आज का सुविचार: – साम्यवाद इश्क नहीं है। साम्यवाद एक हथौड़े के समान है, जो शत्रुओं को कुचलने के काम आता है। (Communism is not love. Communism is a hammer which we use to crush the enemy) – माओ त्से तुंग
[नोट- गुरुवार को तेलुगु दैनिक आंध्रज्योति में संपादक के श्रीनिवास के प्रकाशित लेख का अनुवाद। विश्वास है कि वर्तमान हालात से अच्छी तरह से अवगत होंगे। पाठकों की प्रतिक्रिया अपेक्षित है]
कहा जाता है कि सरकारों को जोश और उत्साह नहीं होते हैं। उनकी प्रतिक्रियाएं यांत्रिक होती हैं जिनमें कोई मानवीय स्पर्श नहीं होता है। वास्तव में ऐसा होने का एक सकारात्मक पक्ष भी है। उनके प्रदर्शन में लोगों की भावना नहीं, बल्कि कर्तव्य की पूर्ति प्रकट होती है। चाहे अच्छा हो या बुरा यह एक निराकार तंत्र से होता और दिखाई देता है। फांसी लगाने वाले जल्लाद भी कहता है कि वह अपनी मर्जी से नहीं, बल्कि सिर्फ ड्यूटी कर रहा है। सत्ता पर बैठे नेता वैसे नहीं हो सकते हैं। वे विरोधी नेताओं की आलोचना करते हैं और गाली देते हैं। वे आंदोलन और आंदोलकारियों को दबाने की कोशिश करते हैं क्योंकि वो सोचते हैं कि वे प्रशासन के लिए परेशानी पैदा कर रहे हैं। सत्ता का उपयोग बिना नियंत्रण से करते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि दमन भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रशासनिक तंत्र द्वारा किया जाता है। अंतिम परिणाम पर ध्यान केंद्रित किया जाता है और उसमें व्यक्तियों पर व्यक्तिगत लक्ष्यीकरण नहीं होता है।
सरकार के इशारे पर अवैध रूप से (कानून के खिलाफ) गोली मारने वाली पुलिस की भी हत्यारे से कोई दुश्मनी नहीं होती है। लेकिन लोगों के विभागों को आधार मानकर, एक-दूसरे के प्रति असहिष्णुता को भड़काने, घृणा का सहारा लेकर बहुसंख्यक लोगों में सहमति प्राप्त करने और असीमित शक्ति का उपयोग करने वाले, गंभीर भावनाओं से कांप उठते है। उन्हें फासीवादी, तानाशाही या आधिपत्यवादी कहा जाता होगा, लेकिन वे निर्ममता को एक नीति के रूप में देखते हैं। सरकारी मशीनरी को भी रागद्वेष थोपते है। विरोधी और विपक्ष के खिलाफ शासक और प्रशासनिक व्यवस्था भी दुश्मनी और बदला लेने का काम करती है। वे इसे छिपाना भी नहीं चाहते।
जीएन साईबाबा नामक एक बुद्धिजीवी, नागरिक अधिकार कार्यकर्ता, कवि और लेखक के साथ सरकार की ओर से किया गया व्यवहार अत्यंत खेदजनक है। साईबाबा आठ साल से जेल में है और पांच साल से एक सजायाफ्ता अपराधी के रूप में नजरबंद है। अपनी बेगुनाही साबित करने करने के लिए उनकी अपील पर महाराष्ट्र उच्च न्यायालय में सुनवाई हुई और फैसला आने में पांच साल का समय लग गया। हाईकोर्ट ने कहा कि जिस तरह से उन्हें यूपीए एक्ट के तहत गिरफ्तार किया गया वह गलत है और उन्हें तुरंत रिहा किया जाये। न्यायाधीशों ने प्रक्रियात्मक दोष की ओर इशारा करते हुए राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर मानवाधिकारों के उल्लंघन की अनुचितता को दोष दिया।
कई लोकतांत्रिक और नागरिक अधिकार संगठन के नेताओं की राय है कि साईंबाबा के खिलाफ लगाए गए आरोप वास्तविक नहीं हैं। केंद्र सरकार और महाराष्ट्र सरकार ने आदिवासी आंदोलन सहित विभिन्न सार्वजनिक आंदोलनों के साथ उनकी एकजुटता के कारण उन्हें परेशान करने के लिए मामले दर्ज किए हैं। इसके चलते विरोध प्रदर्शन किये और साईबाबा को रिहा करने के लिए अनेक ज्ञापन सौंपे गये। एक 90 फीसदी विकलांग व्यक्ति को नागपुर के अंडासेस जेल में बंदी बनाकर रखा गया। उसकी बीमारी की उपेक्षा की गई। उसके मूलभूत विशेष जरूरतों को पूरा नहीं किया गया। इतना ही नहीं जब उनकी मां का देहांत हुआ तो अंतिम संस्कार में शामिल होने की अनुमति तक नहीं दी गई। साईंबाबा को देश में जारी दमनकारी वातावरण का प्रतीक बना गया है। इसलिए जब उनके खिलाफ मामला खारिज कर दिया गया, तो सर्वत्र खुशी जाहिर की गई। कुछ लोगों को महसूस हुआ कि न्याय की जीत हुई। कुछ लोगों को यह भी लगा कि अब उनकी तकलीफे दूर हो गई हैं। इस तरह सभी ने राहत की सांस ली। दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक के रूप में कार्यरत और उन्हें आजीवन कारावास की सजा से बरी किये जाने की खुशी में दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों और संकाय सदस्यों ने साईंबाबा के स्वागत के लिए एक बैठक आयोजित की। साईंबाबा के फैसले के तुरंत बाद महाराष्ट्र सरकार ने सबसे पहले सुप्रीम कोर्ट में मौखिक रोक लगाने की मांग की। रोक नहीं लगी। इसके बाद में सॉलिसिटर जनरल द्वारा एक याचिका दायर की गई और विशेष रूप से सुप्रीम कोर्ट से इस पर तुरंत सुनवाई करने का अनुरोध किया गया। नतीजा यह रहा कि अगले दिन छुट्टी होने के बावजूद महाराष्ट्र की याचिका पर दो जजों की बेंच ने सुनवाई की। सरकार के अनुरोध पर स्टे दे दिया गया। परिणामस्वरूप साईंबाबा रिहा नहीं हो सकें।
दिल्ली विश्वविद्यालय की सभा को पुलिस ने भंग कर दिया। फैसला और अपील की प्रक्रिया में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं है। साईंबाबा ने निचली अदालत के फैसले के खिलाफ भी अपील की जिसने उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। अगर हाई कोर्ट ने भी उम्रकैद की सजा बरकरार रखी होती तो वह सुप्रीम कोर्ट में भी अपील दायर करवाते थे। इसीलिए महाराष्ट्र सरकार भी फैसले खिलाफ अपील करना स्वाभाविक है। लेकिन इस पूरे क्रम में दिखाई देने वाली गति, तात्कालिकता और दुश्मनी अद्वितीय रही है। साईंबाबा को रिहा कर दिया गया होता और फिर अभियोजन पक्ष ने अपील की होती और मुकदमे की सुनवाई के दौरान फिर से गिरफ्तारी की गई होती तो कोई नई बात नहीं होती। लेकिन, अभियोजन पक्ष ने साईबाबा को एक पल के लिए भी मुक्त होने नहीं दिया। इससे पहले भी मुकदमे की सुनवाई के दौरान भी लगातार साईबाबा को नजरबंद रखा गया। दो बार जमानत मिली, लेकिन अभियोजन पक्ष ने उसे भी समाप्त कर दिया। यह नहीं कहा जा सकता है कि यह सब साईंबाबा के प्रति व्यक्तिगत गुस्से से किया गया। यह भी नहीं सोचा जा सकता है कि सरकार उन्हें अकेले देखकर डरती है। लेकिन यह साईं बाबा जैसे सभी लोगों के खिलाफ एक दुश्मनी के रूप में किया गया कठोर कदम और दमन है।
ऐसा लगता है कि एक संदेश को और कठिन संदेश के रूप में देने के लिए किया गया है। अभियोजन पक्ष का तर्क है कि एक विकलांग व्यक्ति, एक लाइलाज बीमार व्यक्ति, घर में नजरबंद रहने के लिए तैयार रहने पर भी वह समाज के लिए एक खतरा है। यदि शरीर अपंग हो जाता है, तो क्या फर्क पड़ता है। उसकी मेधा संपत्ति तो सामने आती ही रहती है। इस तरह मेधा संपत्ति बाहर आना भी एक खतरा है। बिलकिस बानो के साथ सामूहिक बलात्कार करने वाले अपराधियों ने बच्ची को जमीन पर पटक दिया और उसके परिवार के सदस्यों की निर्मम हत्या कर दी थी। ऐसे आरोपियों को उनके दिमाग और शरीर दोनों को रिहा कर दिया गया। पता नहीं है कि क्या उनके शरीर अपराध को दोहराने के लिए बेकार हो गए हैं जिसे आतंकवाद कहा जा सकता है या यदि उन्होंने अपराध को न दोहराने के लिए अलग दिमाग हासिल कर लिया है। उनकी रिहाई से सरकारों को कोई चिंता नहीं हुई। वाह क्या बात है, उनके अच्छे व्यवहार को देख केंद्र और राज्य सरकार ने रिहाई को मंजूरी दे दी और अनुमति दे दी और स्वतंत्र भारत के अमृतोत्सव के अवसर पर रिहा किया गया। गुजरात विश्व हिंदू परिषद ने इन ‘महान’ कैदियों को उनके महान कार्य के लिए जेल से रिहा होने पर फूलों की माला पहनाकर सम्मानित किया गया।
जब आप साईंबाबा को रिहा करने की हड़बड़ी देखेंगे तो बिलकिस बानो बलात्कारियों की कहानी आपके दिमाग में क्यों नहीं आएगी? दुनिया की नजरों में भारत की प्रतिष्ठा धूमिल होगी। साथ ही पीड़ितों के मन में कानून के शासन के बारे में परेशान करने वाले सवालों पर तत्काल विचार नहीं किया जाना और तर्कों की थैलियों के साथ गुजरात सरकार के पैंतरेबाज़ी का पलड़ा भारी हो गया। कोई बात नहीं, वे बलात्कारी नवंबर के अंत तक मुक्त हो सकते हैं। उसके अलावा और कुछ भी नहीं बचना चाहिए और बाकि सब कुछ रौंदने की संकल्प ले चुकी सरकार को कठोरता और दमन भी सकारात्मक मूल्य हो जाते है। क्रोध और असंतोष को दबाने के लिए संविधान अधिकार जब आड़े आते है तो प्रक्रिया को ही दंड में बदलने का एक तरीका है। पूर्व प्रधान न्यायाधीश ने उस रणनीति को पहचाना है! कानून के तहत सजा बढ़ाई जाए और सजा संभव न हो तो बिना जमानत के नजरबंदी सजा बन जाये! जब साईबाबा के खिलाफ मामला खारिज कर दिया गया, तो भोले भाले मन में सवाल खड़े हो गये कि निर्दोष तो हो गये, लेकिन उन्हें जो सजा भुगति है उसका मुआवजा कहां है? तात्पर्य यह है कि फैसले तो नाममात्र होते हैं। खारिज होने पर भी हकीकत यह है कि सजा जारी रहती है।
यह कठोरता सार्वभौमिक नहीं है। साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर को तो आप जानते ही होंगे, मालेगांव ब्लास्ट केस की आरोपी है। कोर्ट में वह हमेशा व्हीलचेयर पर देखाई देती थी। उसकी बीमारी को अभियोजन पक्ष ने सहानुभूतिपूर्वक समझ गये। उसके कबड्डी खेलने के वीडियो और बिना किसी बीमारी के उसके सक्रिय होने की तस्वीरें मीडिया में आईं, लेकिन उसके दिमाग और शरीर दोनों को हानिरहित माना गया। साथ ही साध्वी को राष्ट्रीय सत्तारूढ़ दल द्वारा नामित किया गया और संसद में भेजा गया। सरकारें यह भी जानती हैं कि किससे सहानुभूति रखनी है और किसके खिलाफ सख्ती से पेश आनी चाहिए। जब कठोरता एक राजनीतिक व्यवस्था हो जाती है, तो कठोर लोगों को अधिकार मिल ही जाता है। अपराध ही अधिकार बन जाने की प्रक्रिया चाहे कितनी भी विवादित क्यों न हो जाये, इसमें कोई आपत्ति नहीं है। देश पर कठोर पद्धति से राज करने की चाहत रखने वालों के लिए अप्रतिष्ठा भी एक हथियार हो जाता है।
एक दलित लड़की के साथ हुए बलात्कार और हत्या की रिपोर्ट दर्ज करने जा रहे एक पत्रकार को दो साल तक काले कानून ‘उपा’ के तहत बंदी बनाकर रखा गया। अब ताजा प्रतिष्ठित पुलित्जर पुरस्कार लेने के लिए अमिरेका जाना वाली कश्मीरी फोटो जर्नलिस्ट सना इरशाद को देश छोड़ने से दिल्ली हवाई अड्डे पर रोक दिया गया। कोविड-19 के दौरान कश्मीर जनजीवन की फोटोग्राफी करने के कारण उसे यह प्रसिद्धि और नजरबंद तोहफे में मिला है। इसे ही जीरो टॉलरेंस कहते हैं। जीरो टॉलरेंस आतंकवाद और उग्रवाद पर लगाएंगे, लेकिन यह पूरी तरह से असहिष्णुता लोकतंत्र और विपक्ष पर ही उपयोग करते है। लोगों को डरना चाहिए। अन्याय के खिलाफ सवाल करने और विस्थापितों के लिए न्याय की मांग करने वाले अर्बन नक्सली है। उन सभी को दूर रहना चाहिए। नहीं तो उन्हें बिना दया के जेल में डाल दिया जाएगा! इन सब को देखने के बाद लगता है कि क्या सरकारें नागरिक के दुश्मन बन सकती हैं?
– K Srinivas, Editor Andhra Jyothy