नवरात्र पर्व का निहितार्थ: एक विश्लेषण

नवरात्र दो शब्दों से मिलकर बना है, नव + रात्रि = नवरात्र। लौकिक जीवन और वैज्ञानिक दृष्टि में भी रात्रि का अर्थ समझा जाता है “काल खण्ड”, काल का एक अवयव, किंतु “सनातन” चिंतन धारा में रात्रि का अर्थ “दैवीय शक्ति” है, देवी है। वह कोई काल खण्ड या काल नहीं, कालातीत और काल की शासिका है। काल की अधिष्ठात्री शक्ति है, इसीलिए दैवीय है, देवी है, उपास्य है। इस देवी के आख्यान वैदिक भी है, पौराणिक भी; आध्यात्मिक भी हैं और लौकिक भी, नागर भी हैं, देशज भी, श्लाघ्य, स्तुत्य हैं तो कहीं कहीं विकृत, हिंसक और विभत्स भी। ऋग्वेद के सुप्रसिद्ध “नासदीय सूक्तम” से लेकर “वेदोक्त रात्रि सूक्तम”, अथर्ववेद के “श्रीदेव्यथशीर्षम”, तांत्रोक्त रात्रिसूक्तम” और विभिन्न मंत्रों, तंत्रों और यंत्रों में इसकी अभिव्यक्ति सर्वत्र दृष्टव्य है। बहुयामी लोकविख्यात इसी “रात्रि” शब्द में जब नव शब्द उपसर्ग बनकर जुड़ जाता है तब “नवरात्र” बनता है।

रात्रि से नवरात्र के बीच जो घटित होता है, वह है परिवर्तन। रात्रि देवी का “उषा देवी” और उषा देवी से दिन दिनमान में परिवर्तन। परिवर्तन प्रकृति में भी सर्वत्र दिखने लगता है, अब प्रकृति भी प्रषुप्त से जाग्रत हो उठती है, चिड़ियां चहचहाने लगती हैं, पुष्प खिल उठते हैं, जनजीवन भी गतिशील हो उठता है। रात्रि साधना के समय की गई प्रार्थना “तमसो मा ज्योतिर्गमय” की ही नवरात्र के रूप मे अभिव्यक्ति है, प्रस्फुटन है; और विभिन्न त्यौहारों के रूप में प्रकटन भी _

प्रकृतिस्व च सर्वस्व गुणत्रय विभवानी।
कालरात्रि महारात्रि मोहरात्रि दारुणा।।
(तंत्रोक्त रात्रिसूक्त 7)।

यहां कालरात्रि का अर्थ दीपावली, महारात्रि का अर्थ शिवरात्रि या अहोरात्रि, मोहरात्रि का अर्थ जन्माष्टमी और दारुणरात्रि का अर्थ है होली। इसके अतिरिक्त वर्ष में चार – चार नवरात्र, दो प्रकट (शारदीय, चैत्र) और दो गुप्त (आषाढ़, माघी)। इस प्रकार “रात्रि” और “नवरात्रि” का बहुत महत्व है और ये हमारे जनजीवन में बहुत गहराई तक रचे बसे हैं। साथ ही ये हमारे जीवन को परिचालित, परिवर्धित, परिवर्तित करते रहते हैं। इन परिवर्तनों को हम निम्न लिखित शीर्षकों में वर्णित कर सकते हैं।

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(क) भौतिक परिवर्तन या वाह्य परिवर्तन:

जलवायु परिवर्तन, ऋतु परिवर्तन, मौसम परिवर्तन। प्रत्येक नवरात्रि के बार ऋतु, मौसम और जलवायु बदल जाता है। चित्र नवरात्र के बार ग्रीष्म ऋतु और शारदीय नवरात्र के बाद जाड़े की शुरुआत।

(ख) आभ्यांतर या मानसिक परिवर्तन:

हमारी मानसिक चेतना में भी ये परिवर्तन गहरा प्रभाव डालते हैं और पूरा का पूरा व्यक्तित्व ही परिवर्तित हो जाता है। मन मे आभ्यंतर परिवर्तन, अनुभूतियां होने लगती हैं हर्ष, उल्लास, प्रसन्नता, गीत संगीत की एकल/सामूहिक अभिव्यक्ति होती है। जनजीवन पुष्प वाटिका की भांति चहक उठता है। सुरभित होकर सुगंधी बिखेरता है।

मां के रूप में विभिन्न रूपों की आराधना में साधक इतना तल्लीन हो उठता है कि प्रत्येक नारी में उसे मां का आभास उठता है और काम, भोग की विकृति वासना से बच जाता है। विज्ञान की दृष्टि से देखें तो शक्ति या ऊर्जा तरंग रूप में गतिशील होती है। इस तरंग में साधक को “m” है तो विकृत मानस को “w”। एम की दृष्टि mother मातृत्व भाव को सृजित करती है। मातृ भाव में मन की मलीनता, कामुकता का कोई स्थान नहीं होता, वहां आदर, समर्पण और सेवा भाव होता है। डब्लू दृष्टि wife/woman काम, भोग भाव को उत्पन्न करती है। यही दृष्टि समाज में यौन उत्पीडन और बलात्कार जैसी घिनौने अपराध का मूल कारण हैं।

वहीं स्वस्थ गीत, संगीत, नृत्य, साहित्य और विभिन्न कलाएं इसी एम दृष्टि की देन है। महादेवी वर्मा की एक रचना दृष्टव्य _
“नींद थी मेरी अचल निष्पंद कण कण में
प्रथम जागृति थी जगत के प्रथम स्पंदन में
प्रलय में मेरा पता पद चिह्न जीवन में….”।

(स) दैविक परिवर्तन या आध्यात्मिक परिवर्तन:

नवरात्र के पूजित ने दुर्गा के नौ प्रतीक दैविक या आध्यात्मिक प्रतीक के द्योतक हैं और यही विवेचन, इस लेख का प्रमुख प्रतिपद्य विषय भी है। यह मानव ही है जिसने उस दिव्य शक्ति को विभिन्न रूपों में स्वीकार किया, पूजित किया और जनजीवन से जोड़ा। देवी के नौ रूपों को लोकजीवन में जिसने प्रचारित किया वह है “श्रीदुर्गासप्तसती” जहां देवी कवच का वर्णन करते हुए ब्रह्मा जी ने मार्कण्डेय मुनि से देवी के गुप्त रूपों की स्पष्ट चर्चा की है-
अस्ति गुह्यतमं विप्र सर्व भूतोपकारकम।
देव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छ्रीणुष्व महामुने।।

प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी ।
तृतीयं चन्द्रघंटेति कूषमांडेति चतुर्थककं।।

पंचम स्कंदमातेति षष्ठम कात्यायनीति च।
सप्तम कालरात्रीति महागौरीति चाष्टकम।।

नवम सिद्धिदात्री च नवदुर्गा: प्रकीर्तिता:।
उक्तान्येतानि नामानि ब्राह्मणेव महात्मना।।

शक्ति के इन नौ रूपों का निहितार्थ शास्त्रों में दिव्य शक्ति के नौ रूपों में इसी दिव्य शक्ति की मानवीय व्याख्या है। मानव को, साधक को समझने और समझाने के लिए।

शैलपुत्री:

यह उद्भव शक्ति है, स्पंदन है पाषाण में, पर्वत में, सघनता में, चट्टान में एक बाला रूप में। यदि किसी के मन में संदेह हो कि जड़ पाषाण/शैल से चेतना की उत्पत्ति कैसे संभव है? इस शंका निराकरण के लिए वैदिक “श्रीदेव्यथर्वशीर्षम” संवाद का एक अंश प्रस्तुत करना चाहूंगा। सभी देवगण देवी के समीप गए और उनसे विनम्रता से पूछा “कासि त्वं महादेवीति”। देवी ने उत्तर दिया – मैं ब्रह्म स्वरूपिणी हूं, “अहम ब्रह्मस्वरूपिणी”। यह पुरुष प्रकृतिमय जगत मुझसे ही उत्पन्न हुआ है। मैं ही जड़ – चेतन, भाव – अभाव, दृश्य – अदृश्य, विज्ञान – अविज्ञान हूं। मैं ही पंच महाभूतों के रूप में चराचर जगत में विद्यमान हूं। “अहमखिलं जगत”। जड़ दिखने वाले शैल में भी दैवीय चितिशक्ति प्रषुप्त रूप में विद्यमान है। उसे मात्र जाग्रत ही होना है। पाषाण से चैतन्य बालिका रूप में प्राकट्य उसी चैतन्य का जागरण है। वैदिक शब्दावली में यही “अहम ब्रह्म स्वरूपिणी”, पौराणिक संदर्भ में “पार्वती” है।

विज्ञान की भाषा में इसे स्थिति ऊर्जा पोटेंशियल एनर्जी जैसा गुप्त कह सकते हैं, किंतु ध्यान रहे अवक्तावस्था में भी यह चेतन ही है अचेतन नहीं।

ब्रह्मचारिणी:

यह चेतन सत्ता की गति है, गतिशीलता है, विकास है, पौधे का, अंकुरण का, मंत्र शक्ति से, ऋत और सत सिद्धांत द्वारा। वैदिक शब्दावली में मंत्र, तंत्र, यंत्र है।

विज्ञान की भाषा में काईनेटिक एनर्जी कहा जा सकता है।

चंद्रघंटा:

यह शक्ति का निनाद है, प्रसरण है, गुंजन है, मंत्र है, गीत है, लय है, धुन है…। वैदिक शब्दावली में छंद है।

विज्ञान की भाषा में इसे साऊंड एनर्जी कहा जा सकता है।

कुष्मांडा:

बालिका अब किशोरी बन चुकी है, रजस्वला हो चुकी है, रस और रुधिर से भरा गोल प्रतीक ओवम है, अण्डा है, ब्रह्माण्ड बीज है। यहां रस है, सौंदर्य है, यौवन का आकर्षण है, परिपक्वता है, मातृत्व की पूर्व पीठीका है यह। वैदिक शब्दावली में यज्ञ कुंड, वेदी है।

विज्ञान की भाषा में इसे न्यूक्लियर एनर्जी कहा जा सकता है।

स्कंदमाता:

पूर्ण यौवन, आकर्षण है, योग है, प्रकृति, पुरुष का संयोग है, भ्रूण है, शिशु है, प्रसव है, बालक है मां के साथ। संपूर्ण नारीत्व है। वैदिक शब्दावली में यज्ञ है।

विज्ञान की भाषा में इसे मैग्नेटिक एनर्जी कहा जा सकता है।

कात्यायनी:

यहां तीव्र प्रकाश है, नारीत्व के प्रकाश, चकाचौंध है, संकुचन भी है। बिंदु है, लय की क्षमता से युक्त है।

विज्ञान की भाषा में इसे एटॉमिक एनर्जी कहा जा सकता है।

कालरात्रि:

अग्नि की लपटों की भांति बिखरे हुए केश है, यहां ताप है, अत्यंत प्रभावी झुलसा देने वाला तेज है। विकल्पन का विकार है, अग्नि, ताप की प्रबलता है।

विज्ञान की भाषण में इसे थर्मल एनर्जी कहा जा सकता है।

महागौरी:

सौंदर्यशालिनी, अप्रतिम सौंदर्य, तेजस्विता, प्रभा, प्रभुता, सभी संपादन से युक्त। जीवन को वैभवशाली बनाने की क्षमता युक्त…।

विज्ञान की भाषा में इसे इलेक्ट्रिकल एनर्जी कहा जा सकता है।

सिद्धिदात्री:

सभी सिद्धियों को प्रदान करने वाली, पुष्ट परिपुष्ट करनेवाली, संपूर्णता को प्राप्त करनेवाली। यह क्रमांक 9 पर हैं और 9 की संख्या ही पूर्ण है। यह कभी भी, किसी भी परिस्थिति मे अपना मूल्य नहीं परिवर्तित करती।

मां ही पूर्ण है, परिपूर्ण है। पूर्ण मां से पूर्ण संसति उत्पन्न होती है। पूर्ण (मां) से पूर्ण (संतति) घटाने पर भी पूर्ण (मां) ही स्वस्थ रूप में बची रहती है। कोई विकार नहीं उत्पन्न होता। वही पूर्णम अद: है, वही पूर्णम इदम है।

विज्ञान की भाषा में इसे केमिकल एनर्जी रसायनिक ऊर्जा कहा जा सकता है किंतु ध्यान रहे यह ऊर्जा जड़ नहीं चेतन ऊर्जा है। चिति शक्ति है।

संक्षिप्त में यही नवरात्र का एक विश्लेषण है जो सुधी विद्वानों से और गहन समीक्षा, विवेचन और विस्तार का आग्रह करता है, जिससे समय की मांग के अनुकूल युगासपेक्ष व्याख्या किया जा सके।

– डॉ जयप्रकाश तिवारी लखनऊ उत्तर प्रदेश संपर्क: 9453391020/9450802240

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