प्रेम के अनेक रूप: डॉ संगीता शर्मा की पुस्तक ‘हरसिंगार पर प्रेम लिखा है’ समीक्षा

‘हरसिंगार पर प्रेम लिखा है’ पुस्तक की रचनाकार डॉ संगीता शर्मा जी है। वैसे तो इससे पहले कई बार रचनकार से मिल चुकी हूँ और एकाध बार इनसे फ़ोन पर वार्तालाप भी हुई है। परंतु अच्छी तरह से जान पहचान शायद नहीं हो पाई थी। क्योंकि जब ये किताब मेरे हाथ में आई तब मैंने जाना कि डॉ संगीता शर्मा already एक प्रतिस्थापित साहित्यकार हैं। कईं पुस्तकों की लेखिका हैं। शायद यह मेरा दुर्भाग्य रहा कि इस पुस्तक के अतिरिक्त मैं इनकी अबतक कोई पुस्तक नहीं पढ़ पाईं हूँ। परंतु जब मुझे पता चला कि मुझे इस पुस्तक पर बोलना है तो लगा कि अच्छा ही हुआ कि मैंने इनकी अन्य पुस्तकें नहीं पढ़ी। यदि पढ़ी होती तो शायद मैं किसी धारणा में बंध जाती और मैं किसी धारणा में बंधना नहीं चाह रही थी ।

मैं सिर्फ़ इस काव्य संग्रह के माध्यम से उन्हें जानना चाह रही थी। जैसा कि इस पुस्तक की भूमिका के शुरुआत में ही प्रो ऋषभदेव शर्मा जी ने लिखा है कि इस  कविता संग्रह के पृष्ठों से गुजरना भावनाओं की एक भरी पूरी दुनियाँ से होकर गुजरना है। इस पुस्तक के सृजन में कवयित्री ने अपनी प्रेमानुभूति को शक्ति के रूप में प्रयोग किया है। अब बात यह है कि कवयित्री की प्रेमानुभूति है क्या। तो मैं बता दूँ कि इस काव्य संग्रह में कवयित्री का प्रेम अनेक रूपों  में उजागर होता है। यह प्रेम मात्र प्रेमी प्रेमिका का नहीं है। देश प्रेम, प्रकृति प्रेम तो अपनी जगह है ही।

विशेष रूप से ईश्वर का प्रेम है जो कवयित्री के जीवन के झंझावतों से लड़ने की शक्ति देता है और विपरीत परिस्थितियों में भी उनके हौसलों को टूटने नहीं देता। ईश्वर के प्रेम का आलंबन लेकर अपने हौसलों को सँजोते हुए  कवयित्री ने अपनी भावनाओं को समवेदनाओं की गुलदस्ता में सजाकर इस पुस्तक को आकार दिया है।

हरसिंगार एक फूल है जिसे पारिजात के नाम से हम जानते हैं। यह रात को खिलने वाला फूल होता है। और आपने देखा होगा कि फूलने के बाद यह झड़ भी जाता है। कहते हैं कि यह दुख का प्रतीक है क्योंकि दिन में यह अपनी चमक खो देता है। इसे रात को रोने वाला पेड़ भी कहा जाता है। इस पुस्तक में कवयित्री ने हरसिंगार के दर्द को प्रेम से सींचा है। प्रेम एक ऐसी अनुभूति है जिसको बयां करना आसान नहीं होता। यह एक  एहसास है। यह काव्य संग्रह भी कवयित्री के कोमल एहसासों का फल है। जो उन्होंने महसूस किया है।

ठीक उस फूल की तरह जो  कहता है-

भले ही मैं तोड़ा जाता हूँ

बहुत जल्दी मुरझा भी जाता हूँ पर

लोग मुझे देखकर खुश होते हैं

मेरी ख़ुशबू से अपनी साँसों को महकाते हैं

मेरी कोमलता को छूकर

अपने ग़म को भूल जाते हैं।

प्रफुल्लित होकर जीने की भी

प्रेरणा मुझसे ही तो लेते हैं

मैं तो यही कहता हूँ तुमसे

भले ही मैं जल्दी फ़ना होता हूँ

लेकिन जबतक जीता हूँ

सबकी साँसों को महकाता हूँ ।

इस कविता संग्रह की भी यही प्रकृति है।

इसकी कविताएँ ऐसी हैं कि धीरे धीरे पाठक केअंदर उतरती जाती हैं।

हम जितनी बार इसे पढ़ते हैं उतना अधिक इसे समाज पाते हैं।

कवयित्री ने इस पुस्तक में वो सब कुछ डाला है जो उन्होंने अपने जीवन जगत में पाया ।  सुख दुख, हर्ष विषाद, आँसू और मुस्कान सबकुछ इसमें शामिल है ।

प्रेम समर्पण, फूल काँटें, बसंत पतझड़, रिश्ते नाते, चुप्पी शोर हर चीज का  थोड़ी बहुत मात्रा में इसमें समावेश है।

जीवन यादों का गुलदस्ता होता है ।

यादें जैसी भी हो अच्छी या बुरी जीवन जीने में सहायक होती है।

यादों को सहेजकर संभाल कर रखना हम सब चाहते हैं लेकिन यह गुण एक लेखक में ही होता है जो अपनी यादों  को शब्दों में बांधता है।

कवयित्री का जीवन भी यादों के स्पर्श से भीगा हुआ है।

कवयित्री का प्रेम साधारण प्रेम नहीं है।

एक रहस्य है।

इसकी अनुभूति को समझना उतना ही कठिन है जितना मीरा के प्रेम को समझना कठिन था।

इनका प्रेम अनुभूतियों से भी परे है।

ये कहती हैं-

 प्रेम की अनुभूति न हो

तो क्या प्रेम, प्रेम नहीं होता

इसकी अनुभूति तो बस

फूटता ज्वालामुखी

सुलगती चिंगारी

चंदन सा शीतल

चमेली की ख़ुशबू

रिमझिम सावन की फुहार

मेरु में बरसाती बयार

चू रहे महुआ की धार

अदृश्य है जो दृश्य

उसे करें याद

हर इबादत में करें

उसकी ही फ़रियाद ।

प्रेम बयां करने की चीज नहीं होती यह मात्र एक एहसास है।

हुमारा जीवन दुःख और सुख, धूप और छाँव से सराबोर होता है।

खुशी  धूप सी खिलती है तो दुख सागर सा  गहरा भी होता है।

कवयित्री का हृदय भी दुःख सुख की स्मृतियों से भरा हुआ है।

चाँद ललाट कविता में वह कहती हैं –

ख़ुद के भीतर झांका

तो दिल भीगा हुआ था

सोचा सावन की झड़ी है

पता चला यह तो उनके

आंसुओं की लड़ी है

प्रेम इस कविता का मूल मंत्र है परंतु इसके अतिरिक्त इस काव्य संग्रह में सामाजिक, राजनैतिक आदि कई प्रकार की समस्याऐं और विसंगतियों को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया गया है। कवयित्री ने जो समाज में देखा और भोगा है उसे भी यहाँ शामिल करके विसंगतियों की ओर लोगों का ध्यानाकर्षण कर उसे दूर करने का प्रयास किया है ताकि एक दोषाहित और आदर्श समाज का निर्माण किया जा सके। कवयित्री भाव  से भर उठती हैं जब देखती है कि सीमा के रक्षक हमारे प्रहरी जो दिन रात देश की रक्षा में डूबा रहता है और एक दिन उसका शरीर तिरंगा में लिपटा हुआ घर वापस लौटता है।

अखबार के माध्यम से वह अपनी बात कुछ इस तरह कहती हैं- 

अख़बार को भीगा देखकर

मैंने उससे पूछ लिया भाई

रोज़ सूखे आज गीले

ये कैसे हो गया

अख़बार बोला बॉर्डर पर

शहीद हुए जवानों की खबर

जब मैं लाया था

उनके परिवार के आंसुओं ने मुझे नहलाया था- अनहद आकाश

इतना ही नहीं जब वह यादों के अवशेष शीर्षक में  लिखती हैं-

तुम नहीं तुम्हारा शव

तिरंगे में लिपटा आ रहा

अब तो इस जन्म में

मुकम्मल इंतज़ार भी ख़त्म हुआ।

मन भावों से भर उठता है। बहुत ही मर्मस्पर्शी और भाव पूर्ण रचना है। कविता की पंक्तियाँ पाठक के अंतर्मन को छूती हैं। इसे पढते हुए हम भी मानसिक रूप से उन सैनिकों के परिवार में शामिल हो जाते हैं और उस दर्द को महसूस करने लग जाते हैं।

हम सब जानते हैं कि स्त्री जननी है और उसके वगैर संसार में कुछ भी संभव नहीं।

परंतु हमारा समाज अभी भी स्त्रीयों  और उनकी अस्मिता के प्रति अनुदार रहा है।

अपनी स्मिता को बचाए रखने के लिए अभी भी वह संघर्षरत है।

कवयित्री चिंतित है भविष्य के लिए।

समाज में स्त्रियों की स्थिति कवयित्री ने एक भ्रूण के माध्यम से बयां किया है।

एक सहमा हुआ भ्रूण की दास्ताँ देखें-

एक भ्रूण माँ के गर्भ में ही

डरने लगा और सहमा

सहमा ही कहने लगा

माँ तू मुझे जन्म न दे

न विकास दे न प्रकाश दे

न उड़ान के लिए खुला आसमान दे

डर के साये में जियूँ

ऐसी ज़िंदगी न दे ।

न शोषण न बलात्कार की रविश दे

मेरे मरने पर न राजनीति की रंजिशें दे

माँ तू  मुझे जन्म न दे।

इतना ही नहीं कवयित्री स्त्रियों की बदहाली के लिए चुप न बैठकर सीधे शिव को ललकार देती है।

प्रश्न करती है कि वह चुपचाप प्रतिमा बनकर सारा नजारा क्यों देख रहे।

अन्याय को दूर करने के लिए क्यों नहीं कुछ कर रहे।

कवयित्री उन्हें प्रतिमा से बाहर आकर स्त्री की रक्षा कर अपने पत्थर स्वरूप को सार्थक करने के लिए उकसातीं हैं।

इस काव्य संग्रह की कविताओं में  कई स्वर, कई शिल्प और कई शैलियाँ हैं।

ये कभी आत्मालोचन करने लगता है और कभी समाजोन्मुख आलोचना।

जनतंत्र, संसद, आज़ादी, सम्विधान, प्रशासन, सरकार और सत्ता के निरंकुश अधिकारी नेताओं पर भी तंज करना कवयित्री ने नहीं छोड़ा है।

अपनी कविता के माध्यम से उन्हे समाज के सामने कठघरे में खड़ा करने का प्रयास किया है। 

आज की राजनीति और नेताओं पर कटाक्ष करते हुए वह कहती है-

राजनीति के शकुनी नेताओं को यदि

भेज दें आसमान में करने राजनीति

वहाँ न 2G हैं न 4G न ही कोई चारा

न काला धन न वहाँ कोई काला कोयला

कैसा करेंगे वहाँ कोई घपला, घोटाला। 

प्रकृति अपने आप में सुंदर और अनुपम है। इसके प्रति मनुष्य के हृदय में आकर्षण सहज और स्वाभाविक है। चाँद तारे, नदी झरने, पशु पक्षी, उषा संध्या, फूल पत्ती, तितली, पेड़ पौधे हमेशा से ही उसका ध्यान खींचता रहा है। लेखक में जीवन की आलोचनात्मक व्याख्या मन ही मन चलती रहती है। साहित्य हमारी अनुभूतियों को समृद्ध करता है। कवयित्री ने कविता के माध्यम से मानवीय गुणों को दर्शाकर उसमें सकारात्मक परिवर्तन लाने का सफल प्रयास किया है। स्वार्थ लोलुप मानव को “प्रलय अभी बाकी है“ कविता के माध्यम से वैश्विक संकट की ओर ध्यान खींचने का प्रयास किया है। लिखती हैं देखें –

धीर धर

हे सुत

धीर धर

आज धरा

कुपित हुई है

संवेदनाओं के सागर में

केवल तुझे डुबोया है

सुप्त चेतना को

हल्की दस्तक से

जगाया है

मानो तनय चेताया है

यह तो केवल ट्रेलर है

प्रलय तो

अभी बाक़ी है

कवयित्री ने प्रेमानुभूति के साथ साथ पूरी ईमानदारी के साथ वर्तमान समय और समस्याओं को कविताओं  में स्थान दिया है। मनुष्य आज हर चीज़ नफ़ा नुक़सान की तराज़ू पर तौलने लगा है। बाजारू मूल्य बोध में फँसकर उसने संबंधों को भी ठुकडा दिया है। कवयित्री मोहमाया कविता में लिखती हैं –

आज का इंसा, इंसा नहीं

व्यापारी है

यहाँ सबकुछ ख़रीदते – बेचते हैं

यहाँ ये ख़ुद तक बिकते हैं। – मोहमाया

कहते हैं कि जो लेखक मनुष्य जीवन के मार्मिक पक्षों का उद्घाटन व्यावहारिक स्तर पर करता है वह जनता के संवेदनाओं के सबसे निकट होता है। इस काव्य संग्रह की कविताएं पाठक की सहानुभूति बटोरने में सक्षम हैं।

नियति से परे, धरती की सुंदर कृति स्त्री, मोहमाया, अनुभवों की किताब, वो भी क्या दिन थे, न धूप न छाँव, कुछ कहना अभी बाकी है, रोज एक यज्ञ बना करता हूँ मैं, आईना मैं बन जाऊँ, मरने का मैं क्या सुख पाउं, प्रेम की पीड़ आदि कई कविताएं हृदय को छूती हैं।

धूमिल के शब्दों में

एक सही कविता

पहले

एक सार्थक वक्तव्य होती है

अतः यह समाज में न्याय की स्थापना करना चाहती हैं। एक स्वस्थ समाज का निर्माण करना चाहती है। मेरी नज़र में यह कविता संग्रह सार्थक है। पुस्तक में कई मधुर और रोचक मुक्तकें भी  हैं । जिनमे से एक का ज़िक्र मैं करना चाहूँगी। जो  मुझे सबसे अधिक पसंद आई। और जिसके माध्यम से कवयित्री ने नीरस जीवन में सकारात्मकता के बीज बोकर जोश भरने का प्रयास किया है।

पंक्तियाँ देखें-

चेहरे की झुर्रियों पर मत जाइए

दिल जवाँ है सोच कर इतराइये

पेड़ पुराना है तो क्या

रोज़ ख़ुशियों के नये फूल खिलाइये

मरना तो एक दिन है मगर रोज़

नये सवेरे से नई ज़िंदगी जी जाइए

बुझी और नीरस ज़िंदगी में आशा के दीप जलाकर जोश जगाने का यह एक उत्तम प्रयास है। 

एक वाक्य में यदि इस कविता संग्रह के बारे में कहा जाये तो यह कह सकते हैं कि इसमें इतिहास भी है, वर्तमान भी है, यथार्थ भी है, कल्पना भी है।

यह कवयित्री के विस्तृत और गंभीर चिन्तनशीलता का पूर्ण परिचय है।

हम जानते हैं कि सृजन आसान कार्य नहीं होता ।

साहित्य एक साधना है।

यदि भावनाएँ पुस्तकाकार होती हैं तो उस पुस्तक के पीछे कई जागी हुई रातें और कई बेचैन दिन होते हैं।

मेरा विश्वास है कि यह काव्य संग्रह भी डॉ संगीता शर्मा की दिनरात के मेहनत का फल है।

रचना अगर स्व से पर की ओर मुड़ने लगे तो सार्थक कहलाती है।

और मेरे ख़याल से यह पुस्तक इस यात्रा में सफल हुई है ।

भाषा सरल और प्रवाहमय है साथ ही कई शब्द मुझे ऐसे भी मिले जिसका अर्थ खोजने की मुझे ज़रूरत पड़ी।

और अंत में मैं कवि कुंवर नारायण जी की इन पंक्तियों से अपनी बात ख़त्म करना चाहूँगी कि

कविता वक्तव्य नहीं गवाह है

कभी हमारे सामने

कभी हमसे पहले

और कभी हमारे बाद

आशा है ये कविता संग्रह भी भूत भविष्य और वर्तमान का गवाह बनकर कीर्तिमान हासिल करेगी। इस कविता संग्रह के लिए मैं कवयित्री डॉ संगीता शर्मा को हार्दिक बधाई देती हूँ।और आभार व्यक्त करती हूँ कि उन्होंने इसका परिचय देने हेतु मुझे चुना। धन्यवाद ।

– डॉ आशा मिश्र ‘मुक्ता’

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Recent Posts

Recent Comments

    Archives

    Categories

    Meta

    'तेलंगाना समाचार' में आपके विज्ञापन के लिए संपर्क करें

    X