मानव जाति मूलतः एक है।
जॉन फॉसे अपनी पीढ़ी के सबसे प्रसिद्ध नॉर्वेजियन लेखकों में शामिल हैं, और उनके काम का समकालीन साहित्य पर गहरा प्रभाव पड़ा है। साहित्य में 2023 के नोबेल पुरस्कार के प्रशस्ति पत्र में, स्वीडिश अकादमी ने उनके अभिनव नाटकों और गद्य लेखन की प्रशंसा करते हुए खास तौर से यह लक्षित किया है कि वे अकथनीय को कहने या अनकही को आवाज देने वाले रचनाकार हैं। यानी उनकी महानता का आधार है अक्सर मानव मन की छिपी गहराई और उन अनकही भावनाओं का पता देना जिन्हें हम सभी अपने भीतर छिपाए रखते हैं। सयानों की मानें तो फॉसे का लेखन गहरे और ग़ैर-पारंपरिक अर्थों में आध्यात्मिक भी है। वे न तो उपदेश देते हैं और न उनके पास ज़िंदगी की नुश्किलों के लिए आसान जवाब हैं। इसके उलट वे हमें जीवन के बड़े सवालों पर विचार करने और दुनिया में अपना अर्थ खोजने के लिए आमंत्रित करते हैं।
यह जानना रोचक है कि अपने नाटक ”एंड नेवर शैल वी पार्ट’ (1994) में फॉसे ने एक ऐसे युवा दंपति की कथा प्रस्तुत की है जो अपने बच्चे की मौत की वेदना को झेल पाने के लिए संघर्ष कर रहा है। यह नाटक मृत्यु और दुःख के बरक्स प्रेम की शक्ति का एक मार्मिक आख्यान है। इसी तरह एक अन्य नाटक ‘समवन इज़ गोइंग टू कम’ (1994) में उन्होंने एक सुदूर नॉर्वेजियन गाँव के लोगों की कथा लिखी है जिन्हें किसी के आने का इंतजार है।
यह नाटक समय की प्रकृति, प्रतीक्षा और जीवन में अर्थ की खोज को शिद्दत से उभारता है। जबकि अपने नाटक ‘विंटर’ (2000) में लेखक ने एक सेनेटोरियम को कथाभूमि बनाया है जहाँ रोगियों का समूह बीमारी, अकेलेपन और मृत्यु के भय से जूझ रहा है। अपने 1983 में प्रकाशित पहले उपन्यास ‘रेड एंड ब्लैक’ से लेकर 2004-5 में 2 खंडों में आए उपन्यास ‘सेप्टोलॉजी’ तक में भी वे लगातार प्रियजन की मृत्यु की पीड़ा से जूझने वालों की ऐसी कहानी कहते दिखाई देते है, जिसे प्रायः वर्जित कहकर अनकहा छोड़ दिया जाता है।
कहना न होगा कि जॉन फॉसे ने अपने साहित्य में अनकही मानवीय वेदना और करुणा को मार्मिक अभिव्यक्ति प्रदान की है। शायद यही वह चीज़ है जो उन्हें नोबेल पुरस्कार का सही हकदार साबित करती है।
[गौरतलब है कि पुरस्कारों में 11 मिलियन स्वीडिश क्रोनर यानी एक मिलियन अमेरिकी डॉलर या दस लाख डॉलर का नकद पुरस्कार दिया जाता है। धनराशि अवॉर्ड के संस्थापक और स्वीडिश आविष्कारक अल्फ्रेड नोबेल की छोड़ी हुई वसीयत से आती है। 1896 में उनका निधन हो गया था।]
प्रो. ऋषभदेव शर्मा