हैदराबाद : हिंदी अकादमी मुंबई ने स्ट्रीम यार्ड के माध्यम से राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जानी जानेवाली हैदराबाद के वरिष्ठ साहित्यकार डॉ अहिल्या मिश्र के व्यक्तित्व और कर्तृत्व के विविध आयाम विषय पर एक विशेष कार्यक्रम का ऑनलाइन आयोजन किया। मुंबई की यह संस्था सामाजिक कार्य के साथ साथ हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कार्य कर रही है ।
संस्था के अध्यक्ष और कार्यक्रम के आयोजक डॉ प्रमोद पांडे ने डॉ अहिल्या मिश्र का परिचय Facebook live से जुड़े सदस्यों को कराते हुए कहा कि डॉ अहिल्या मिश्र अहिंदी भाषी क्षेत्र में रहकर कई दशकों से हिंदी के प्रचार प्रसार में निरंतर संलग्न हैं। इनकी सोच इनके वक्तव्य में झलकती है। अभिनव इमरोज पत्रिका के डॉ अहिल्या मिश्र विशेषांक के माध्यम से उनसे परिचय हुई। हिंदी अकादमी मुंबई भी हिंदी का प्रचार प्रसार कर रही है और यह मंच हिंदी के प्रचार प्रसार में कार्यरत लोगों को आमंत्रित करती है। पत्रिका पढ़कर तय किया कि हिंदी अकादमी मुंबई इस पत्रिका के साथ न्याय करेगी और और डॉ अहिल्या मिश्र के व्यक्तित्व व कृतित्व पर एक कार्यक्रम का आयोजन करेगी।
भाषा और महिला उत्थान
कार्यक्रम के विशेष अतिथि श्री पीयूष शुक्ल संयुक्त आयुक्त जी एस टी मुंबई वित्त मंत्रालय भारत सरकार ने कहा कि हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए दक्षिण भारत में डॉ अहिल्या मिश्र जैसे लोगों की आवश्यकता है। हिंदी से जुड़े और हिंदी के प्रचार प्रसार में लगे ऐसे व्यक्तित्व के सम्बंध में जानकर हार्दिक प्रसन्नता होती है और बहुत कुछ सीखने को मिलती है। उन्होंने इस आयोजन के लिए बधाई देते हुए कहा कि इस कार्यक्रम से दर्शकों को अवश्य ही प्रेरणा मिलेगी कि भाषा और महिला उत्थान के लिए कैसे काम किया जाता है।
अवसर पर उन्होंने अपनी लिखी हुई कविता पाठ भी की-
कविता नयनों की भाषा है सुख की दुःख की परिभाषा है
कविता ही राह प्रदर्शक है अभिव्यक्ति यह मनमोहक है
कविता गीतों की माला है मन तमस् मिटाती ज्वाला है
कविता गाथा है वीरों की आवाज़ है ये मजबूरों की।
डॉ अहिल्या मिश्र एक ऐसी धातु हैं
आमंत्रित अतिथि प्रो ऋषभदेव शर्मा ( वरिष्ठ साहित्यकार व पूर्व अध्यक्ष दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा हैदराबाद ), प्रवीण प्रणव (साहित्यकार) और डॉ आशा मिश्रा ‘मुक्ता’ (सम्पादक पुष्पक साहित्यिकी) ने डॉ अहिल्या मिश्र के व्यक्तित्व व कर्तृत्व के सम्बंध में अपने विचार रखे। डॉ अहिल्या मिश्र के सामाजिक, पारिवारिक और शैक्षणिक व्यक्तित्व के सम्बंध में जानकारी देते हुए डॉ आशा मिश्रा मुक्ता ने कहा कि डॉ अहिल्या मिश्र एक ऐसी धातु हैं जिन्होंने आग में तपकर कुंदन का रूप धारण किया है। इनकी संघर्ष यात्रा काफ़ी कठिन रही। कठिनाइयों को झेलते हुए कर्तव्य पथ पर अडिग रहकर अपना सम्पूर्ण जीवन समाज सेवा, स्त्री शिक्षा और हिंदी की सेवा में समर्पित किया। ये कथनी और करनी में भेद नहीं करती। अपने अनुभव और ज्ञान ये अपने तक सीमित न रखकर इसका उपयोग सर्वजनहिताय हेतु करती हैं। आज उम्र के इस पराव पर भी जिजीविषा में कोई कमी नहीं आई है। निश्चय ही ये सम्पूर्ण नारी जाति के लिए प्रेरणाश्रोत हैं।
गाँव और प्रवासी होने का दर्द
प्रोफ़ेसर ऋषभदेव शर्मा ने डॉ अहिल्या मिश्र के साहित्यिक व्यक्तित्व के सम्बंध में बताते हुए उनकी कहानियों पर चर्चा की। उन्होंने कहा, “डॉ अहिल्या मिश्र बहुआयामी और अनेक विधाओं में लिखनेवाली रचनाकार हैं। कहानी के क्षेत्र में उन्होंने अपनी प्रतिभा का विशेष कमाल दिखाया है। वे चाहती हैं कि साहित्य लोक मंगल का पक्ष लेते हुए मानवीय मूल्यों को रक्षा के लिए समर्पित हो। अहिल्या मिश्र के साहित्य में गाँव और शहर का द्वन्द्व दिखाई देती है। इनकी रचनाओं में छूटता हुआ गाँव और प्रवासी होने का दर्द है। अहिल्या मिश्र मानती हैं कि स्त्रियाँ ही संस्कृति की संरक्षक होती हैं अतः इनकी कहानी में स्त्रियाँ विपरीत परिस्थितियों को झेलते हुए भी अपने व्यक्तित्व और स्मिता को सम्मानित करती हैं, रिश्तों को टूटने से बचाती हैं। भाषा कथादेश और परिवेश के साथ बदलती रहती है। हैदराबाद के कथा परिवेश के लिए अगर वे भाषा की हैदराबादी बिरयानी तैयार करती हैं तो मिथिला की कथा में वहाँ के मसालों की महक होती है।”
डॉ अहिल्या मिश्र हर दिन को एक नया दिन मानते
श्री प्रवीण प्रणव ने डॉ अहिल्या मिश्र के काव्य साहित्य के विभिन्न पक्षों को उनकी कविताओं का उदाहरण देते हुए बहुत ही सुंदर और सारगर्भित व्याख्या प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि साहित्य की दुनियाँ में इनकी आरम्भिक पहचान एक कवयित्री की है। डॉ मिश्र के कविताओं में बिम्ब और प्रतीक नए नहीं हैं परंतु उनका प्रयोग और मायने अलग हैं। कविताओं की भीड़ में भी डॉ मिश्र के कविताओं का श्वर दूर से पहचान में आता है। इसकी वजह है कि इन्होंने तय मार्ग पर यात्रा करने के बजाय बंजर और पथरीले रास्ते को चुना और उनसे गुजरते हुए अपने साहित्यिक यात्रा पर एक के बाद एक कई पड़ाव तय किया। डॉ मिश्र की कविताएँ चाहें जिस भावना को प्रदर्शित करती हों परंतु अपनी सरलता सहजता कहन की प्रभावी शैली और पठनीयता को बनाए रखती हैं। पत्थर पत्थर पत्थर नामक कविता संकलन में पत्थर कहीं उनके व्यक्तित्व की दृढ़ता को दर्शाता है तो कई कविताओं में पत्थर ख़ूबसूरती और सौंधी माटी की ख़ुशबू का परिचायक भी है। क़विता ‘कर्म’ का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि डॉ अहिल्या मिश्र हर दिन को एक नया दिन मानते हुए गर्व के साथ कुछ नया करने का आवाहन करती हैं।
दक्षिण में भी हिंदी बड़ी ही आत्मीयता से पढ़ी, लिखी, सीखी और बोली जाती है
कार्यक्रम के अंत में अपने उद्गार व्यक्त करते हुए डॉ अहिल्या मिश्र ने संस्था के प्रति इस आयोजन के लिए आभार व्यक्त किया और बधाई देते हुए कहा कि संस्था बहुत ही उत्तम कार्य कर रही है और इसका श्रेय प्रमोद जी को जाता है। इसी तरह साहित्य और समाज के लिए कार्य करते रहें और आगे बढ़ते रहें। अपने उद्गार में उन्होंने आगे कहा कि मेरे रास्ते बड़े कठिन थे। उससे मैंने बस इतना ही सीखा कि कर सको तो अपनी जात (महिलाओं) के लिए कुछ करो और मैं बढ़ चली उन राहों पर। शिक्षा और आर्थिक स्वतंत्रता ही स्त्री को स्त्री बना पाएगी की सोच को लेकर मैं आगे बढ़ती गई। दक्षिण के हिंदी को राष्ट्रीय स्तर पर दोयम दर्जा से देखे जाने के सम्बंध में दुःख व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा कि दक्षिण में भी हिंदी बड़ी ही आत्मीयता से पढ़ी, लिखी, सीखी और बोली जाती है। दक्षिण वालों के अंदर भी साहित्य की वही शृंखला चल रही है जो उत्तर में है। हिंदी को भारतीय भाषा बनाना है तो इसे सरल सहज और गतिशील रहने देना चाहिए। उन्होंने अपील की कि दक्षिण वालों के हिंदी को भी अपनाओ स्वीकारो और उन्हें भी वो स्थान दो जो उसे मिलना चाहिए। लेखन मेरा ख़ास शौक़ है जो मेरे अंदर मेरे स्वतंत्रता सेनानी पिताजी से बचपन में विरासत में मिली। जब आदमी कविता को जीता है उस क्षण में अपना पराया का भेद समाप्त हो जाता है।
इस अवसर पर उन्होंने अपनी पसंदीदा कविता “ज़मीन का ज़मीर” का पाठ किया –
“पूछते हो ज़मीन का ज़मीर क्या है?/ गर्वीले हिमालय को देखते हो/ जो सिर ऊँचा किए/सीना ताने खड़ा है/ और अपने बड़प्पन का एहसास दिलाता है/ ऐसा दिखता है मानो सारे का सारा/ आकाश उसने अपने कंधे पर टेक रखी हो/ लेकिन क्षण भर को ज़रा सोचो तो सही/ अगर/ज़रा सी ज़मीन अपनी जगह से खिसक जाए/ तो समूचे का समूचा/ हिमालय कहाँ चला जाएगा/ पता ही न चले कि वह कहाँ गया?/ यही है ज़मीन का ज़मीर।”