हैदराबाद/नई दिल्ली : केंद्रीय हिंदी संस्थान, अंतरराष्ट्रीय सहयोग परिषद तथा विश्व हिंदी सचिवालय के तत्वावधान में वैश्विक हिंदी परिवार की ओर से भाषा विमर्श की श्रृंखला में ‘लेखक- प्रकाशक संबंध’ विषय पर आभासी संगोष्ठी आयोजित की गई। संगोष्ठी को संबोधित करते हुए मुख्य अतिथि, वरिष्ठ लेखिका ममता कालिया ने कहा कि परस्पर सहयोग और समन्वय के साथ लेखकों और प्रकाशकों के बीच संबंधों की जटिलता को दूर कर इसे सहज और सरल बनाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि प्रकाशन के संसार में लेखक और प्रकाशक के बीच सुखम-दुखम का रिश्ता है। यह नाता पति-पत्नी के सप्तपदी सूत्र के तरह है जिसे निभाया जाना ही श्रेयस्कर माना जाता है।
लेखक अक्सर गरीब होता
दुनिया के लगभग 25 देशों से जुड़े हिंदी सेवियों की इस संगोष्ठी का संचालन दिल्ली विश्वविद्यालय के असिस्टेंट प्रोफेसर विजय कुमार मिश्रा ने तथा अतिथियों का स्वागत परिचय केंद्रीय हिंदी संस्थान भुवनेश्वर केंद्र के क्षेत्रीय निदेशक रंजन दास ने किया। बीज वक्तव्य प्रोफेसर राजेश कुमार ने प्रस्तुत किया। उन्होंने अपने छोटे व्यंग के जरिए विषय की जटिलता को दिशा दी। उन्होंने सुनाया, “एक कवि ने घर से पैसा लगाकर अपनी किताब छपवाई”। बाद में किसी ने कवि से पूछा, “कुछ बिका”। कवि ने उत्तर दिया, “घर के सारे बर्तन भांडे”। विषय को विस्तार देते हुए मुख्य अतिथि ने कहा कि लेखक अक्सर गरीब होता है। नए लेखक को हमेशा एक प्रकाशक की तलाश रहती है। ऐसे में किसी गरीब लेखक को प्रकाशक भी यदि गरीब मिल जाए तो स्थिति निश्चित रूप से चिंताजनक हो जाती है। आजकल कहने के लिए लेखकों और प्रकाशकों के बीच लिखित अनुबंध होने लगे हैं लेकिन इस अनुबंध में लेखको के पास केवल कॉपीराइट ही रह जाता है। कई बार प्रकाश को द्वारा कई तरह की अनदेखी की बात भी सामने आती है।
लेखकों और प्रकाशकों के बीच रॉयल्टी
सुश्री कालिया ने कहा कि लेखकों और प्रकाशकों के बीच रॉयल्टी का मामला कोई नया नहीं है, पूर्व में महावीर प्रसाद द्विवेदी, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला आदि से जुड़े मामले भी उदाहरण के रूप में हमारे पास मौजूद हैं। मोटे तौर पर लेखक विचार समृद्ध होता है पर हमेशा धनाभाव में रहता है। कई बार तो प्रकाशक रॉयल्टी की राशि इतना कम भेजते हैं कि उससे अधिक पैसा लेखक का बैंक आने जाने में किराया में खर्च हो जाता है। प्रकाशको की अपनी समस्याएं हैं। पुस्तके प्रकाशको के लिए एक वस्तु है, उन्हें भी अपनी लागत निकालने के लिए बाजार के पास जाना है, इसलिए दोनों को समझदारी के साथ काम करना होगा।
लेखकों तथा प्रकाश को का एक संगठन
संगोष्ठी में विशिष्ट अतिथि के तौर पर अपनी बात रखते हुए वरिष्ठ पत्रकार तथा भाषा कर्मी राहुल देव ने लेखक और प्रकाशक के समीकरण की चर्चा की उन्होंने कहा कि लेखक समाज की अच्छाई, बुराई आदि की संवेदनाओं को शब्दों में व्यक्त करता है और प्रकाशक उसे विस्तार देते हुए समाज के बड़े कैनवास पर ले जाता है। लेकिन अक्सर दोनों के बीच चिंता और अविश्वास की लकीर स्पष्ट दिखती है उन्होंने खुद को अलेखक बताते हुए निर्मल वर्मा और हाल में विनोद कुमार शुक्ल से जुड़ी चिंताओं से जोड़ा तथा कहा कि इस तरह की परेशानियों का हल खोजने के लिए हमें लेखकों तथा प्रकाश को का एक संगठन कर तैयार करना चाहिए ताकि काम में पारदर्शिता लाई जा सके। प्रकाश को के यहां स्थापित लेखको और नए लेखको लेकर अलग-अलग मानदंड है। इसमें समाज के साथ-साथ बाजार भी शामिल है कई बार लेखक प्रकाशक के बीच हुई बातचीत के आंतरिक ब्यौरे सार्वजनिक नहीं हो पाते इसलिए भी दिक़कते आती है। श्री राहुल देव ने कहा कि संगठनात्मक पहल कर दोनों के संबंधों में समन्वय स्थापित किया जा सकता है।
प्रकाशको की परेशानियां
इस क्रम में द फेडरेशन आफ इंडियन पब्लिशर के कोषाध्यक्ष नवीन गुप्ता ने प्रकाशको की परेशानियों का जिक्र करते हुए कहा कि लेखक और प्रकाशक एक गाड़ी के दो पहिए की तरह है। उन्होंने कहा कि केवल प्रकाशको को कटघरे में खड़ा करने से बात नहीं बनेगी, आज सारी सरकारी खरीद बिल्कुल बंद हो चुकी है। हिंदी के सभी लेखक उतने उम्दा नहीं हैं कि ब्रांड की तरह उनकी किताबें बिक जाएंगी। लेखक की पुस्तकों में प्रकाशको की पूंजी लगी होती है, जब तक किताबें बिकेगी नहीं लेखको को पैसा मिलेगा कैसे? प्रकाशको के यहां डिस्काउंट की समस्या है, ऑनलाइन किताबों की बिक्री में अलग किस्म की परेशानियां हैं। श्री गुप्त ने कहा कि लेखकों और प्रकाशकों के बीच एक मॉडल अनुबंध पत्र अवश्य बनना चाहिए लेकिन किताबों की बिक्री के लिए लेखकों को भी प्रकाशकों के साथ मिलकर काम करना होगा। श्री गुप्त ने मांग की कि लेखकों और प्रकाशकों को सामूहिक रूप से सरकार से पुस्तकालयों की संख्या बढ़ाने तथा उनमें पुस्तकों की अधिकारिक खरीद हेतु प्रस्ताव प्रस्तुत करना चाहिए।
हिंदी साहित्यकारों के साथ विडंबना
संगोष्ठी को सानिध्य दे रहे केंद्रीय हिंदी शिक्षण मंडल के उपाध्यक्ष अनिल शर्मा जोशी ने वरिष्ठ साहित्यकार विनोद कुमार शुक्ल की ओर से हाल में उठाई गई रॉयल्टी की बात से खुद को संपृक्त करते हुए कहा कि अगर यह सही है तो निश्चित रूप से चौंकाने वाली बात है ।( मालूम हो कि विनोद कुमार शुक्ल ने मीडिया के माध्यम से बताया है कि वाणी प्रकाशन ने पिछले 25 वर्ष में उन्हें उनकी किताबों कुल 1 लाख 35 हज़ार तथा राजकमल प्रकाशन ने उनकी 6 पुस्तकों के लिए सालाना मात्र (14000 की रॉयल्टी राशि दी है)। श्री जोशी ने कहा कि हमारे हिंदी साहित्यकारों के साथ इस तरह की विडंबना पुराने समय से चली आ रही है। उन्होंने बताया कि सन 1942-43 के दौरान निराला जी लोकप्रिय हो चुके थे, जब कलकत्ते में उनके स्मृति चिन्ह बिक रहे थे तब खुद निराला जी अपने मानदेय के लिए लखनऊ के प्रकाशकों के यहां बैठे थे।
पुस्तक प्रकाशन का काम
श्री जोशी ने कहा कि भारत में पुस्तक प्रकाशन का काम बड़े पैमाने पर हो रहा है लेकिन इसका बड़ा हिस्सा अंग्रेजी को चला जा रहा है। हमारे यहां के प्रकाशको का फोकस भारतीय भाषाओं पर उतना नहीं है जितना होना चाहिए। आंकड़ों के जरिए श्री जोशी ने बताया कि प्रतिवर्ष 25000 करोड रुपए का कारोबार अंग्रेजी की पुस्तकों से होता है जो कि कुल कारोबार का 55 फीसदी से अधिक बैठता है। उन्होंने कहा कि हिंदी में लिखो का अभाव नहीं है हिंदी में स्तरीय लेखन किया जा रहा है पर लेखकों को प्रकाश को द्वारा अब तक यह विश्वास नहीं दिया गया कि लेखक अपना जीवन यापन लेखन के जरिए भी कर सकता है। उन्होंने कहा कि केंद्र की सरकार आज जरूरतमंद लोगों के लिए कई एक उपयोगी योजनाएं चला रही है। ऐसे में प्रकाश को को लेखकों को साथ लेकर इस दिशा में पहल करनी चाहिए श्री जोशी का मानना है कि अगर जीवन यापन की सुविधा मिले तो हिंदी में तमाम लोग पूर्णकालिक लेखक बनने के लिए तैयार हैं। उन्होंने कहा कि रचनाकारों के सरोकारों को समझते हुए प्रकाशको को इस दिशा में आगे बढ़ना चाहिए।
प्रकाशन की दुनिया
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे राष्ट्रीय पुस्तक न्यास के अध्यक्ष गोविंद प्रसाद शर्मा ने कहा कि अर्थ का अपना अलग आकर्षण होता ही है किंतु आज की इस लेखक प्रकाशक संबंध की चर्चा को केवल रॉयल्टी तक सीमित ना करते हुए इसे पुस्तक संस्कृति के विस्तार की ओर भी बढ़ना चाहिए। पुस्तक लेखन और उसके प्रकाशन की भूमिका और योगदान का फलक बहुत बड़ा होता है। आजादी की लड़ाई के दौरान लेखकों ने रॉयल्टी के लिए नहीं लिखा और कई प्रकाशको को तो पुस्तक छापने के जुर्म में जेल भी जाना पड़ा था। आज का समय समाज के बीच खड़े बाजार का भी है। हमें गर्व है कि हम प्रकाशन की दुनिया में सातवें नंबर के प्रकाशक हैं। हमें आगे बढ़ने के लिए उम्दा काम करना होगा तथा पिछले दरवाजे से लेखन में घुस रहे चौर्य कर्म के अभिशाप से भी बचना होगा। भारत में प्रतिवर्ष लगभग एक लाख पुस्तके छपती हैं। पुस्तकों का अपना अलग संसार होता है और उसकी अलग भावभूमि भी होती है। श्री शर्मा ने कहा कि अगर देश में पुस्तक संस्कृति के विकास को गति दी जाए तो छोटी मोटी अड़चनें समय के साथ दूर हो जाएंगी।
धन्यवाद ज्ञापन
कार्यक्रम में प्रतिभागियों की ओर से प्रकाशक संजीव ने भारी डिस्काउंट तथा लेखकों के असंवेदनशीलता का मामला उठाया वही अनूप भार्गव ने व्यापक प्रचार प्रसार के जरिए पुस्तकों की अधिक बिक्री के लिए सुझाव दिया। अंत में सिंगापुर से जुड़ी सुश्री संध्या सिंह ने सभी अतिथियों और प्रतिभागियों का धन्यवाद ज्ञापन किया।