हैदराबाद (सरिता सुराणा की रिपोर्ट): सूत्रधार साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था भारत (हैदराबाद) द्वारा गत दिनों मातृभाषा उत्सव का भव्य आयोजन किया गया। संस्था की 22वीं मासिक गोष्ठी दो सत्रों में आयोजित की गई। संस्थापिका सरिता सुराणा ने सभी अतिथियों और सहभागियों का हार्दिक स्वागत एवं अभिनन्दन किया और संस्था की साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों के बारे में संक्षिप्त जानकारी प्रदान की। अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कवयित्री श्रीमती ज्योति नारायण ने इस गोष्ठी की अध्यक्षता की। उनके द्वारा प्रस्तुत स्वरचित सरस्वती वन्दना से कार्यक्रम का शुभारम्भ हुआ।
प्रथम सत्र
प्रथम सत्र में मातृभाषा के महत्व और प्रचार-प्रसार पर परिचर्चा का आयोजन किया गया। इस सत्र में मुख्य वक्ता डॉ सुमन लता जी ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि मनुष्य चाहे कहीं पर चला जाए, वह अपनी भाषा और खानपान साथ लेकर जाता है। इन दोनों का सम्बन्ध संस्कृति से जुड़ा है। उन्होंने ‘हिन्दी और मातृभाषाओं के विकास में प्रसार माध्यमों के योगदान’ पर बहुत ही सार्थक और सारगर्भित वक्तव्य प्रस्तुत किया।
श्रीमती हर्षलता दुधोड़िया ने ‘मातृभाषा के विकास में मारवाड़ी लोकगीतों के योगदान’ पर अपना प्रपत्र प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि मारवाड़ी लोकगीतों में हृदय का सामूहिक स्पन्दन सुनाई देता है। उन्होंने बहुत से लोकगीतों के उदाहरण के माध्यम से अपनी बात रखी। श्रीमती भावना पुरोहित ने कहा कि मातृभाषा का ज्ञान नहीं होने से हमें कभी-कभी बहुत नुकसान होता है। उन्होंने दो उदाहरणों के माध्यम से अपनी बात रखी।
डॉ सुपर्णा मुखर्जी ने अपने वक्तव्य में कहा कि जैसे मां के गर्भनाल से बच्चे का सम्बन्ध जुड़ा होता है, वैसे ही भाषा का सम्बन्ध हम सबसे जुड़ा होता है। मातृभाषाओं का जीवित रहना बहुत आवश्यक है। हमें अपने बच्चों को अपनी मातृभाषा बोलने के अलावा उसकी लिपि भी सिखानी चाहिए। जिससे वे उस भाषा के साहित्य को पढ़-लिख सकें।
श्रीमती सुनीता लुल्ला ने कहा कि उन्होंने 60 वर्ष की उम्र में सिन्धी भाषा लिखना और पढ़ना सीखा। सीखने की कोई उम्र नहीं होती। प्रदीप देवीशरण भट्ट ने कहा कि चाहे कितनी ही भाषाओं का लोप हो जाए लेकिन आगामी वर्षों में हिन्दी भाषा लिंग्वा-फ्रैंका भाषा होगी।
सरिता सुराणा ने कहा कि मातृभाषा उत्सव मनाने का संकल्प सबसे पहले बांग्लादेश ने लिया। यूनेस्को ने नवम्बर 1999 में 21 फरवरी को मातृभाषा दिवस के रूप में मनाने का संकल्प लिया। हमारे देश में करीब 19500 बोलियां बोली जाती हैं, जिनमें से लगभग 2900 बोलियां विलुप्ति के कगार पर हैं। हमें अपनी मातृभाषाओं के संरक्षण और संवर्धन हेतु निरन्तर प्रयास करने होंगे, तभी उनका अस्तित्व बना रह सकता है।
अध्यक्षीय टिप्पणी करते हुए श्रीमती ज्योति नारायण ने कहा कि अगली पीढ़ी के बच्चों को मातृभाषा बोलना, लिखना और पढ़ना तीनों सिखाना बहुत आवश्यक है। अन्यथा हमारी पीढ़ी के साथ ही ये भाषाएं भी विलुप्त हो जाएंगी। उन्होंने सभी वक्ताओं के वक्तव्य की प्रशंसा की और कहा कि धीरे-धीरे लोगों में अपनी मातृभाषा के प्रति जागरुकता बढ़ रही है और यह एक शुभ संकेत है।
द्वितीय सत्र
द्वितीय सत्र में मातृभाषा उत्सव काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया। जिसमें कोलकाता से श्रीमती सुशीला चनानी ने मारवाड़ी गीत प्रस्तुत किए तो कटक, उड़ीसा से श्रीमती रिमझिम झा ने मैथिली भाषा में मनोरम गीत प्रस्तुत किया। सिलीगुड़ी, पश्चिम बंगाल से श्रीमती भारती बिहानी ने मारवाड़ी कविता प्रस्तुत करके वातावरण को आनन्ददायक बना दिया तो श्री दर्शन सिंह ने पंजाबी भाषा में अपनी रचना से सभी को भावविभोर कर दिया। इनके साथ श्रीमती भावना पुरोहित, श्रीमती आर्या झा, श्रीमती सुनीता लुल्ला, श्री प्रदीप देवीशरण भट्ट, श्री संतोष रजा गाजीपुरी, डॉ.संगीता जी.शर्मा ने हिन्दी भाषा में और श्रीमती सरिता सुराणा ने मारवाड़ी भाषा में अपनी-अपनी रचनाएं प्रस्तुत की।
धन्यवाद ज्ञापन
अध्यक्षीय काव्य पाठ प्रस्तुत करते हुए श्रीमती ज्योति नारायण ने मैथिली भाषा में शिव-पार्वती के विवाह से सम्बन्धित बहुत ही सुन्दर और भावपूर्ण गीत प्रस्तुत करके वातावरण को भक्तिमय बना दिया। सिलीगुड़ी से श्रीमती बबीता अग्रवाल कंवल और हैदराबाद से श्री सुहास भटनागर भी गोष्ठी में उपस्थित थे। सभी सहभागियों ने सफल और सार्थक गोष्ठी की मुक्त कंठ से प्रशंसा की। श्रीमती सुनीता लुल्ला के धन्यवाद ज्ञापन के साथ गोष्ठी सम्पन्न हुई।