हिंदी भाषा भारत की आजादी की लड़ाई की सबसे महत्वपूर्ण साधन थी। यह भाषा भारत की उर्वर मिट्टी में उपजी भाषा है। इस भाषा में पूरे भारत को एकता के सूत्र में बाँधने की ताकत है। आजादी से पूर्व हमारे पूर्वजों ने इस भाषा की ताकत न केवल समझा, बल्कि उस ताकत का सही इस्तेमाल भी किया। पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक के सारी जनता ने इस भाषा में संवाद स्थापित किया और 1857 की अधूरी लड़ाई को पूरा किया। अंग्रेजों से अपनी बात मनवाई। उन्हें भारत छोड़ने के लिए मजबूर किया। भारत की आजादी की लड़ाई में हिंदी ने किस तरह से एक उपादान की भूमिका निभाई, आइए देखते हैं –
(1) तुम मुझे खून दो और मैं तुमसे आजादी का वादा करता हूं-
4 जुलाई 1944 को बर्मा में नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने जनता को आजादी की लड़ाई में शामिल होने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने विश्वास दिलाया कि लोगों के कठोर निर्णयों और एकजुटता के बल पर ही आजादी हासिल की जा सकती है। उसके लिए खून बहाने की जरूरत पड़े तो पीछे नहीं हटना चाहिए। उन्होंने कहा था कि एक लंबी लड़ाई हमारे सामने है। आज हमारे अंदर बस एक ही इच्छा होनी चाहिए- मरने की इच्छा, ताकि भारत जी सके। एक शहीद की मृत्यु की इच्छा, ताकि आजादी के रास्ते शहीदों के खून से प्रशस्त हो सके। उसी भाषण में नेताजी ने नारा लगाया था- ‘तुम मुझे खून दो और मैं तुमसे आजादी का वादा करता हूं।’ इस नारे ने न केवल जवानों बल्कि समाज के प्रत्येक आयु वर्ग के लोगों, महिलाओं और पुरुषों में एक नया जोश भर दिया था।
(2) करो या मरो-
महात्मा गांधी ने 8 अगस्त, 1942 को मुंबई के गोवालिया टैंक मैदान में दिए गए अपने भाषण में लोगों को आजादी की लड़ाई में शामिल होने का आह्वान देते हुए कहा था- करो या मरो। इस नारे ने भारत छोड़ो आंदोलन में बहुत बड़ी भूमिका निभाई थी। इस नारे का मतलब है कि या तो भारत को आज़ाद कराने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ दें या उस प्रयास में मर जाएं। इस नारे को अगस्त आंदोलन के नाम से भी जाना जाता है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 9 अगस्त, 1942 को औपचारिक रूप से इस नारे की शुरुआत की। इस नारे की ताकत को न केवल भारतवासियों ने बल्कि विदेशियों ने भी माना। वायसराय लिनलिथगो ने इस आंदोलन को “1857 के बाद से अब तक का सबसे गंभीर विद्रोह” बताया था। इस नारे के माध्यम से गांधी जी ने हिंदुस्तानियों के दिलों में आज़ादी की आग लगा दी थी।
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(3) इंकलाब जिंदाबाद–
भगत सिंह और उनके साथियों का प्रिय नारा था- इंकलाब जिंदाबाद। जिसका अर्थ है ‘क्रांति अमर रहे’। आजादी के दिवानों को इस नारे ने आजादी की लड़ाई में जान गंवाने के डर से उबारा। शहीद होने के जो आनंद है, उससे परिचित कराया। यह नारा केवल कोरा नारा नहीं था। यह एक हथियार था जो उस समय के जवानों को आजादी की लड़ाई में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता था। वैसे इस नारे के लेखक उर्दू शायर हसरत मोहानी हैं, लेकिन इसे प्रसिद्ध क्रांतिकारियों ने किया। इस नारे को भगत सिंह और उनके साथियों ने 1920 के दशक के अंत में लोकप्रिय बनाया था। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त का मानना था कि क्रांति के लिए केवल बम-पिस्तौल का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। भगत सिंह और उनके साथियों ने 8 अप्रैल, 1929 को दिल्ली की असेंबली में एक आवाज़ी बम फोड़ते हुए ‘इंकलाब जिंदाबाद’ लगाया था और अपने-आप को गिरफ्तार करवाकर देश सामने एक बड़ा आदर्श प्रस्तुत किया था कि देश की आजादी के लिए बलिदान देना ही पड़ेगा। इस नारे को बाद में भगत सिंह की पार्टी हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन ने अपना नारा बनाया।
(4) सरफ़रोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है / देखना है ज़ोर कितना, बाज़ु-ए-कातिल में है?-
इन पंक्तियों ने हज़ारों-लाखों लोगों के दिलों में भारत की आजादी के लिए लड़ने वालों के लिए सम्मान का भाव जगाया। ये पंक्तियाँ आत्मोत्सर्ग की भावना जगाने में सफल रही हैं। इन पंक्तियों को गाते-गाते क्रांतिकारी फाँसी पर खुशी-खुशी लटक जाते थे। इस गज़ल के शायर थे अज़ीमाबाद के बिस्मिल अज़ीमाबादी। चूंकि रामप्रसाद बिस्मिल ने उनका शेर फांसी के फंदे पर झूलने के समय कहा था, तो ये पंक्तियाँ और भी मशहूर हो गईं। और, इसीलिए भी बहुत से लोग इसे राम प्रसाद बिस्मिल की रचना मानते हैं। फिर भी रचनाकार चाहे जो हो, ये पंक्तियाँ जनता के लिए थीं, जनता की हो गईं। भारत की आजादी की एक महत्वपूर्ण अमूर्त सिपाही। कदापि बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय द्वारा रचित वन्दे मातरम जैसे सुप्रसिद्ध गीत के बाद बिस्मिल अज़ीमाबादी की यह अमर रचना, जिसे गाते हुए न जाने कितने ही देशभक्त फाँसी के तख़्ते पर झूल गए।
(5) वंदे मातरम् –
बंगाल के महान साहित्यकार श्री बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय के प्रसिद्ध उपन्यास ‘आनंदमठ’ में वंदे मातरम् का समावेश किया गया था। लेकिन इस गीत का जन्म ‘आनंदमठ’ उपन्यास लिखने के पहले ही हो चुका था। वैसे इस गीत की रचना बंगाल के कांतल पाडा नाम के गांव में 7 नवंबर 1876 को की गई थी। लेकिन इसे पहली बार 1896 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में गाया गया था। अर्थात भारत को आजादी मिलने से करीब 51 साल अपने देश को मातृभूमि मानने की भावना को प्रज्वलित करने वाले कई गीतों में यह गीत सबसे पहला है। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में इस गीत ने बड़ी भूमिका निभाई थी। लोगों को आजादी की लड़ाई के लिए प्रेरित करने का काम किया था। अंग्रेजों के विरोध के स्वर के रूप में प्रत्येक स्वतंत्रता सेनानी के मुख से यह शब्द निकलता था- वंदे मातरम्। इन दो शब्दों ने देशवासियों में देशभक्ति के प्राण फूंक दिए थे और आज भी इसी भावना से ‘वंदे मातरम्’ गाया जाता है। हम यों भी कह सकते हैं कि देश के लिए सर्वोच्च त्याग करने की प्रेरणा देशभक्तों को इस गीत से ही मिली। पीढ़ियाँ बीत गई पर ‘वंदे मातरम्’ का प्रभाव अब भी अक्षुण्ण है। बंग भंग आंदोलन और असहयोग आंदोलन दोनों में ‘वंदे मातरम्’ ने प्रभावी भूमिका निभाई। स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के लिए यह गीत पवित्र मंत्र बन गया था।
हिंदी ताकत की भाषा है
इस तरह हम देखते हैं कि हिंदी में रचित नारों व गीतों ने देश की आजादी के लिए भारतवासियों को एकता के सूत्र में न केवल पिरोया बल्कि बल भी दिया। हिंदी ताकत की भाषा है। इस ताकत को आजादी के बाद अंग्रेजी के प्रयोग से हानी पहुँचाई है। आजादी के बाद की पीढ़ी ने एक तरह से आजादी की लड़ाई में अहम भूमिका निभाने वाली भाषा हिंदी को मजबूत करने की बजाय गुलामी की भाषा को मजबूती प्रदान करने की भूल करते रहे हैं। समय रहते अपनी भाषा की खूबियों को पहचानना जरूरी है। भारत की सारी भाषाएँ दिल और दिमाग की भाषाएँ हैं। हिंदी इन सबकी चहेती बना है। आइए, हिंदी दिवस के शुभावसर पर हम सब भारतवासी प्रण करें कि हम सभी हिंदी में काम करेंगे और सब काम हिंदी में ही करेंगे।
लेखक डॉ बी बालाजी, प्रबंधक (हिंदी अनुभाग एवं निगम संचार), मिधानि