‘पूजा या विसर्जन-अंतर्व्दन्द से रोशनी की ओर’ भगवती अग्रवाल जी ने काव्य संकलन में अपने आसपास को, स्त्री को, प्रेम को विविध कोणों से देखा है। उनकी दृष्टि व्यापक है और चिंताएं बहुविध है। स्त्री जीवन की विडम्बनाओं पर उनकी पैनी नजर है। लेकिन वे ‘अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी’ के पराजित स्वीकार भाव की नहीं संघर्ष की कवि है। जरूरी नहीं कि पीड़ा से ही कविता उपजे… कविता स्वयं मुखर होकर अपने भाव पाठकों तक सम्प्रेषित कर दे वही कविता है।
भगवती जी अपने भावों की अभिव्यक्ति बहुत ही सुंदर व प्रभावशाली ढंग से की है। पूजा या विसर्जन में कवयत्री के जीवन में आये परिवर्तनों को साकार रूप देने का प्रयास है। ये कविताएं सामाजिक सरोकारों को अपने में समेटे हुये है। इसमें अलग-अलग रंग की कविताओं का समावेश किया है। पूजा या विसर्जन शीर्षक सार्थक है। जिस तरह पूजा में हम देवी देवताओं का आहवान करते है व पूजा की समाप्ति पर ससम्मान विसर्जन करते है कि वे अपने लोक में वापस जाये।
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कवयित्री ने भी भावों का आह्वान कर अभिव्यक्ति के रूप में विसर्जन किया है और इस पूजा और विसर्जन में जो अंतर्व्दंद चला उससे ज्ञान का प्रकाश प्रज्जवलित हुआ। बहुत ही सुंदर ढंग से भावों की अभिव्यक्ति कवयित्री ने की है। शब्द महात्मय से लेकर भाई-बहन रांची के साथियों को समर्पित गीत व क्षणिकाएं है। पूरे काव्य संग्रह में कवयित्री ने जीवन के इंद्रधनुषी रंगो की आभा को चित्रित करती है। शब्दों के महत्व को बताती है। कहीं गुनगुनाना चाहती है। वे कहती है मैं कवि नहीं हूँ… उतार देती हूँ। कभी कभी अपने ख्याल कागज की जमीन पर। कवयित्री कहती है ना जाने कब खोज खत्म होगी? जब मिलेगा कोई… रूह की तलाश जो सुकून दे दोनो को… प्रेम सर्वोपरी है… स्त्री व प्रेम एक दूजे के पूरक है… यही वजह है कि इनकी कविताएं इन्हीं के इर्द– गिर्द अपनी अभिव्यक्ति तलाशती है।
कवयित्री भगवती अग्रवाल
कभी कभी कवयित्री को हर पल जिंदगी अजनबी लगती है। जिंदगी अजनबी अचानक कर देती है। हतप्रभ कभी सन्नाटा कर देती है। जिंदगी में आये उतार चढ़ाव को देखते हुए वह अपने बच्चों से कहती है– ऐ मेरे बच्चों थोडा-सा बचपन बचाकर रखना। मै और मेरा ईश्वर में जीवन की वास्तविकता का चित्रण किया है – बार-बार देता है …
सत्य – असत्य, दुख – सुख के
नित्य नए सबक !
ईश्वर से संवाद कविता में कवयत्री कहती है – जब मै ज्यादा परेशान होती हूँ …
उससे मोक्ष मांगती हूँ …
वह कहता है इतनी क्या जल्दी है?
मै भी डरती हूँ !
कहीं मोक्ष के बाद
ईश्वर न रहा तो !
मेरा बचपन, तेरा बचपन मे माँ से आग्रह करती हुई कहती है –
मां, मुझे बड़ा नही होना हैं
मुझे अभी भी रहना है तेरे पास
मुझे नही चलना इस जीवन भँवर मे अकेले
गौशाला की एक सुबह कविता में मूक पशु पक्षीयों को वाणी देने का प्रयास कवयत्री करती है। कही कवयत्री कहती है– न जाने कैसा तिलिस्म है ये इश्क …
अबूझे से तिलिस्म में कैद …
जहां से लौटने का रास्ता
मुझे नहीं पता … ।
आखरी सफर मे नश्वर शरीर से आत्मा के सफर का चित्रण है –
सुना है आत्मा निकलती है
शरीर न बुला पाया था – जिनको
आत्मा सबको खींच लाई है
दिल की आखरी धड़कन तक मे मां के निश्छल प्रेम का चित्रण है। स्त्रीत्व मे वे कहती है अपनी छैनी-हथौड़ी से तुम्हें खुद ही बनना है। एक भूली-सी दुआ मे कवयित्री ‘ममता’ के लिए कहती है-
दिल के और करीब आई थी
अब बनी वह मेरे जीवन की परछाईं थी।
मैं उसकी मां और वह मेरी ममता थी…
अगले जन्म के रिश्तों की यह एक शुरुआत थी,
लड़कियां, आखिरी कोशिश, अस्तित्व, मै जानती हूं,
हर दिन, अनसुलझे सवाल, खाली हाथ, मेरे सपनों की डोर, आदि कविताओं के साथ पूजा या विसर्जन कविता में कहती है– तुम मुझे थोड़ थोडा खर्च करते गए…
मै तुम्हें थोड़-थोड़ा जमा
एक दिन में तुम्हारे दिल में शून्य बनकर रह गई और
एक दिन तुम मुझमे मूर्त बन समा गए
असमंजस में हूं…
इस पत्थर- दिल की
पूजा करूं या विसर्जन?
खुशियां गम और मेरी भूमिका मे कवयित्री मन की गीता पर हाथ रख कसम खाली, हृदय को भी इंसान अपनी जड़ों से कभी जुदा नहीं हो सकता। हिम्मत की डोरी से बांध लिया। अतीत को याद कर कवियत्री कहती हैं–
वह छत फिर से जीवित हो गई आज ख्यालों में…
कभी पापड़-मंगोडी मिलकर बनाते, कभी स्वेटर और सिलाई करते
कभी कितारी (ईख) और बूटा झिंगडी (हरे चने) खाते…
बच एक बचपन याद रहे…
सबको भूल जाऊँ
क्षणिकाएं में कवयित्री कहती है-
जी करता है… लौट जाऊँ…
एक बार फिर इतिहास में और…
कर आऊँ मरम्मत उन घटनाओं की
जो अब तक सालती है…
कहीं कहीं किसी मुक्तक मे आप कहती है–
साल – दर – साल
रोशनी में
इजाफा हुआ बाहर…
और अंदर से लोग
गुमनामी अंधकार में
डूबते चले गए।
पूजा या विसर्जन – काव्य संग्रह नहीं अपितु मनुष्य की संवेदनशीलता को झकझोर देने वाले कुछ पल और फिर कुछ यादों का संग्रह है।
श्री गुरूकुल पब्लिकेशन
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समीक्षक डॉ संगीता