आज देश 75वां स्वतंत्रता दिवस (अमृत महोत्सव) माना रहे हैं। यह दिन आजादी का जश्न मात्र मनाने का नहीं, बल्कि प्रत्येक भारतीय नागरिक के अधिकारों की रक्षा के प्रति दृढ़संकल्पित होने का है। आजादी की लड़ाई तब तक जारी रहनी चाहिए, जब तक देश का अंतिम व्यक्ति सुगमता पूर्वक अपने अधिकारों को प्राप्त कर सके। हमें आजाद हुए 74 वर्ष हो चुके हैं, परंतु आज भी देश में सही मानों में वास्तविक आजादी तभी मिल पाएगी जब गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, कुपोषण, बेतहाशा मूल्य वृद्धि, स्वास्थ्य सेवाओं का आभाव, किसानों की परेशानी, भ्रष्टाचार, वंचितों, महिलाओं एवं बच्चियों पर अत्याचार और उत्पीड़न, जातिगत भेदभाव की घटनाओं आदि का खात्मा न हो जाय। आजकल महिलाओं और बच्चियों के बलात्कार/उत्पीड़न की घटनाएं, दलितों/वंचितों आदि पर हमले की खबरें लगातार आ रही हैं। लेकिन सरकारें अंकुश लगा पाने में नाकाम साबित हो रही हैं।
पिछले कुछ सालों से हम देखते आ रहे हैं कि वंचित समुदायों पर जातिगत भेदभाव और उत्पीड़न की घटनाएं अधिक बढ़ी हैं। इसी क्रम में उत्तर प्रदेश में धोबी समुदाय के लोगों पर लगातार हमले होते आ रहे हैं, बावजूद इसके कि इस समुदाय की आबादी पूरे देश में 6 करोड़ (अनुमानित) से अधिक है और उत्तर प्रदेश में यह अनुसूचित जाति की तीसरी सबसे बड़ी आबादी वाली जाति है। दलित वोटरों के हिसाब से देखा जाय तो भी तीसरे स्थान पर (15 प्रतिशत) आती है। हत्या और उत्पीड़न कि घटनाओं के प्रतिक्रिया स्वरूप छुटफुट आंदोलन या धरना-प्रदर्शन भी होते आ रहे हैं। कुछ घटनाओं में तो वह भी नहीं हो सका/पाया। चाहे वह उन्नाव का मौरावां हत्याकांड (जहां पर घर में घुसकर माँ और उसकी तीन बेटियों का बड़ी बेरहमी से कत्ल कर दिया गया।) रहा हो, 2019 में दिल्ली का प्रीतिमाथुर हत्याकांड रहा हो, 2020 में संभल चंदौसी में छोटेलाल दिवाकर व सुनील दिवाकर का हत्याकांड रहा हो या फिर अभी हाल ही में गोरखपुर के अनीश कनौजिया, बाराबंकी के रोहित कनौजिया का हत्याकांड। जिसके कारण धोबी समुदाय के लोगों में भरी आक्रोश व्याप्त हो गया है।
क्योंकि इसके पूर्व में करहल मैनपुरी में धर्मेन्द्र दिवाकर की हत्या, प्रतापगढ़ व बड़हलगंज गोरखपुर में भी लोगों के साथ जातिगत आधार पर मार-पीट कि घटनाएं घाट चुकी थीं। गोरखपुर और बाराबंकी हत्याकांड पर जहां उत्तर प्रदेश के लगभग सभी जिलों में धोबी समुदाय के लोगों, संगठनों और बहुजन समाज के लोगों द्वारा धरना-प्रदर्शन कर दोषियों को शीघ्र गिरफ्तार करने और विभिन्न मांगों संबंधी ज्ञापन राज्यपाल और मुख्यमंत्री को सौंपा। वहीं समाजवादी पार्टी ने एक प्रतिनिधिमंडल भेजा जिसमें लोहिया वाहिनी के प्रदेश अध्यक्ष डॉ रामकरन निर्मल समेत पार्टी के कई नेतागण शामिल रहे। 10 अगस्त 2021 को प्रदेश की राजधानी लखनऊ में गाडगे यूथ ब्रिगेड के नेतृत्व में कई सामुदायिक संगठनों ने मिलकर विरोध प्रदर्शन कर ज्ञापन सौंपा गया। इसके साथ ही इस समुदाय से आने वाले विधायकों ने भी सरकार आरोपियों पर कड़ी कार्रवाई हेतु पत्र लिखा। धोबी समुदाय के लोगों के उत्पीड़न और हत्या की बहुत सारी घटनाएं घटी हैं, जिनका इस छोटे से लेख में उल्लेख करना संभव नहीं।
जाति आधारित उत्पीड़न और हत्या घटनाओं की अधिकता से समुदाय के लोगों में आक्रोश तो है ही साथ ही एकजुटता भी बढ़ रही है। लोग लामबंद हो रहे हैं। उन्हें यह आभास हो गया है कि बिना कारगर लामबंदी या आपसी सहयोग के हमारे समुदाय पर हत्या और उत्पीड़न की घटनाएं रुकने वाली नहीं हैं। इस तरह के हमलों की अधिकता का मेरी राय में एक प्रमुख कारण है कि धोबी समुदाय में ज्यादा कारगर तरीके से आपसी सहयोग करने की काबिलियत का अभी भी आभाव है यदि ऐसा न होता तो आततायी घटना को अंजाम देने से पहले अवश्य सोंचते। इतिहास गवाह है कि जिन लोगों ने बेहतर ढंग से आपस में सहयोग किया उनकी जीत अवश्य हुई या वे पीड़ित को न्याय दिला सके/रहे हैं। हमें यह ध्यान रखना होगा कि बड़े मस्तिष्क और औजार निर्माण की बेहतर तकनीकें और बेहतर संसाधन भी कारगर लामबंदी या कारगर आपसी सहयोग के सामने बौने साबित हुए हैं।
सम्पूर्ण इतिहास में देखने से पता चलता है कि जो सेनाएं अनुशासित थीं, उन्होंने बड़ी और असंगठित सेनाओं को आसानी से खदेड़ दिया। यही नहीं संगठित अभिजात वर्ग ने बिखरे हुए जन-समूहों पर आसानी से अपना वर्चस्व कायम किया। रूस में 1914 में अभिजात वर्ग के 30 लाख लोगों (कुलीन, अधिकारी और व्यापारी) ने 18 करोड़ किसानों और कामगारों पर अपना रौब जमाया था। कारण बस एक था कि वे इस बात को बेहतर तरीके से जानते थे कि अपने साझा हितों को बचाने के लिए आपस में किस तरह सहयोग किया जाय।
एक बात यह ध्यान रखना होगा कि अभिजात वर्ग/उच्च वर्ग की पूरी कोशिश यह सुनिश्चित करने में रहती है कि बड़ी आबादी वाले लोग कभी आपस में सहयोग करना न सीख सकें। एक राष्ट्र, एक संगठन और एक झण्डा के नाम पर मैं हमेशा से कहता आ रहा हूँ कि आंदोलन करने के लिए लोगों की संख्या भर कभी पर्याप्त नहीं होती। कोई भी बड़ी क्रांति विशाल जन-समूह की अपेक्षा छोटे-छोटे आंदोलनों और आंदोलनकारियों से ही सम्भव हुई है। अगर आप कोई आंदोलन करना चाहते हैं तो ये न सोंचिए कि कितने लोग मेरे साथ हैं या मेरे विचारों का समर्थन करते हैं बल्कि इस पर एकाग्रता से विचार करिए कि आपके या आपके विचारों के कितने समर्थक हैं जो कारगर तरीके से आपसी सहयोग कर सकते हैं या करने में सक्षम हैं।
धोबी समुदाय पर होने वाले हर हमलों/उत्पीड़न का प्रतिरोध छोटे-छोटे आंदोलनों के जरिए हर जगह करके देना होगा। आजादी की लड़ाई से भी हम सीख ले सकते हैं। इसलिए समुदाय की जितनी भी संख्या है या समुदाय के संगठनों की जितनी भी संख्या है इससे फर्क नहीं पड़ता। फर्क पड़ता है कि सबमें कितनी कारगर लामबंदी है या सभी लोग या सामुदायिक संगठन कितने कारगर तरीके से आपसी सहयोग कर सकते हैं। जिस दिन हमारे समुदाय या सामुदायिक संगठनों में व संगठनों के मुखियाओं में कारगर लामबंदी हो जाएगी और सब एक साथ अलग-अलग जगहों पर अपनी क्षमतानुसार संविधान और कानून के डायरे में रहकर प्रतिरोध करेंगे उस दिन समुदाय के ऊपर होने वाले हमलों/उत्पीड़न की संख्या में अविश्वसनीय रूप से कमी आ जाएगी। ऐसा बिना हतोत्साहित हुए लगातार शांतिपूर्वर्क आंदोलन करते रहना होगा। एक स्थान पर बड़े आंदोलनों से यथासंभव तब तक बचना चाहिए जब तक एकदम अपरिहार्य न हो क्योंकि ऐसा करने में ऊर्जा और धन के साथ-साथ समय भी जाया होता है और प्रशासन के लिए आंदोलनकारियों पर नियंत्रण करना भी बहुत आसान होता है।
इसलिए जब समुदाय के लोगों और सामुदायिक संगठनों का लक्ष्य अपने समुदाय की हिफाज़त करना और तरक्की करना व एकजुटता प्रदर्शित करना है तो उन्हें कारगर तरीके से आपसी सहयोग/लामबंदी पर फोकस करना होगा। साथ ही यह भी ध्यान रखना होगा दूसरों के संवैधानिक अधिकारों का हनन न हो। आजादी के इस पवन अवसर पर यह संकल्प लें कि अपने समुदाय के लोगों की हिफाजत के साथ-साथ जन सरोकारों से जुड़े मुद्दों के लिए भी अपनी भूमिका का सम्यक निर्वहन करेंगे जिससे हमारा भारत आजादी के दीवानों के सपनों का भारत बन सके।
–नरेन्द्र दिवाकर (9839675023) की कलम से…
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