प्रोफेसर देवराज की डायरी: कुतुबशाही की कहानी सुनाते लिपि भारद्वाज के कैमरा-चित्र, पढ़ें और देखें

4 अक्तूबर, 2024 : तीन दिन पहले इंडिया इंटेरनेशनल सैंटर में कमला देवी परिसर स्थित कला दीर्घा में ‘आगा खाँ ट्रस्ट फॉर कल्चर, हैदराबाद’ द्वारा ‘कुतुबशाही हेरिटेज गोलकोंडा, कंजर्विंग ए रॉयल नेक्रोपोलीज़’ शीर्षक फोटो-प्रदर्शनी देखने जाने के पहले शशि-माँ को सूचित किया, तो उनका उत्तर आया, “चित्र-प्रदर्शनी के सहृदय दर्शक को अद्भुत रसानुभूति होती है। कलावीथी से बाहर आते हुए अनुभव करोगे कि विविध विषयक नई जानकारियों के साथ-साथ मानो, दार्शनिक भी बन गए हो।” अच्छा हुआ कि शशि-माँ का यह मत प्रदर्शनी देख कर घर लौट आने के बाद पढ़ा, अन्यथा बुद्धि पर उसी की छाया पड़ी रहती।

आज वहीं सज्जाद शाहिद का ‘पोएट्री, म्युजिक, राइटिंग्स एंड सूफी प्रेक्टिसेज़ ऑफ कुतुबशाहीज’ विषय पर भाषण हुआ। सज्जाद शाहिद को हैदराबाद और कुतुबशाही का चलता- फिरता विश्वकोश कहा जा सकता है। उनके पास जानकारियों, विचारों और भावनाओं को साझा करने की अद्भुत कला है। वे ‘क्लासरूम-लेक्चर’ से बहुत ऊपर उठ कर विषय के एक के बाद एक परिप्रेक्ष्य को खोलते चले जाते हैं। उन्होंने जिस सहजता और सादगी से कविता, संगीत, सूफी परंपराओं और कुतुबशाही कला के अंतर्संबंध का विवेचन किया, वह अपने आप में अनूठा था।

प्रदर्शनी लिपि भारद्वाज के, विश्व प्रसिद्ध कुतुबशाही (हैदराबाद) के स्मारकों पर केंद्रित कैमरा-चित्रों की थी। लिपि ने फोटो-जर्नलिज़्म में उच्च शिक्षा प्राप्त की है और काफी समय से ‘आगा खाँ डवलपमेंट नेटवर्क’ के एक प्रमुख घटक ‘आगा खाँ ट्रस्ट फॉर कल्चर’ में काम करती हैं। इसकी वेबसाइट पर कहा गया है- हम मुस्लिम दुनिया की विविध संस्कृतियों के बारे में अधिक जानकारीपूर्ण समझ प्रदान करना चाहते हैं और यह प्रदर्शित करना चाहते हैं कि सांकृतिक अभिव्यक्ति के विभिन्न रूप विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। संस्था के इसी घोषित उद्देश्य के अंतर्गत पुरातात्विक महत्व के इस्लामी स्मारकों से जुड़ी परियोजनाओं में काम करते हुए वे एक समर्पित संस्कृतिकर्मी में बदल गई हैं। फोटो- जर्नलिज़्म वाला कैमरा-ज्ञान, कौशल और सौंदर्यबोध मिल कर लिपि भारद्वाज के इस नए रूप को तेजी से माँज रहे हैं।

कुतुबशाही दकन (दक्षिण) का एक प्रसिद्ध राजवंश था, जिसने सन् 1518 से 1687 तक शासन किया था। इस वंश का राजधानी नगर गोलकोंडा अपने समय में हीरों के व्यवसाय का भारत का सबसे पहला विश्व प्रसिद्ध केंद्र माना जाता था। इसी के नाम पर बने गोलकोंडा दुर्ग से कुतुबशाही शासक राजकाज का संचालन करते थे। कुतुबशाही वंश के पाँचवें शासक सुल्तान मुहम्मद कुली कुतुबशाह (1580-161) ने इस्लाम की दूसरी सहस्राब्दी प्रारंभ होने की स्मृति को चिरस्थाई बनाने के लिए सन् 1591 में मुसी नदी के दक्षिणी तट पर ‘हैदराबाद’ नगर की नींव रखी थी और सबसे पहली इमारत के रूप में ‘चारमीनार’ का निर्माण करवाया था। नगर का नाम भी राशिदून खलीफा परंपरा के चौथे खलीफा, अली इब्र अबी तालिब (जो ‘खलीफा हैदर’ के नाम से प्रसिद्ध थे) के नाम पर ‘हैदर आबाद’ रखा गया था, जो जल्दी ही हैदराबाद पुकारा जाने लगा। मुहम्मद कुली अरबी, फारसी, तेलुगु और रेख्ता (उर्दू) के अच्छे जानकार और शायर थे। उन्हें रेख्ता का पहला ‘साहबे दीवान’ होने का गौरव प्राप्त है। मुहम्मद कुली ने हैदराबाद की वास्तु-योजना के लिए ईरान से कुशल वास्तुविद आमंत्रित किए थे, जिन्होंने भारतीय वास्तु-शिल्प से प्रभाव ग्रहण करते हुए इस अद्भुत नगर की रचना की।

गोलकोंडा दुर्ग के बंजारा दरवाजे से लगभग एक किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में इब्राहीम बाग से घिरा हुआ एक स्मारक-स्थल है, जो ‘कुतुबशाही’ के नाम से प्रसिद्ध है। इसके परिसर में कुतुबशाही राजवंश के संस्थापक सुल्तान कुली कुतुब-उल-मुल्क सहित जमशेद कुली कुतुबशाह, सुभान कुली कुतुब शाह, इब्राहीम कुली कुतुबशाह वली, मुहम्मद कुली कुतुब शाह, सुल्तान मुहम्मद कुतुब शाह और अंतिम शासक अब्दुल्ला कुतुब शाह के मकबरे हैं। कुतुबशाही सुल्तानों के अतिरिक्त बेगमों, उनकी सहेलियों, सुल्तानों के प्रिय और प्रभावशाली ओहदेदारों आदि के मकबरे हैं। इनमें हयात बख्शी बेगम का मकबरा विशेष माना जाता है, जिससे जुड़ी ‘महान मस्जिद’ अपने पंद्रह गुंबदों और स्थापत्य के कारण चर्चा में रहती रही है। हयात बख्शी बेगम सुल्तान मुहम्मद कुली कुतुबशाह की पत्नी थीं।

इसी के साथ सुल्तान अब्दुल्ला कुतुबशाह की चहेती नर्तकी, ‘पेममती’ और सुल्तान मुहम्मद कुतुबशाह की पसंदीदा गायिका, ‘तारामती’ के स्मारक-स्थल भी बने हैं। पेममती के ही स्मारक-स्थल के निकट लगे एक शिलालेख पर उत्कीर्ण है, ‘पेममती अनंत काल से स्वर्ग का फूल थी।’ मकबरों और कब्रों के अतिरिक्त कुतुबशाही परिसर में जलापूर्ति के लिए छोटी-बड़ी बावड़ियाँ, गुसलखाने, बगीचे आदि बनाए गए थे। इन सभी स्मारकों के साथ कुछ रोचक बातें भी जुड़ी हुई हैं। सुल्तानों के मकबरों के महत्व और मान्यता के बारे में प्रसिद्ध है कि यदि कोई अपराधी वहाँ जाकर छिप जाता था, तो उसे न तो पकड़ा जा सकता था और न ही कोई दंड दिया जा सकता था। इसी प्रकार कुतुबशाही के बगीचों को ‘लगर-ए-फ़ैज़ अतहर’ (मनोरंजन का स्थान) कहा जाता था। वहाँ अक्सर शाम को नृत्य और संगीत के कार्यक्रमों के आयोजन और कभी-कभी नाटकों का मंचन किया जाता था। इन कार्यक्रमों में आम-प्रजा को बे-रोक-टोक शामिल होने की अनुमति थी।

कुतुबशाही के स्थापत्य में फारसी, भारतीय (जिसे हिंदू शैली भी कहा जाता है) और मध्य एशिया के कुछ अन्य देशों की स्थापत्य-शैलियों का सुंदर समन्वय है। स्तंभ, गुंबद, मीनारें और दीर्घाएँ देखते ही ध्यान खींचती हैं। नक्काशी बहुत बारीक है। आश्चर्यजनक ढंग से कुतुबशाही स्थापत्य में आभूषण-कला का चमत्कार दिखाई देता है। यदि दरवाजों के चित्र लेकर उन्हें उलट कर देखा जाए, तो पता चल जाता है कि उनके ऊपरी भाग को ‘हार’ के रूपाकार का बनाया गया है। उनके साथ गले और हाथ में पहने जाने वाले तथा केश-सज्जा के लिए सिर के अगले भाग से माथे तक लटके रहने वाले ‘टीके’ जैसे परंपरागत आभूषणों की आकृतियाँ दिखाई देती हैं। नक्काशी की एक और विशेषता हरे और नीले रंग की टाइल्स का प्रयोग है। यह ईरान, अजरबेजान और आर्मेनिया आदि के स्थापत्य से प्रेरित है।

उल्लेखनीय है कि टाइल्स का पहले-पहल निर्माण और प्रयोग इन्हीं भौगोलिक क्षेत्रों में हुआ था। कुतुबशाही और दकन का यह कला-वैभव सबसे पहले दिल्ली-आगरा के मुगल बादशाहों की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं का शिकार हुआ था। उसकी एक अलग कहानी है। आगे चल कर, चूने और अन्य निर्माण सामग्री से निर्मित संरचना पर समय, मौसम, निरंतर बढ़ती भीड़भाड़, हवा के गिरते स्तर आदि ने भी प्रभाव डाला। फल यह हुआ कि स्मारकों में दरारें पड़ने, ढाँचे की ऊपरी सतह के यहाँ-वहाँ से कमजोर पड़ जाने के कारण गड्ढे हो जाने, टाइलें टूटने या उखड़ जाने, छितरी-छितरी कालिख की पट्टियाँ पड़ जाने जैसी अनेक समस्याएँ उत्पन्न होने लगीं। जिन लोगों पर कुतुबशाही की देखभाल का जिम्मा रहा होगा, उन्होंने स्मारकों को गिरने से बचाने के लिए एक के बाद एक सीमेंट का प्रयोग किया।

इससे दरवाजों, मेहराबों और गुंबदों पर स्थापित सौंदर्य-आकृतियाँ नीचे दबती चली गईं। यह भी देखने में आया, कि इन स्मारकों की सुंदरता में चार चाँद लगाने के लिए जिन टाइलों का प्रयोग किया गया था, वे जब गिरने लगीं, तो किसी समारक के कोने में उनके टुकड़ों का ढेर लगा दिया गया। यद्यपि यह सब करने के पीछे उन लोगों की नीयत में कोई खोट नहीं था। यह उनके कला-बोध और कला के महत्व को समझने की सीमा थी। वे सिर्फ इतना ही सोच पाए होंगे कि किसी भी तरह ये स्मारक गिर कर नष्ट न हो जाएँ। सीमेंट ने अपनी मजबूती और पकड़ में भींच कर लंबे समय तक इन स्मारकों को खड़े भी रखा, लेकिन बार-बार सीमेंट की परतें चढ़ाए जाने से वे अपना मूल स्वरूप और सौंदर्य खोकर सीमेंट-प्लास्टर से ढके ढाँचों में बदलने लगे।

यह राजनीति, काल और मनुष्य की क्रूरता का कला के विरुद्ध हिंसक व्यवहार था, जिसमें मानव-भूलों से आहत प्रकृति के क्रोध ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कुतुबशाही के स्मारकों के जीर्णोद्धार की ओर सबसे पहले उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में सालारजंग तृतीय (नवाब मीर यूसुफ अली ख़ान) का ध्यान गया। उन्होंने इनके संरक्षण की दिशा में कुछ कार्य किया, लेकिन इसके लिए जिस गंभीरता की अपेक्षा थी, वह उस समय संभव नहीं हो पाई। कुतुबशाही के सभी स्मारकों के जीर्णोद्धार का वास्तविक और ठोस कार्य तेलंगाना राज्य पुरातत्व और संग्रहालय विभाग के आग्रह पर ‘आगा खाँ संस्कृति ट्रस्ट’ ने प्रारंभ किया। इस संस्था ने स्थापत्य, वास्तुशास्त्र, इतिहास और कला में विशेष ज्ञान तथा रुचि रखने वाले कार्यकर्ताओं को अपने साथ जोड़ कर उनके निर्देशन में कुशल और धैर्यशील शिल्पियों के माध्यम से स्मारकों का जीर्णोद्धार करके उन्हें उनके मूल स्वरूप में लाने का संकल्प किया। संस्था के संकल्प की सफलता लिपि भारद्वाज के कैमरा-चित्रों की इस प्रदर्शनी में दिल्ली वालों के सामने भी आई।

दो साल पहले हैदराबाद की यात्रा में कुतुबशाही जाना हुआ था। तब वहाँ कई स्मारकों के जीर्णोद्धार का काम चल रहा था। लिपि वहाँ थीं और उन्होंने अपने एक सहकर्मी सैफ सिद्दीकी (जो स्थापत्य कला के साथ ही शायरी में भी महारत रखते हैं) के साथ कई घंटे लगा कर बड़ी बारीकी से स्मारकों के इतिहास, महत्व तथा जीर्णोद्धार की प्रक्रिया को समझाया था। उस कला-यात्रा के जो अनुभव सँजो कर रख सका था, वे इस प्रदर्शनी में लिपि भारद्वाज के कला-विवेचन को अधिक गहराई से समझने में सहायता करते रहे। प्रदर्शनी में अनेक चित्र ऐसे थे, जिनमें जीर्णोद्धार की प्रक्रिया से गुजरते हुए, और जीर्णोद्धार के बाद अपनी मूल निर्माण- स्थिति को प्राप्त स्मारक एक ही चित्र में अगल-बगल दर्शाए गए थे। हैदराबाद में जिन शिल्पियों और उनके सहयोगी श्रमिकों को ढाँचे की पैड़ों पर चढ़े बहुत सँभल-सँभल कर, बड़े धीरे-धीरे छेनी-हथौड़ा चलाते अथवा शाम के समय सामान इधर से उधर ले जाते अथवा कुछ नीम अंधेरे में नहा कर श्रम-परिहार करते देखा था, उनमें से कुछ दिल्ली की प्रदर्शनी के चित्रों में उन्हीं पैड़ों पर बैठे थे, कुछ नीचे दूसरे कामों में भी लगे थे। उन्हें देख कर मुझे अपने हृदय की धड़कनें सुनाई-सी पड़ती लगने लगीं, जैसे कह रही हों, ‘अरे सुनो, यही तो था, इसे ही तो देखा था, जरा ठहरो, अभी इसकी छेनी की गुनगुनी आवाज कुछ कहेगी…।’

इन शिल्पियों और श्रमिकों के चेहरे वहाँ भी निकट से नहीं देख पाया था, यहाँ भी उनका पहचान में आना अति कठिन ही था, लेकिन पता नहीं क्यों दिल्ली में लग रहा था कि उन सबको पहचानता हूँ। लिपि भारद्वाज से उनके बारे में बातें करने लगा, तो पता चला कि ये शिल्पी साधारण अर्थ में श्रमकर्ता नहीं हैं, बल्कि ये एक परंपरा-प्रवाह का अंग हैं। इनमें से कुछ बंगाल से हैं, लेकिन अधिकांश राजस्थान से संबंध रखते हैं। राजस्थान में एक गाँव ऐसा है, जिसके अधिकतर रहवासी शिल्पी और शिल्प-श्रमिक हैं। स्मारकों को इतिहास की सूखी-मोटी काई के नीचे से साँस रोक कर उनके मूल रूप में ले आने में इन शिल्पियों और शिल्प-श्रमिकों की भूमिका एक अर्थ में पुरातत्व विशेषज्ञों से बहुत कम नहीं है। ये वस्तुत: संस्कृति के श्रम-सेवी हैं। दिल्ली में ऐसे चित्रों के सामने खड़े होना बहुत रोमांचित करने वाला अनुभव था।

शशि माँ को आशा रही होगी कि मैं लौट कर उनसे अपने अनुभव साझा करूँगा, लेकिन ऐसा नहीं हो सका, तो अगले दिन सुबह ही उन्होंने पूछ लिया, “चित्र प्रदर्शनी कैसी थी?” मैंने उत्तर दिया, “आपकी अनुभूति प्रदर्शनी से लौट कर देखी, लेकिन वहाँ अनुभव (दार्शनिक बन जाने वाली अनुभूति को छोड़ कर) वैसा ही होता रहा, जैसा आपने लिखा था। कला अंतर्गत को माँजने और शांति अनुभव कराने के साथ ही मन और मस्तिष्क को विचार-व्याकुल भी बनाती है। यह अप्रत्यक्ष रूप से मनुष्य को परंपरा-बोध के प्रति सजग बनाने वाली शक्ति है। विचार-व्याकुलता और परंपरा-बोध सांस्कृतिक-विवेक तथा सौंदर्य-बोध के साधन हैं। लिपि के कैमरा-चित्रों की इस प्रदर्शनी में यही लगा और पहले अर्जित कला-अनुभवों की पुष्टि हुई।

दरअसल, लिपि ने सांस्कृतिक दाय को दर्शाने की साधना में कैमरे से तूलिका का काम भी लिया है, रंगों का भी और कैनवास का भी। इस कलाकार के भीतर मौन के साथ ही भाषिक अभिव्यक्ति की भी कमाल की क्षमता है। इन सब कारणों से प्रदर्शनी अच्छी लगी। प्रदर्शनी के बारे में शशि-माँ मेरे कला-बोध की संकुचित सीमाओं को समझ गई थीं। उन्होंने दिलासा देते हुए कुछ ही घंटे बाद लिखा, “देवराज वास्तव में यह अकाट्य सत्य है कि कलाकृतियाँ शांतिप्रद होने के साथ-साथ मन-मस्तिष्क को विचार-व्याकुल भी बनाती हैं। इस प्रदर्शनी के लिपि-चित्रों की आधारभूमि भौतिक अधिक रही होगी, इसलिए दार्शनिक-दृष्टि दूर रही।

मुझे तो अनेक वर्ष पहले दिल्ली, लखनऊ और बेंगलुरु में देखे गए कुछेक कला-चित्रों की स्मृति जब-तब ‘दर्शन’ धरा पर ले जाती है।” उन्होंने अपनी उत्तर-टिप्पणी में ‘लिपि-चित्रों’ शब्दबंध को तारांकित कर दिया था। अंत में उसकी व्याख्या की, “वैसे भी मेरे मोबाइल पर इन्स्टाग्राम नहीं खुल पाया, इसलिए मैं इन चित्रों को तो समझ ही नहीं सकी हूँ। भुस में लठ मारना इसी को कहते हैं।” इसके साथ जड़ी थीं तीन हँसती इमोजियाँ। मैंने तो प्रदर्शनी में सभी चित्र पहले कलाकार, लिपि भारद्वाज के निर्देशन में और फिर एक बार अकेले घूमते हुए देखे थे, लेकिन शशि-माँ की दी हुई सीख के बाद सोचने लगा, क्या मैं कला के आंतरिक (और दैहिक) सत्य के निकट खड़ा भी हो पाया? क्षण भर के लिए ही सही? अंतर्मन ने सकारात्मक उत्तर नहीं दिया। चलते समय कला-दर्शक-बही में लिख आया था-

काल के
आग्रहों की अनपहचानी
अरूप धुंध के
नीचे से
संस्कृति को
रौशनी की पुकार
सुना कर
सबके बीच
ले आने की कोशिश
यह प्रदर्शनी,
एक यात्रा
मनुष्य को उसकी पहचान से
परिचित कराने वाली
विविध लिपियों की खोज की,
मेरे सामने भी
एक लिपि
बोलती-खिलती
संभावनाओं की !
विलक्षण अनुभव
यह प्रदर्शनी ।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Recent Posts

Recent Comments

    Archives

    Categories

    Meta

    'तेलंगाना समाचार' में आपके विज्ञापन के लिए संपर्क करें

    X