पिताजी की पुण्यतिथि 16 अप्रेल पर उनके बारे में कुछ लिखने का मुझसे आग्रह किया गया। सर्वप्रथम मैं स्वयं को इस योग्य नहीं मानती कि, मैं श्री मुनीन्द्र जी जैसे निस्वार्थ स्वतंत्रता-सेनानी मूक हिंदी सेवी, जुझारू और कर्मठ पत्रकार और एक मित भाषी साहित्य-मर्मज्ञ के बारे में कुछ लिख सकूँ। किंतु अग्रजों का आग्रह है और मेरी लेखनी पर पितजी की अमिट छाप है, अतः यह धृष्टता करने का साहस कर पा रही हूँ।
सुबह चार बजे एक स्नेहिल कंठ और मृदु स्वर से मेरी नींद खुलती थी-“बेलुज उठो चार बज गए”। आलस्यवश मै आँखें बंद करके नींद में होने का नाटक करती हूँ। सवा चार बजे फिर वही स्वर- “उठीं या नहीं”, मैं निःशब्द। साढ़े चार बजे दुबारा, लेकिन उस स्वर में स्नेह कम, सख्ती ज्यादा होती- बेलुज उठो, डुमिनिअन फर्स्ट आना है न तुमको! इस तरह अंग्रेजी के सिंपल प्रेजेंट टेंस से फ्यूचर टेंस के फार्मूलों से मेरी दिनचर्या आरंभ होती। मुझे कोफ्त होती कि, जब ये सब मेरे नौवीं के पाठ्यक्रम में हैं ही नहीं तो पप्पा क्यों यह सब पढाते हैं। उनका एक ही जवाब होता- पढ़ाई केवल एक कक्षा तक सीमित नहीं होती ये सब तुम्हें आगे बहुत काम आएगा। सच में भाषा प्रशिक्षण से जुड़ने के बाद उनके इन शब्दों की सार्थकता का आभास हुआ।
अक्सर पप्पा मुझे सुबह आपने साथ सुबह की सैर पर ले जाया करते-रामकोट से निजाम कॉलेज तक। रास्ते में जितनी इमारतें, जितने मोहल्ले पड़ते उन सबके नाम और इतिहास बताते चलते। साथ-साथ बिहार के अपने अनुभव भी। आज भी जब मैं अपने बच्चों के साथ उन रास्तों से गुजरती हूँ तो पप्पा के ही शब्द दोहराती हूँ।
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पत्रकारिता के प्रति पप्पा का प्रेम उनके विद्यार्थी जीवन से ही प्रकट होने लगा। वे बिहार विद्यापीठ (सदाकत आश्रम) के विद्यार्थी थे। उन दिनों वहाँ से एक हस्तलिखित पत्रिका तैयार की जाती थी। पप्पा ने प्रधानाचार्य से उस पत्रिका से जुड़ने की इच्छा प्रकट की तो उन्होंने कहा कि, उस पत्रिका से जुड़ने के लिए उन्हें एक परीक्षा उत्तीर्ण करनी होगी। पप्पा ने परीक्षा उत्तीर्ण की बस तभी से उनका पत्रकार-जीवन आरंभ हो गया। स्वतंत्रता-संग्राम के अंतिम दौर में, अर्थात् भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने हेतु वे गया चले गए और आंदोलन-सामग्री को हिंदी में छापने और वितरित करने का कार्य करने लगे।
पप्पा ने अर्थशास्त्र विषय में बी.ए. ऑनर्स तक पढ़ाई की, आखरी शिक्षा पटना कॉलेज से की। ज्ञान-विस्तार के लिए उन्होंने कॉलेज की शिक्षा हेतु अंग्रेजी-माध्यम अपनाया। पटना कालेज के टापर थे।
हैदराबाद के प्रतिष्ठित एवं गणमान्य पत्रकार व साहित्यकार स्व श्री बदरीविशाल पित्ती के बुलावे पर पप्पा 1950 में यहाँ आ गए। “कल्पना” का प्रकाशन तब आरंभ ही हुआ था। शायद उसका पहला ही अंक प्रकाशित हुआ था। पप्पा की भाषायी-शुद्धता और पत्रकारिता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को देखकर उन्हें संपादक मंडल में शामिल कर लिया गया। उन्होंने “कल्पना” को तत्कालीन साहित्य-जगत में उसके शिखर तक पहुँचाया इस दौरान “कल्पना” द्वारा कई मूर्धन्य साहित्यकारों, कलाकारों और भाषाविदों का उद्भव किया गया।
कुछ तकनीकी कारणों से 1978 में “कल्पना” का प्रकाशन बंद कर दिया गया। कुछ परिचितों के आग्रह पर 700 की पाठक संख्या के साथ 1979 में पप्पा ने हैदराबाद समाचार का प्रकाशन आरंभ किया। कालांतर में इस साप्ताहिक-पत्र की लोकप्रियता और व्यापकता के बलबूते इसका नाम “दक्षिण समाचार” कर दिया गया। व्यावसायिक आधार न होने के कारण “दक्षिण समाचार” को प्रायः वित्तीय संकट से जूझना पड़ता। पत्र की छपाई, डाक-टिकट और कागजादि का सारा खर्च उसके वार्षिक और मासिक चंदे पर ही निर्भर करता। हाथ की तंगी के चलते माताजी कभी-कभी खीझ उठतीं और इस पत्र को बंद करने की सलाह देती तो एक बार पप्पा ने कहा था – यह साप्ताहिक हमारा मानस-पुत्र है; हमारे जीते जी यह बंद नहीं हो सकता। पप्पा के इस शौक के लिए माताजी की मौन स्वीकृति थी, भले ही वे विचलित हो जाती लेकिन अक्सर अपने वेतन से भी इसे चलाने में अपरोक्ष रूप से मदद अवश्य करतीं।
आज के समाज में जब मैं सामर्थ्यवान , आर्थिक रूप से सम्पन्न व्यक्तियों की पत्नियों को पति की दुहाई देते हुए देखती हूँ तो अनायास माँ की याद आ जाती है। पप्पा को मेहमान नवाजी का बेहद चाव था। चारकमान वाले घर बड़े-बड़े साहित्यकारों का मानो तांता लगा रहता। सप्ताहांत में हमारी छत पर कवि गोष्ठियाँ जमतीं, भोजन का दौर चलता। माताजी, बिना किसी शिकायत के मेहमान नवाजी में जुटी रहतीं। उस समय मैं काफी छोटी थी इन सब बातों की धुंधली से यादें मेरे मन में अंकित हैं। अब लगता है कि, पप्पा और माँ एक-दूसरे के पूरक थे। अगर करुणावती जी पत्नी रूप में नहीं मिलती तो शायद एम पी सिन्हा, मुनीन्द्र जी न बन पाते।
पप्पा अन्याय और अत्याचार के खिलाफ लड़ने वाले और सामाजिक न्याय के लिए आवाज उठाने वाले पत्रकार थे। वे कभी यह नहीं सोचते थे कि, देश ने उनको क्या दिया है बल्कि यह सोचते कि, उन्होंने देश को क्या दिया या दे सकते हैं। उनके व्यक्तित्व पर महात्मा गाँधी, जयप्रकाश नरायण से ज्यादा प्रभाव डा राम मनोहर लोहिया का दिखाई पड़ता था। हम जानते हैं कि राम मनोहर लोहिया का अनुसरण करना नाकों चने चबाने के बराबर है।
हिंदी को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाने वाले हिंदीतर भाषी उन्हें विशेष रूप से प्रिय थे। उनकी रचनाओं को छापने के लिए वे सदैव तत्पर रहते। इसी कारण दक्षिण समाचार का एक विशिष्ट पाठक वर्ग तैयार हो गया जो देश भर में फैला है।
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एक पिता के तौर पर पप्पा का व्यवहार हम चारों भाई-बहनों के साथ अत्यंत अनुशासित और मर्यादित हुआ करता। गर्मी की छुट्टियों में जहाँ अन्य परिवारों के बच्चे अपने ननिहाल या ददिहाल चले जाते वहीं हम दक्षिण समाचार के गाँधी भवन स्थित कार्यालय में पेपर के काम में हाथ बंटाया करते। प्रूफ रीडिंग से लेकर
पते लिखने और पेपर फोल्ड कर उस पर टिकट चिपकाने का काम हम भाई-बहन बड़े मनोयोग से करते। प्रूफ रीडिंग में एक-एक अनुस्वार, कोलन, सेमीकोलन आदि पर पप्पा बड़ी बारीकी से ध्यान दिया करते। उस समय तो यह सब व्यर्थ लगता लेकिन आज उन सब बातों की उपादेयता पता चलती है।
माता-पिता दोनों ही ने हमें हर प्रकार की स्वतंत्रता दे रखी थी। पढ़ने-लिखने, घूमने-फिरने, मित्रों को घर पर आमंत्रित करने अथवा उनके घर में आने जाने पर कोई पाबंदी नहीं थी।
1977 में चारकमान का घर छोड़कर हम रामकोट वाले मकान में आ गए। मेहमानों और मित्रों का तांता यहाँ भी लगा रहता। यहाँ आने के बाद माताजी का स्वास्थ्य गिरने लगा। 29 नवंबर,1983 को माँ चल बसीं। चूँकि उनका निधन सूर्यास्त के बाद हुआ था, दाह संस्कार अगले दिन किया जाने वाला था। सारी रात हम रोते-बिलखते बच्चों के समक्ष वे तटस्थ भाव से बैठे रहे। मुझे बुरा भी लगा कि इनकी आँखों में नमीं क्यों नहीं है? अगले दिन ग्यारह बजे के आसपास जब वे ड्राइंग रूम में पप्पा संबंधियों से घिरे बैठे थे मैं उनके पास जाकर बैठ गई अचानक मुझे गले से लगाकर वे बिलख पड़े। मैंने पहली बार उन्हें टूटते हुए देखा।
जीवन साथी के वियोग में, विशेष कर वृद्धावस्था में व्यक्ति टूट जाता है। उसका जीवन अस्त-व्यस्त और पराधीन व पराश्रित होकर रह जाता है किंतु पप्पा इसके अपवाद रहे। उन्होंने स्वयं को संभाला तथा विभिन्न महत्वपूर्ण कार्यों में अपने आप को व्यस्त रखा । वस्तुतः उनके “मानस पुत्र” दक्षिण समाचार ने ही उन्हें टूटने से बचाया।
एक बार किसी ने उनके प्रिय भोजन के बारे में पूछ-मुस्कुरा कर पप्पा ने कहा भाषा की छोटी सी गलती भी मैं नहीं पचा पाता लेकिन खाना अधपका भी मिल जाए तो हजम कर लेता हूँ। आशय यह कि प्रत्येक स्थिति में वे उसके अनुसार खुद को ढाल लेते-कोई शिकवा नहीं, कोई शिकायत नहीं-यह उनकी बहुत बड़ी विशेषता थी।
एक प्रसंग यहाँ उद्घृत करना चाहूँगी-शादी के अगले दिन जब मैं पगफेरे के लिए मायके आई तो विदा करते समय जहाँ भाई-भाभियों ने गहने, कपड़े उपहार स्वरूप दिए वहीं दूसरी ओर पप्पा हम नवदंपत्ति को अंदर के कक्ष में ले गए और लाल कपड़े में लिपटा तोहफा हमारे हाथ में रखा। उसे खोला तो उसमें रामचरित मानस था। पप्पा ने सजल नेत्रों से मुझसे कहा कि-हमेशा इसका अनुपालन करना। उसी दिन से “राम” मेरे ‘इष्ट देव’ बन गए।
हालाँकि मैंने पप्पा को कभी मंदिर जाते अथवा पूजा करते नहीं देखा, परंतु रामायण उन्हें कंठस्थ थी। गीता के समस्त अध्याय उन्हें याद थे। वे सरल वृत्ति के आर्यसमाजी थे- निराडंबर और निरंकुश। वे शुद्ध शाकाहारी,, मितव्ययी और मितभाषी थे। गांधी, खादी और हिंदी इन तीनों तत्वों को अपनाते हुए वे अतुलनीय मानसिक क्षमता के प्रतीक थे। वृद्धावस्था में जब वे घुटनों के दर्द से कराहते तो उनके मुँह से ‘हे राम’ निकलता।
एक बार मैंने उनसे पूछा था-आप जिस राम को याद करते हैं क्या वह दशरथ पुत्र राम हैं ? उन्होंने हँसकर कहा- जो हममे रम जाए वही राम है। कबीर के राम हो, या दशरथ पुत्र क्या फर्क पड़ता है। उन्होंने कभी माता जी को अथवा हम चारों भाई-बहनों को पूजा-पाठ करने अथवा मंदिर जाने से नहीं रोका और न ही सामिष भोजन करने से। वे धर्मनिरपेक्ष थे। एक बार उनसे किसी ने पूछा आप अकेले इतना काम
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कैसे कर लेते हैं। पप्पा बोले कर्म से मैँ सनातनी हूँ। ब्रह्म मुहूर्त में 3.30 बजे उठ जाता हूँ। अखबार का काम करता हूँ और 6.00 बजे एक झपकी ले लेता हूँ। ताकि दिन भर मेरी स्फूर्ति बनी रहे।
1989 में जब पप्पा को पत्रकारिता में योगदान के लिए गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार से सम्मानित किया गया तब मुझे उनके साथ आगरा जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वहाँ भरे सभागार में उप राष्ट्रपति के समक्ष मैंने पहली बार उनको मंच पर बोलते हुए सुना। उनके शब्द व भाव मन की गहराई में आज भी
अंकित है। खुले मंच से उन्होंने हिंदी को समृद्ध बनाने के लिए दक्षिणी भाषा के शब्दों को अपनाने का सुझाव दिया। Response के लिए हिंदी में प्रतिक्रिया शब्द प्रयुक्त हुआ करता। जिसका अर्थ रीएक्शन भी होता है। जब कि मराठी में Response के लिए प्रतिसाद शब्द है। बस दक्षिण समाचार में प्रतिसाद शब्द का प्रयोग आरंभ कर दिया गया। आज कई हिंदी लेखों आदि में यह शब्द देखती हूँ तो अच्छा लगता है। उसी प्रकार तेलुगु में महासचिव शब्द के लिए कार्यदर्शी शब्द का प्रयोग होता है। पप्पा को यह शब्द हिंदी के निकट दिखाई दिया और उन्होंने अपने संपादकीय में कार्यदर्शी शब्द का प्रयोग आरंभ कर दिया।
गांधी भवन के तत्कालीन प्रबंधक स्व काटम जी से पप्पा की काफी निकटता थी। एक बार काटम जी ने पूछा मुनीन्द्र जी, आखिर आप किस जाति के हैं- जैनियों में जितने लोकप्रिय हैं, मारवाड़ियों के बीच भी उतने ही मशहूर, मुसलमानों के भी चहेते हैं। आखिर आपकी पहचान क्या है? जवाब मिला सबसे पहले मैं एक हिंदुस्तानी हूँ। वैसे, मैं बिहारी लाला (कायस्थ) हूँ। चित्रगुप्त का वंशज हूँ। गांधी जी का अनुयायी”। पप्पा के अनुसार गांधी जी का भारत में तो क्या पूरी दुनिया में कोई विकल्प नहीं हो सकता। उनकी देखने की, समझने की दृष्टि एकदम सही थी। उनकी दृष्टि में गांधी का अपरिग्रह कई समस्याओं का समाधान हो सकता था।
जीवन के उत्तरार्द्ध में पप्पा ने तेलुगु सीखने के लिए ट्यूशन लेना आरंभ किया-उनका मानना था कि, जीवन क्षण भंगुर है इसमें जितना ज्ञान समेट लिया जाए उतना कम है। अपने आप में हिंदी की एक संस्था, एक आंदोलन, एक प्रकाश स्तंभ थे पप्पा।
निराडंबर पत्रकारिता का जो रूप उन्होंने स्थापित किया, वह अपूर्व है। कोई दावा नहीं, कोई बड़ी घोषणा नहीं, किसी विचार धारा का कोई दंभ नहीं न किसी राजनीतिक दल की अनुगामिता। उनका केवल एक ही आग्रह था हिंदी शुद्ध लिखी जानी चाहिए और सभी भारतीय भाषाओं को समान सम्मान दिया जाना चाहिए।
अब आगे और क्या लिखूँ- बार-बार शब्दों पर भावनाएँ हावी हो जाती हैं, आँखें नम हो जाती हैं, पप्पा जैसे बहुआयामी और विशद व्यक्तित्व को एक लेख या निबंध में सीमित करना कठिन काम है। इसे प्रकृति का विचित्र संयोग ही कहेंगे कि, ब्रह्म मुहुर्त में उठकर संपादकीय लिखने के अभ्यस्त मनीषी 2010 में उसी ब्रह्म मुहूर्त (लगभग प्रातः साढ़े तीन बजे) में चिर निद्र में लीन हो गए। उनकी पुण्यतिथि पर यदि मेरी लेखनी उनके व्यक्तित्व के सौवें अंश को छू पाई है तो स्वयं को धन्य समझूँगी।
अनुज नीरज कुमार के सफल संपादन में “दक्षिण समाचार” अपने प्रकाशन के 52वें वर्ष में प्रवेश कर चुका है। पत्र की गरिमा बनाये रखने का सतत प्रयास जारी है।
अंत में यही कहूँगीः-
अगर दोबारा मुझे यह जहाँ मिले
तो यही माँ और यही पिता मिले !
श्रीमती बेला कक्कड उप निदेशक, हिंदी शिक्षण योजना गृह मंत्रालय भारत सरकार, सी जी ओ टावर्स कवाडी गुडा ,सिकंदराबाद