हैदराबाद : कादम्बिनी क्लब हैदराबाद की 355वीं गोष्ठी रविवार को अपने पारंपरिक गरिमा और साहित्य के लिए एक नई सोच- ‘हिंदी साहित्य में दक्षिण के साहित्यकारों के योगदान’ विषय के चौथे अध्याय के रूप में ‘कन्नड भाषी साहित्यकारों का हिंदी साहित्य में योगदान’ के रूप में संगोष्ठी के साथ प्रथम सत्र का शुभारंभ किया गया। डॉ अहिल्या मिश्र (संस्थापक अध्यक्ष, कादम्बिनी क्लब) एवं मीना मुथा (कार्यकारी संयोजिका) ने प्रेस विज्ञप्ति में कहा कि इस अवसर पर कन्नड भाषा के प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ मैथिली राव मुख्य वक्ता और डॉ प्रभाशंकर प्रेमी विशिष्ट वक्ता एवं सत्र अध्यक्ष के रूप में आभासी मंच पर उपस्थित हुए।
मुख्य वक्ता के रूप में डॉ मैथिली राव ने ‘कर्नाटक के हिन्दी कहानीकार’ विषय को व्याख्यायित करते हुए कहा कि दक्षिण भारत में हिन्दी के प्रचार प्रसार में साहित्यकारों ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है परंतु उन्हें उतना श्रेय नहीं मिला जीतने के वे हकदार थे। इस कार्य हेतु उन्हें अपने राज्य में भी उपेक्षा का सामना करना पड़ा परंतु द्वंद्वों और कठिनाइयों से गुजरते हुए भी हिन्दी ने आज दक्षिण में अपना स्थान बना लिया है। डॉ राव ने कन्नड के कथाकारों पर परिचयात्मक दृष्टि डालते हुए जुबेदा हासिमुल्ला, मालती प्रकाश, डॉ सुरेश मुले, डॉ कविता चंद्रगुडे, डॉ गोखले पंचशीला, डॉ परिमला अंबेकर आदि कहानीकारों की कहानियों की विशेषता बतलाते हुए सारगर्भित प्रपत्र प्रस्तुत कीं।
डॉ प्रभाशंकर प्रेमी ने सत्र की अध्यक्षता करते हुए ‘कन्नड भाषी हिन्दी साहित्यकारों का अनुवाद के क्षेत्र में योगदान’ विषय पर अपनी बात रखी और कहा कि मौलिक साहित्य रचने का कार्य कर्नाटक में हुआ। कन्नड का पहला युग जैन युग और दसवां युग 12 वीं शताब्दी के आस पास माना जाता है। अनुवाद न सिर्फ आदान प्रदान का एक अहम माध्यम है बल्कि एकता कायम रखने में भी सहायक है। हिन्दी के विकास हेतु सारे भारतीय भाषा को एक सूत्र में बांधना आवश्यक है और मातृभाषा पर बल देने पर ही भारतीय भाषा का विकास संभव है। उन्होंने अनुवाद एवं मौलिक रचनाओं के द्वारा हिन्दी साहित्य में योगदान को रेखांकित करते हुए नागरप्पा के संबंध में भी बताया और कहा कि यह एक ऐसा विषय है कि घंटे दो घंटे में खत्म नहीं की जा सकती।
डॉ उषा रानी राव (बंगलुरु) ने भारतेन्दु की पंक्तियों के साथ विषय प्रवेश किया और भाषा की महत्ता को स्पष्ट करते हुए भाषा के संवर्द्धन हेतु एक जुट होने की बात की। उन्होंने कहा कि जब दक्षिण में हिन्दी की बात होती है तो मात्र एक राज्य नहीं बल्कि पांचों राज्य मुट्ठी बंद कर खड़े नजर आते हैं। उन्होंने गांधी युग से लेकर वर्तमान समय में दक्षिण भारत में हिन्दी की दशा दिशा की चर्चा की। श्रीमती शुभ्रा महंतों के द्वारा सुमधुर निराला रचित सरस्वती वंदना से कार्यक्रम का आरंभ हुआ। संचालक प्रवीण प्रणव ने सभा को संबोधित करते हुए कार्यक्रम में सभी उपस्थित सदस्यों को आमंत्रित किया।
संस्थापक अध्यक्ष डॉ अहिल्या मिश्र ने सभी का स्वागत करते हुए मुख्य एवं विशिष्ट वक्ता का परिचय पटल पर रखा एवं हिंदी साहित्य में दक्षिण के साहित्यकारों के योगदान की बात करते हुए कहा कि दक्षिण के साहित्यकार कई क्षेत्रों में उत्तर से आगे है। हमें स्वयं को कमतर नहीं आंकना चाहिए। संगोष्ठी संयोजक अवधेश कुमार सिन्हा ने कहा कि यह क्लब में दक्षिण के साहित्यकारों का हिन्दी साहित्य में योगदान विषय पर आज चौथी चर्चा हो रही है। किसी भी कृति का अनुवाद अति आवश्यक है। क्योंकि इसके माध्यम से हम क्षेत्र विशेष की संस्कृति को भी समझ पाते हैं। हमारा सौभाग्य है कि कादंबिनी क्लब हैदराबाद से कई अनुवादक जुड़े हुए हैं।
गोष्ठी का दूसरा सत्र अवधेश कुमार सिन्हा (दिल्ली) की अध्यक्षता में प्रारंभ हुआ जिसमें मुख्य अतिथि के रूप में डॉ उषा रानी राव (बंगलुरु) ने मंच संभाला। भावना पुरोहित, अवधेश कुमार सिन्हा, विनोद गिरी अनोखा, किरण सिंह, दर्शन सिंह, डॉ उषा रानी राव, ज्योति नारायण, सुनीता लुला, आशीष नैथानी, जुबेदा मुल्ला (कर्नाटक), राजरानी शुक्ला, गोखले पंचशीला (कर्नाटक), शशि राय (नई दिल्ली) आदि ने काव्य की विभिन्न विधाओं में कविता सुनाई। सरिता सुराणा, डॉ प्रभु उपासे (कर्नाटक), सुरेश मुले (कर्नाटक), डॉ मलतेश मिल्लर (कर्नाटक) एवं अन्य कई लोगों ने श्रोता के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई। श्रीमती ज्योति नारायण के आत्मीय आभार प्रदर्शन के साथ संगोष्ठी एवं काव्यगोष्ठी का समापन हुआ।
ग़ौरतलब है कि कोरोना के दुष्प्रभाव से साहित्यकारों को सुरक्षित मंच उपलब्ध कराने के प्रयास में क्लब अपने सदयों एवं अतिथियों के साथ आभासी रूप से निरंतर प्रति माह अपने कार्यक्रम का आयोजन ऑनलाइन वेबीनार के माध्यम से करता आ रहा है।