प्रोफेसर देवराज की डायरी : संदर्भ बाबू सिंह चौहान

2 नवंबर, 2023 : गुरुजी (डॉ. प्रेमचंद्र जैन) की स्मृति में ‘विद्यार्थियों के साथ संवाद’ कार्यक्रम की शुरुआत रानी भाग्यवती स्नातकोत्तर महिला महाविद्यालय, बिजनौर में ‘अध्ययन और शोध में सूचना प्रौद्योगिकी के उपयोग’ पर प्रशिक्षण-संवाद सत्र से हुई। साथ में कृत्रिम मेधा के विविध पक्षों पर भी बातचीत हुई। विशेषज्ञ, प्रवीण प्रणव को वैज्ञानिक विषयों की जितनी गहरी जानकारी है, उससे भी कहीं अधिक श्रोताओं और प्रशिक्षुओं के साथ सीधा रिश्ता बना लेने में महारत हासिल है।

यद्यपि बिजनौर के लिए चलते समय वे कह रहे थे कि ‘स्नातक और स्नातकोत्तर कक्षाओं के विद्यार्थियों के बड़े समूह के साथ ऐसा संवाद करने का उनका यह पहला अनुभव होगा, जिसमें अधुनातन प्रौद्योगिकी के प्रयोग पर न केवल मौखिक जानकारी ही प्रदान करनी है, बल्कि साथ-साथ प्रशिक्षण भी देना है। इसलिए थोड़ा संकोच हो रहा है’, लेकिन जब कार्यक्रम शुरू हुआ, तो लग गया कि उन्होंने कुछ ही क्षणों में अपने संकोच और आशंका पर काबू पा लिया है और अपने प्रशिक्षु विद्यार्थियों के साथ मानसिक संपर्क बना लिया है।

बाबू सिंह चौहान

मैं सोचने लगा कि जिनका ज्ञान और अनुभव जितना व्यापक और गहरा होता है, वे लोग अक्सर स्वयं को उतना ही साधारण मान कर कार्य में प्रवृत्त होते हैं। ऐसे ही लोग किसी घटना-प्रसंग में उस घटना के अंग भी बने रहते हैं और उससे सीखते भी रहते हैं। इन दोनों बातों का एक ही समय पर घटते रहना उन्हें संवाद-कुशल तो बनाता ही है, अनुभव-विस्तार के कारण ज्ञान की सच्ची साधना में उनकी भरपूर सहायता भी करता है।

शाम का सत्र राजकीय कन्या इंटर कॉलेज, बिजनौर में ‘नेतृत्व-क्षमता और रामचरितमानस’ पर वक्तव्य के रूप में संपन्न हुआ। यह एक नवीन और नवाचारी विषय था, जिसकी शुरुआत ही प्रवीण प्रणव ने यह कहते हुए करने का साहस किया कि ‘यदि रामचरितमानस के वास्तविक महत्व को समझने का मन हो, तो इस ग्रंथ को मंदिरों और घरों के पूजा-गृहों से बाहर निकाल कर अध्ययन की मेजों पर रखना चाहिए।’ आयोजकों के साथ तय था कि वक्तव्य को लाइव भी प्रसारित किया जाएगा, लेकिन जब स्थानीय तकनीकी अभावों के कारण ऐसा होता नहीं दिखा, तो समस्या को समझते हुए प्रवीण ने अपने मोबाइल से ही उसकी व्यवस्था कर दी। फल यह हुआ कि देश भर में सकड़ों लोग इस महत्वपूर्ण वक्तव्य को सुनने लगे, साथ-साथ अपनी टिप्पणियाँ भी भेजने लगे।

दिवंगत राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह के साथ बाबू सिंह चौहान

सांध्य दैनिक ‘चिंगारी’ के संपादक सूर्यमणि रघुवंशी के साथ इस कार्यक्रम की प्रसंगवश हुई चर्चा में तय हो गया था कि प्रवीण प्रणव के साथ एक छोटी-सी बैठकी बिजनौर टाइम्स समूह कार्यालय में भी रखी जाए, जिसमें अन्य औपचारिकताओं के साथ ‘सूचना प्रौद्योगिकी और कृत्रिम मेधा’ पर उनसे लंबी बातचीत हो। इसे बाद में सुविधानुसार कभी चिंगारी और बिजनौर टाइम्स के पाठकों के साथ साझा किया जा सकता है। सूर्यमणि जनता के हितों, अधिकारों और शिक्षा से जुड़े सवालों की दृष्टि से पश्चिमी अंचल के प्रखर और गंभीर विचारक कार्यकर्ताओं में गिने जाने लगे हैं।

वे रानी भाग्यवती कॉलेज के ‘आंतरिक गुणवत्ता विनिश्चचयन प्रकोष्ठ’ के सदस्य के रूप में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। इसी कारण उन्हें यह अनुभव होना कठिन नहीं था कि सूचना प्रौद्योगिकी और कृत्रिम मेधा जैसा विषय आज के विद्यार्थियों के लिए क्रांतिकारी उपयोगिता का है। जब हम लोग राजकीय कन्या इंटर कॉलेज की प्रधानाचार्य डॉ. निर्मला शर्मा और विधिवेत्ता अरविंद के साथ बिजनौर टाइम्स समूह के कार्यालय में पहुँचे, तो उनका उत्साह और तैयारी देख कर इस बात की पुष्टि भी हो गई।

बाबू सिंह चौहान के दुर्लभ तस्वीरें

कवि-समालोचक और रानी भाग्यवती कॉलेज के हिंदी विभाग की अध्यक्ष, डॉ. सविता मिश्र और वर्धमान कॉलेज की हिंदी विभागाध्यक्ष, डॉ. शशिप्रभा ने प्रवीण प्रणव के साथ निर्धारित विषय पर लगभग डेढ़ घंटे की बातचीत की। इसमें सविता मिश्र की एक युवा सहयोगी ने बीच-बीच में अनेक अनछुए पक्षों की ओर ध्यान दिला कर सार्थक हस्तक्षेप किया। लेकिन बहुत प्रभावित करने वाला हस्तक्षेप सूर्यमणि रघुवंशी की ओर से देखने को मिला। यह एक विज्ञान-विशेषज्ञ और एक जिज्ञासु समूह के बीच होने वाले संवाद में… विद्यार्थियों और सामान्य लोगों को ध्यान में रखते हुए… एक अनुभवी संपादक का हस्तक्षेप था।

बिजनौर टाइम्स समूह कार्यालय में तीन तरफ की दीवारों पर भव्य शो-केस बनवा कर संस्थापक बाबू सिंह चौहान के जीवन व कार्यों की झाँकी प्रस्तुत करने वाले चित्र, उनकी पुस्तकों और उन्हें प्रदान किए गए सम्मानपत्रों व पुरस्कारों को विशेष रूप से प्रदर्शित किया गया है। कार्यालय में प्रवेश करते ही किसी का भी ध्यान इस ऐतिहासिक संपदा की ओर जाए बिना नहीं रह सकता। प्रवीण प्रणव की वैसे भी किताबों और ऐतिहासिक-सांस्कृतिक विषयों में विशेष रुचि है; इसलिए जैसे ही बातचीत-सत्र संपन्न हुआ, वे घूम-घूम कर सारी सामग्री को ध्यान से देखने और अपने मोबाइल के कैमरे से चित्र लेने लगे। इसके बाद उनके और सूर्यमणि रघुवंशी के बीच वार्तालाप…

तो, यह है, बाबू सिंह चौहान जी का वास्तविक परिचय। काफी कम लोग ही यह सब जानते होंगे। यह आपने इतनी अच्छी तरह से प्रदर्शित किया है कि लगता ही नहीं कि यह इस दूरस्थ जगह पर किसी संपादक का कार्यालय है, बल्कि इसे किसी लेखक का अध्ययन-कक्ष कहा जा सकता है।

जी, दरअसल बाबू जी का जीवन अकथनीय रूप से संघर्षों से भरा रहा। इसी में वे पत्रकारिता भी करते रहे, जन-संघर्ष चला कर जनता के अधिकारों के लिए लड़ते भी रहे, और लिखते भी रहे। व्यक्तिगत जीवन में भी और पत्रकारिता में भी वे ही हमारे प्रेरणा-स्रोत हैं। इस सामग्री के यहाँ प्रदर्शित किए जाने का एक बड़ा कारण तो यही है कि हम दोनों भाई (सूर्यमणि रघुवंशी के बड़े भाई चंद्रमणि रघुवंशी, जो बिजनौर टाइम्स के संपादक हैं और वहाँ हम लोगों के साथ थे) बाबू जी को और उनके कार्यों को अपने सामने पाते हैं, तो हमेशा सावधान रहते हैं कि लेखन और जीवन में ईमानदारी और संघर्ष को नहीं भूलना है। दूसरे, इसे हमारे कार्यालय में आने वाले भी जब देखते हैं, तो उन्हें भी प्रेरणा मिलती है। हमें अपनी ओर से सायास कुछ बताने की आवश्यकता नहीं रहती…

यहाँ विदेश संबंधी भी अनेक चित्र हैं…

जी हाँ, बाबू जी को चार बार तो सोवियत संघ की यात्रा पर ही जाने का अवसर मिला था। इसके अलावा, वे चीन, बल्गेरिया, डेनमार्क और चेकेस्लोवाकिया की यात्रा पर भी गए थे। ये कुछ उन्हीं से संबंधित चित्र हैं।

और, यहाँ सम्मान और पुरस्कारों की सूचना भी है…

हाँ, जैसे-जैसे बाबू जी के कार्य का महत्व स्वीकार किया गया, उन्हें अनेक जगह और अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया गया। उन्होंने सोवियत संघ की यात्रा के बाद अपने यात्रा-संस्मरण लिखे थे, जो ‘श्रमवीरों के देश में’ पुस्तक के रूप में छपे। उसी पुस्तक पर बाबू जी को ‘सोवियतलैंड नेहरू पुरस्कार’ मिला था।

मैं यहाँ आकर एकदम से रोमांचित हूँ, ऐसे विचारवान और कर्मठ व्यक्ति से परिचित होने का अवसर पाकर लग रहा है कि बिजनौर आना सफल हुआ…

आपने विचारवान का उल्लेख किया, तो एक विशेष बात अपने बाबू जी के बारे में बताऊँ। वे अपने लेखों में और बातों में काफी कठोर और आलोचनात्मक थे, लेकिन उनके भीतर नकारात्मकता नहीं थी। वे दैनिक जीवन में लोगों को और समाज को देखते थे, जरा-सी भी बात गलत लगती थी, तो उसका विरोध करते थे, लेकिन उनका उद्देश्य बुराई को सामने लाना और उसे खतम करने की कोशिश करना होता था, किसी व्यक्ति विशेष को नुकसान पहुँचाना नहीं।

इस बातचीत को सुनते हुए मुझे बाबू सिंह चौहान के लेखों की एक पुस्तक ‘मकड़जाल में आदमी’ का पहला ही लेख ‘दीवार पर कंडों के चिह्न’ याद आया। होटल लौट कर किताब खोली, तो पता चला कि बिजनौर टाइम्स समूह कार्यालय में लेख के जो अंश स्मृति में उभरे थे वे ज्यो-के-त्यों मौजूद हैं। इस लेख के अंतिम दो पैराग्राफ ध्यान खींचन वाले हैं। इनमें से एक में बाबू सिंह चौहान कहते हैं…

‘एक व्यक्ति ने एक ऊँचे मचान पर चढ़ कर आवाज लगाई कि ‘लोगो, मेरी बात सुनो, वह व्यक्ति जो रात को चैन की नींद सोता है, वह मक्कार है, तुम उसके चक्कर में मत आना।’ एक श्रोता ने ऊँची आवाज में पूछा, ‘तुम्हें अपने काम से इतना अवकाश कैसे मिला कि उसके कृत्यों को देखते।’ उस व्यक्ति के पास इसका कोई उत्तर नहीं था, अंतत: वह चीख-चीख कर थक गया और भारी कदमों से नीचे उतर आया और थक-हार कर गहरी नींद सो गया।’ और, दूसरे में वे आदमी से अपेक्षित सच्चे व्यवहार को परिभाषित करते हैं…

‘सच्चा अमल वह है, जो किसी के शोषण, उत्पीड़न का कारण नहीं बनता है, जो त्याग और आत्मोत्सर्ग की भावना से प्रेरित रहता है और सच्चे अमल वाला व्यक्ति शीशे से पत्थर तोड़ने की कोशिश तो कर सकता है, पत्थर से शीशा तोड़ने के लिए उसके हाथ कभी नहीं उठते।’ और, इस पैरे के साथ ही लेख की भी आखरी पंक्ति है, ‘सच्चे अमल वाले को बदनामी से कोई भय नहीं होता; क्योंकि ‘वीरता’ उसके कर्म का आधार होती है और निर्भयता उसका स्वभाव।’

कलम हाथ में तो है, लेकिन लिखना रुका हुआ है, मैं काफी देर से ये दोनों अंश बार-बार पढ़ रहा हूँ। ‘पत्थर से शीशा तोड़ने’ और ‘शीशे से पत्थर तोड़ने’ वाले दो बिंब सामाजिक, राजनैतिक और लेखकीय सच्चाइयाँ लिए मन में हलचल मचा रहे हैं। पत्थर से शीशा तोड़ डालने के इरादों वाले अनेक लोग हाथों, जेबों, झोलियों में छोटे-बड़े पत्थर भरे घरों की छतों, दीवारों, ऊँची-ऊँची मीनारों-टावरों, पेड़ों की शाखाओं पर अधिकार जमाए मौके की तलाश में बेचैन हैं। अनेक, उपासनाघरों के भीतर से पत्थर-पत्थर चिल्ला रहे हैं। अनेक, बाज़ारों, सड़कों और गलियों में चीखते हुए पत्थरों के साथ दौड़ रहे हैं। अनेक तो शीशे के खिलाफ पत्थर दिखा-दिखा कर ही आम आदमी से वोट मांगते घूम रहे हैं। और, अनेक ऐसे भी हैं, जिन्होंने ‘पत्थर के ही कलम होने’ का भ्रम पाल लिया है और नाचते हुए पत्थर-गान गा रहे हैं।

उधर, शीशे से पत्थर तोड़ने का संकल्प करके घरों से निकल आए भी थोड़े-से लोग हैं। इनके हाथों में शीशे, जेबों में भूख और आँखों में स्निग्ध चमक है। कुछ ही क्षणों में असंख्य पत्थरों ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया है। वे हिंसक और आक्रामक नारे लगाते हुए हमले पर उतारु हो गए हैं। हाथों में शीशे संभाले लोग सहानुभूति के भाव से अपने-अपने शीशों को देखते हैं। उन्हें शीशों में अपने चेहरों की छायाएँ दिखाई देने लगती हैं। उन छायाओं के भीतर आशंका, भय और आत्मविश्वास के बीच खींचतान हो रही है। आत्मविश्वास के हाथों में धधकती मशालें आ जाती हैं। मशालों से उठती लपटों में भविष्य का अस्पष्ट मानचित्र हवा में मुट्ठियाँ ताने गान गा रहा है… ‘पत्थर से टकराना होगा/ भय को दूर भगाना होगा/ संकल्पों का ताना होगा/ साँस-साँस का बाना होगा/ अद्भुत ताना-बाना होगा/ शोषण-दुर्ग ढहाना होगा/ अपना मार्ग बनाना होगा/ आगे बढ़ते जाना होगा/ जनहित गायन गाना होगा/’

अचानक, हाथों में सँभाल कर थामे गए शीशों में स्पंदन होने लगता है। वे जीवित होने लगते हैं। वे ज़ोर-ज़ोर से इस गान को दुहराने लगते हैं। वे गान गाते हुए पत्थरों की ओर बढ़ने लगते हैं। बाबू सिंह चौहान के हाथ का शीशा इनमें सबसे आगे है…।

– प्रोफेसर देवराज dr4devraj@gmail.com/7599045113

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