अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस पर विशेष : शारीरिक श्रम के प्रति बढ़ती उदासीनता

वर्तमान युग कम्प्यूटर का युग है। अणु-परमाणु का युग है। जो कार्य मानव-श्रम से संभव नहीं है वह मशीनों के द्वारा अल्प समय में सुगमता से किया जा सकता है। मशीनों और कम्प्यूटर पर आदमी की निर्भरता दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है। इससे जहां एक ओर कार्य आसान हुआ है, वहीं दूसरी ओर मानव की श्रम के प्रति उदासीनता भी बढ़ी है। इसका प्रभाव शहरी और ग्रामीण दोनों ही क्षेत्रों में देखा जा सकता है।

जैसे-जैसे जनसंख्या में वृद्धि हो रही है, वैसे- वैसे ग्रामीण लोगों में शहरों के प्रति आकर्षण भी बढ़ रहा है। शिक्षा के प्रति जागरुकता और रोजगार की खोज, ये दो ऐसे कारक हैं, जो ग्रामीण युवा को शहर की ओर खींच रहे हैं। जो ग्रामीण परिवार पहले पूर्णतः कृषि और पशुपालन पर आधारित थे, वे शिक्षित होने पर इन परम्परागत और पैतृक कार्यों को त्याग कर शहर में नौकरी की तलाश में निकल पड़े हैं: क्योंकि ये दोनों ही कार्य श्रम प्रधान हैं। और आज का शिक्षित युवा शारीरिक श्रम को हीन भावना से देखता है। उन्हें यह लगने लगा है कि शहर में उनका भविष्य उज्ज्वल है। जबकि सच्चाई यह है कि निज का परम्परागत व्यवसाय या कार्य व्यक्ति को स्वावलम्बी बनाता है और नौकरी करने का मतलब है, किसी के अधीनस्थ होकर कार्य करना। फिर हम यह कदापि नहीं कह सकते कि ‘स्वावलम्ब की एक झलक पर न्यौछावर कुबेर का कोष।’

आज स्थिति यह है कि जो युवा कृषि कार्य कर भी रहे हैं, वे भी शारीरिक श्रमवाले कार्य जैसे फसल की बुवाई, कटाई और माल ढुलाई आदि मशीनों की सहायता से करने लगे हैं। हाथ से और पशुओं की सहायता से किये जाने वाले कार्य अब मशीनों द्वारा किये जाने लगे हैं। जैविक खेती की जगह रासायनिक खेती होने लगी है।

शहरी क्षेत्र में भी कार्यालयों की कार्यप्रणाली में जबरदस्त परिवर्तन आया है। पहले बहीखाता और लेखा पद्धति का सम्पूर्ण कार्य मानव मस्तिष्क द्वारा और हस्तलिपि में होता था। आज आंकड़ों के संग्रहण के लिए मानव मस्तिष्क की जगह केलकुलेटर ने और हस्तलिपि की जगह कम्प्यूटर ने ले ली है। आज हरेक कार्यालय में कम्प्यूटर लगे हुए हैं। मनुष्य इनका इस कदर गुलाम होता जा रहा है कि उसने अपने दिमाग और हस्तकौशल का उपयोग करना ही छोड़ दिया है। आज की स्थिति यह है कि अगर गणित के एक अध्यापक से आप बच्चे के अंकों का प्रतिशत जानना चाहें, तो वह अपने विवेक से नहीं अपितु केलकुलेटर से गणना करके ही आपको जवाब देगा।

यह स्थिति हमारी युवा पीढ़ी के लिए तो खतरनाक है ही, सबसे ज्यादा बच्चों के विकसित होते दिमाग के लिए घातक है। अगर आपको रोज परोसी हुई थाली मिल जाए, तो आप खाना बनाने की विधि क्यों सीखेंगे? कुछ-कुछ यही हाल हमारी युवा पीढ़ी का हो रहा है। उसने मशीनी निर्भरता को इस हद तक अपना लिया है कि अपने स्व-विवेक और बुद्धि का उपयोग करना ही बन्द कर दिया है। जिस दिन उससे यह मशीनें छिन जाएंगी, उस दिन वह बिना बैटरी के निर्जीव खिलौने के समान बन जाएगा।

आज हम प्रतिवर्ष अंतरराष्ट्रीय श्रम-दिवस का आयोजन करते हैं, लेकिन क्या कभी किसी ने श्रम के रचनात्मक पहलू की तरफ आपका ध्यान आकृष्ट किया है? आज छोटे-से छोटे बच्चे से लेकर युवाओं में और यहां तक कि गृहिणियों में भी श्रम के प्रति उदासीनता बढ़ती जा रही है। जो कार्य हमारी दादी-नानी हाथ से करती थीं, वो सब हम मशीनों से करने लगे हैं और इसके दुष्परिणाम भी हमारे सामने आने लगे हैं। शारीरिक श्रम की उपेक्षा करने पर सबसे पहले मोटापा बढ़ता है जो कई बीमारियों को निमंत्रण देता है जैसे- उच्च रक्तचाप, मधुमेह, कोलेस्ट्रोल में वृद्धि और हृदय रोग आदि। आज बच्चे भी इन बीमारियों से ग्रस्त होने लगे हैं, क्योंकि फास्ट-फूड के प्रति दीवानापन बढ़ता जा रहा है। सप्ताह में दो-तीन दिन स्वीगी और जोमैटो पर ही खाना ऑर्डर किया जा रहा है।

हम स्वयं ही अनचाहे रूप में बच्चों को ये बीमारियां तोहफे के रूप में दे रहे हैं। अतः आवश्यकता इस बात की है कि गृहिणियां खाना घर पर अपने हाथ से बनायें और बच्चों में घर के खाने के प्रति रुचि जागृत करें तथा उन्हें भी छोटे-छोटे काम सिखाकर श्रम के प्रति उत्साह पैदा करें। और तो और, अब तो दैनिक उपयोग में काम आने वाली चीजें जैसे – दूध, फल और सब्जियां भी लोग ऑनलाइन मंगा रहे हैं। नहीं तो हमारे अभिभावक रोज सुबह ताज़ा दूध दुहाकर लाते थे और सब्जियां भी ताज़ा ही खरीद कर लाते थे। इन सब कार्यों के लिए वे किसी भी वाहन का प्रयोग नहीं करते थे बल्कि पैदल ही आते-जाते थे। इसी कारण वे सदैव स्वस्थ रहते थे। अब तो 12-13 साल के बच्चे को ही मां-बाप साइकिल की जगह स्कूटी पकड़ा देते हैं, जो किसी भी दृष्टि से सही नहीं है।

अतः कोई भी दिवस मनाने की सार्थकता तभी है, जब हम उसे मात्र औपचारिकता निभाने के लिए नहीं अपितु उससे कुछ ग्रहण करने के लिए मनाएं, उसकी महिमा प्रतिपादित करें और आज हर वर्ग में श्रम के प्रति जो उदासीनता और हीन भावना बढ़ रही है, उसे रोकें और श्रम के प्रति बच्चों एवं युवाओं में चेतना जागृत करें। जहां तक सम्भव हो, अपना काम स्वयं करें। दूसरों पर आश्रित न रहें, तभी श्रम-दिवस मनाने की सार्थकता है।

सरिता सुराणा
स्वतंत्र पत्रकार एवं लेखिका
हैदराबाद sarritasurana@gmail.com

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