[नोट- 23 फरवरी को सूत्रधार की ओर से मातृभाषा दिवस पर आयोजित गोष्ठी में लेखक ने स्वयं इसे पढ़ा है। विश्वास है कि तेलंगाना समाचार के पाठकों और छात्रों को यह लेख उपयोगी साबित होगी।]
21 फ़रवरी को अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाया जाता है। 17 नवंबर 1999 को यूनेस्को ने इसे स्वीकृति दी है। इस दिवस को मनाने का उद्देश्य है कि विश्व में भाषाई एवं सांस्कृति विविधता और बहुभाषिता को बढ़ावा मिले। ताकि आपसी समझ, सहिष्णुता और संवाद पर केन्द्रित विश्व एकजुटता निःसंदेह मजबूत होगी।
अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाने का विचार बांग्लादेश की पहल थी। यह दिवस 21 फ़रवरी 1952 में चार छात्रों की हत्या जैसी घटनाओं को याद करता है। उन्होंने बांग्ला देश आधिकारिक तौर पर अपनी मातृभाषा बंगाली करने का अभियान चलाया था। बांग्ला देश में इस दिन एक राष्ट्रीय अवकाश रहता है। 2008 को अंतर्राष्ट्रीय भाषा वर्ष घोषित करते हुए, संयुक्त राष्ट्र आमसभा ने अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस को फिर दोहराया था। मातृभाषा दिवस मनाने का उद्देश्य है कि हमारे देश के सभी लोग मातृभाषा को महत्व दें और इसके माध्यम से देश की पहचान बनाए रखें।
जन्म से हम जो बोली यानी भाषा का प्रयोग करते हैं वही हमारी मातृभाषा है। सभी संस्कार एवं व्यवहार इसी के द्वारा हम पाते हैं हैं। इसी भाषा से हम अपनी संस्कृति के साथ जुड़कर उसकी धरोहर को आगे बढ़ाते हैं। भारत वर्ष में हर प्रांत की अलग-अलग संस्कृति है और अलग-अलग पहचान है। उनका अपना एक विशिष्ट भोजन है। संगीत है। लोकसंगीत है। इस विशिष्टता को बनाए रखना, इसे प्रोत्साहित करना अति आवश्यक है। मातृभाषा में कितने अच्छे और गूढ़ अर्थ के लोकगीत, बाल कविताएं, दोहे, छंद, चौपाइयां हैं जिन्हें हम प्रायः भूलते जा रहे हैं।
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भारत के हर प्रांत में बेहद सुंदर दोहावली उपलब्ध है और यही बात विश्व भर के लिए सत्य है। आज मातृभाषा में बच्चों का बात न करना अब एक फैशन हो गया है। इससे गांव और शहर के बच्चों में दूरियां बढ़ती जा रही है। गांव, देहात के बच्चे जो सब कुछ अपनी मातृभाषा में सीखते हैं, अपने को हीन और शहर के बच्चे जो सब कुछ अंग्रेजी में सीखते हैं, वे स्वयं को श्रेष्ठ समझ रहे हैं। इस दृष्टिकोण में बदलाव जरूर आना चाहिए। हमारे बच्चों को अपनी मातृभाषा और उसी में दार्शनिक भावों से ओतप्रोत लोकगीत का आदर करते हुए सीखना चाहिए, वर्ना हम अवश्य ही कुछ महत्वपूर्ण सीख खो देंगे।
बांग्ला भाषा में बेहद सुंदर लोकगीत हैं जो कि लोकगायक बाउल (इक तारे के समान दिखने वाला) नामक वाद्ययंत्र पर गाते और बजाते हैं। उनके गायन को सुनकर अद्भुत अनुभव होता है। गुरु रवींद्रनाथ टैगोर ने इन्हीं से प्रेरणा ली थी। इसी प्रकार आंध्र प्रदेश में “जन पद साहित्य” और वहां के लोकगीत, छत्तीसगढ़ के लोकनृत्य, केरल के सुंदर संगीत, भोजन, संस्कृति सबकुछ अप्रतिम है। यही तो असली विविधता है, जिसका आदर करना चाहिए। तभी तो हम वास्तव में “विविधता में एकता” की कसोटी पर खरे उतरेंगे और संपूर्ण जगत के लिए एक प्रेरणा के उदाहरण बन जाएंगे।

– दर्शन सिंह मौलाली हैदराबाद