विशेष लेख : एक खोज है नवरात्र पर्व-3, जानें लौकिक जीवन के अर्थ और उसके तत्व

नवरात्र दो शब्दों से मिलकर बना है, नव + रात्रि = नवरात्र। लौकिक जीवन में और यहां तक कि वैज्ञानिक दृष्टि में भी रात्रि का अर्थ समझा जाता है “काल खण्ड”, “काल का एक अवयव”, किंतु “सनातन” चिंतन धारा में, अध्यात्म विद्या में रात्रि का अर्थ “दैवीय शक्ति” है, देवी है। वह कोई “काल खण्ड” या “काल” नहीं, “कालातीत” और काल की शासिका है। काल की “अधिष्ठात्री शक्ति” है, इसीलिए दैवीय है, देवी है, उपास्य है। इस देवी के आख्यान वैदिक भी है, पौराणिक भी; आध्यात्मिक भी हैं और लौकिक भी, नागर भी हैं, नितान्त देशज भी। यह श्लाघ्य, स्तुत्य हैं तो कहीं – कहीं विकृत, हिंसक और विभत्स भी। ऋग्वेद के सुप्रसिद्ध “नासदीय सूक्तम” से लेकर “वेदोक्त रात्रि सूक्तम”, अथर्ववेद के “श्रीदेव्यथशीर्षम”, तंत्रोक्त रात्रिसूक्तम” और विभिन्न मंत्रों, तंत्रों और यंत्रों में इसकी अभिव्यक्ति सर्वत्र द्रष्टव्य है। बहुआयामी लोकविख्यात इसी रात्रि शब्द में जब “नव” शब्द उपसर्ग बनकर जुड़ जाता है तब बनता है “नवरात्र”। अब नवरात्र का निहितार्थ हुआ; नवरात्र = नौ देवियां।

यदि विचार किया जाय कि इस रात्रि से नवरात्र के बीच जो कुछ भी घटित होता है, वह क्या है? वह है “परिवर्तन”। रात्रि देवी का “उषा देवी” और उषा देवी से “प्रभात”, दिवस, दिन, अंधकार का प्रकाश में परिवर्तन, दिनकर, दिनमान रूप में परिवर्तन, सर्व प्रकाशक सूर्य रूप में परिवर्तन…। रात्रि देवी का ही परिवर्तित रूप होने के कारण यह सूर्य नहीं “सूर्य देव” हैं। करुणा करके कृपालू होने के कारण जगतपालक, विश्वामित्र हैं, आदि चेतना से चेतान्वित होने के कारण चेतना (प्राण शक्ति) का आगर हैं। सूर्यदेव का ही दार्शनिक नाम “आदित्य” है जिसे जड़, चेतन सभी का “प्राण तत्व” कहा जाता है। उदित होकर यह आदित्य दशों दिशाओं में फैलकर सभी तत्वों के प्राणों को अपनी किरणों में धारण करता है, प्राण ऊर्जा का संचार करता है, उन्हें चेतान्वित, अनुप्राणित करता है।

उपनिषद ग्रंथ कहते हैं- अथादित्य उदयन्यत्प्राची दिशं प्रविशति तेन प्राच्यान प्राणान रश्मिषु संनिधत्ते। (प्रश्नोपनिषद 1.6) तथा सहस्र रश्मि: शतधा वर्तमान: प्राण: प्रजानामुदयत्येष सूर्य: (प्रश्नोपनिषद् 1.8) विज्ञान ने अपने अन्वेषणों से प्रमाणित किया है कि जगत और कुछ नहीं है, यह मात्र ऊर्जा और पदार्थ (मास एंड एनर्जी) का संघात है। विज्ञान जो कुछ आज कह रहा है उसके सहस्रों वर्ष पूर्व भारतीय मनीषा ने कहा था, यह अखिल ब्रह्मांड और कुछ नहीं प्राण और रयि है। प्राण का अर्थ चेतन ऊर्जा और रयि का अर्थ पदार्थ (सुषुप्त ऊर्जा) है। प्रश्नोपनिषद् का प्रथम प्रश्नोत्तर इसी की विषद व्याख्या प्रस्तुत करता है।

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अध्यात्म विद्या के आलोक में, आदित्य के प्रकाश में अबतक जो कुछ अंधेरे में अदृश्य, गुह्य, धुंध, धुंधलका था, वह कुहासा छंटने लगा। अब सबकुछ इंद्रिय गोचर हो दिखने लगा। यह परिवर्तन यत्र तत्र सर्वत्र, चराचार प्रकृति में भी स्पष्ट दिखने लगता है। रूप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द सभी तन्मात्रायें प्राणवान हो क्रियाशील होकर अब अनुभूत होने लगते हैं। प्रकृति भी प्रषुप्त से जाग्रत हो प्राणवान हो उठती है, रात्रि का घूंघट उठाते ही उषा रूप का मुग्धकारी सौंदर्यपान कर चिड़ियां चहचहाने लगती हैं, पुष्प मुस्कुराकर खिल उठते हैं, गुनगुनाती नदियां, कल कल कल करते झरने अपनी मनोरम शब्द ध्वनियों से गुंजित हो जाते हैं, फसलें, वनस्पतियां लहलहाकर झूम उठती हैं, जनजीवन भी गतिशील हो उठता है। रात्रि साधना के समय की गई प्रार्थना तमसो मा ज्योतिर्गमय का ही नवरात्र के रूप मे प्राकट्य है, अभिव्यक्ति है, प्रस्फुटन है; और विभिन्न त्यौहारों के रूप में उमंग-उल्लासमय प्रकटन भी –

प्रकृतिस्व च सर्वस्व गुणत्रय विभवानी।

कालरात्रि महारात्रि मोहरात्रि दारुणा।। (तंत्रोक्त रात्रिसूक्त 7)।

यहां कालरात्रि का अर्थ दीपावली, महारात्रि का अर्थ शिवरात्रि या अहोरात्रि, मोहरात्रि का अर्थ जन्माष्टमी और दारुणरात्रि का अर्थ है होली। इसके अतिरिक्त वर्ष में चार – चार नवरात्र, दो प्रकट (शारदीय, चैत्र) और दो गुप्त (आषाढ़, माघी)। इस प्रकार “रात्रि” और “नवरात्रि” का बहुत अधिक महत्व है और ये हमारे जनजीवन में बहुत गहराई तक रचे बसे हैं। साथ ही ये हमारे जीवन को परिचालित, परिवर्धित, परिवर्तित करते रहते हैं। इन परिवर्तनों को हम निम्न लिखित शीर्षकों में देख सकते हैं, समझ सकते हैं, वर्णित कर सकते हैं।

डॉ जयप्रकाश तिवारी
बलिया/लखनऊ, उत्तर प्रदेश
संपर्क सूत्र: 9453391020

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