हैदराबाद : तेलंगाना के रामप्पा मंदिर को विश्व धरोहर का दर्जा मिला है। इस अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तेलंगाना के रामप्पा मंदिर को विश्व धरोहर का दर्जा दिए जाने के अवसर पर बधाई दी हैं। मुख्य रूप स तेलंगाना के लोगों को विशेष रूप से बधाई दी हैं।
मोदी ने ट्वीट संदेश में कहा, “मैं चाहता हूं कि आप सभी काकतीय राजवंश के अद्भुत शिल्प कौशल को प्रदर्शित करने वाले मंदिर के दर्शन करें और इसकी महानता का पहला अनुभव प्राप्त करें।”
मुलुगु जिले में रामप्पा रुद्रेश्वर मंदिर काकतीय कला वैभव का प्रतीक है। विश्व धरोहर समिति (यूनेस्को) ने रामप्पा मंदिर को विश्व धरोहर स्थल घोषित किया है। रामप्पा व रंगल जिले के मुख्यालय से लगभग 70 किमी दूर मुलुगु जिले के पालमपेटा गांव में स्थित है।
आपको बता दें कि काकतीय वंश के राजाओं का शासन आधुनिक समय के प्रसिद्ध शहर हैदराबाद के पूर्वी भाग तेलंगाना में था। कल्याणी के चालुक्य वंश के उत्कर्ष काल में काकतीय वंश के राजा चालुक्यों के सामन्तों के रूप में अपने राज्य का शासन करते थे। चालुक्य वंश के पतन के बाद चोल द्वितीय एवं रुद्र प्रथम ने काकतीय राजवंश की स्थापना की थी।
काकतीयों की शक्ति प्रोलराज द्वितीय के समय विशेष बढ़ी। उसके पौत्र गणपति ने दक्षिण में कांटी तक अपने साम्राज्य का विस्तार किया। गणपति की कन्या रुद्रंमा इतिहास में प्रसिद्ध हो गई है। उसकी शासननीति के प्रभाव से काकतीय साम्राज्य की समुन्नति हुई। वेनिस के यात्री मार्को पोलो रुद्रंमा की बड़ी सराहना की है।
प्रतापरुद्रेव प्रथम और द्वितीय काकतीय राजाओं को दिल्ली के सुल्तानों के खिलाफ भी संघर्ष करना पड़ा। अलाउद्दीन खिलजी द्वारा भेजी सेना को 1303 ईसवीं में काकतीय प्रतापरुद्रदेव से हारकर लौटना पड़ा। चार वर्ष बाद यादवों द्वारा पराजित करवे से उत्साहित होकर मुसलमान फिर काकतीय नरेश पर चढ़ आए। सुल्तान का उद्देश्य वरंगल के राज्य को दिल्ली की सल्तनत में मिलाना न था। प्रतापरुद्रदेव द्वारा अपना आधिपत्य स्वीकार कराना और उसका अमित धन स्वायत्त करना चाहता था। उसने अपने सेनापति मलिक काफूर को आदेश भी दिया कि यदि काकतीय राजा उसकी शर्तें मान लें तो उसे वह बहुत परेशान न करे।
प्रतापरुद्रदेव ने वरंगल के किले में बैठकर मलिक काफूर का सामना किया। सफल घेरा डाल काफूर ने काकतीय नरेश को 1310 में संधि करने पर मजबूर किया। मलिक काफूर को काककीय राजा से भेंट में 100 हाथी, 7,000 घोड़े और अनंत रत्न तथा ढाले हुए सिक्के मिले। इसके अतिरिक्त राजा ने दिल्ली के सुल्तान को वार्षिक कर देना भी स्वीकार किया। अलाउद्दीन की मृत्यु पर फैली अराजकता के समय प्रतापरुद्रदेव द्वितीय ने वार्षिक कर देना बंद कर दिया और अपने राज्य की सीमाएँ भी पर्याप्त बढ़ा लीं। शीघ्र ही तुग्लक वंश के पहले सुल्तान गयासुद्दीन ने अपने बेटे मुहम्मद जौना को सेना देकर वरंगल जीतने भेजा।
जौना ने वरंगल के किले पर घेरा डाल दिया और हिंदुओं ने जी तोड़कर उसका सामना किया तो उसे बाध्य होकर दिल्ली लौटना पड़ा। चार महीने बाद सुल्तान ने वरंगल पर फिर आक्रमण किया। घमासान युद्ध के बाद काकतीय नरेश ने अपने परिवार और सरदारों के साथ आत्मसमर्पण कर दिया। राजा दिल्ली भेज दिया गया और काकतीय राज्य पर दिल्ली का अधिकार हो गया।
जौना ने वरंगल का सुल्तानपुर नाम से नया नामकरण किया। वैसे काकतीय राज्य दिल्ली की सल्तनत में मिला तो नहीं लिया गया पर उसकी शक्ति सर्वथा टूट गई और उसके पिछले काल में राजा श्रीविहीन हो गए। वरंगल की पिछले काल की रानी रुद्रम्मा ने तेलंगाना को शक्ति तो नहीं पर शालीनता निश्चय प्रदान की जब अपनी अस्मत पर हाथ लगाने का साहस करनेवाले मुसलमान नवाब के उसने छक्के छुड़ा दिए। तेलंगाना का अधिकतर भाग निजाम के अधिकार में रहा है और उसकी राजधानी वरंगल रही है।