काकतीय वैभव सप्ताह समारोह सोमवार से, 800 साल बाद आ रहा है वंशज, जानिए कौन है और क्या करता है…

[नोट- यह लेख हमने तेलुगु दैनिक आंध्रज्योति में 6 जुलाई को प्रकाशित अंक से लिया है। विश्वास है पाठक इसे पढ़कर अच्छी जानकारी से अवगत होंगे। हम लेख के लेखक कन्नेकंटि वेंकटरमण के प्रति आभार व्यक्त करते है।]

ऐतिहासिक शहर वरंगल में 7 जुलाई (गुरुवार) से तेलंगाना सरकार की ओर से आयोजित काकतीय वैभव सप्ताह समारोह जा रहा है। इस समारोह में विशेष अतिथि के रूप में भाग लेने के लिए ने छत्तीसगढ़ के जगदलपुर में काकतीयों के वंशज के रूप में माने जाने वाले कमल चंद्र भंज देव को आमंत्रित किया गया है। काकतीय साम्राज्य के अंत होने के लगभग 800 साल बाद काकतीयों के वंशज वरंगल की धरती पर एक ऐतिहासिक अवसर पर कदम रखना विशेष आकर्षक और दिलचस्पी हो रही है। वरंगल आने वाले इस काकतीयों के वंशज कमल चंद्र भंजदेव कौन हैं? उनका साम्राज्य कहां है? काकतीयों का इस भंजदेव वंशजों के बीच क्या संबंध है? ये इतनों सालों के बाद वरंगल धरती पर आने को लेकर केवल तेलंगाना के ही बल्कि सभी लोगों में दिलचस्पी पैदा हो गई हैं। यह कौन हैं? क्या है इनका इतिहास? क्या प्रतापरुद्र के साथ ही काकतीय साम्राज्य का अंत नहीं हुआ? आइए जानते भंजदेव क्या काकतीय वंशज वास्तव में हैं?

राज्य स्थापित

दक्षिण भारत पर लगभग दो शताब्दियों से अधिक समय तक शासन करने वाले प्रतापरुद्रडु काकतीय साम्राज्य के अंतिम राजा थे। 1290 से 1323 तक शासन करने वाले प्रतापरुद्र को दिल्ली के मुगलों ने पराजित किया। गयासुद्दीन तुगलक के बेटे उलुग खान के हाथों पराजित होने के बाद प्रतारुद्र और उनके छोटे भाई अन्नमदेवडु और उनके मंत्री गन्नमनायक को बंदी बनाकर दिल्ली के लिए रवाना हो गए। यह कहानी प्रचलित है कि हार के अपमान को सहन कर प्रतापरुद्रुडु ने उग्र रूप से बह रही यमुना नदी में कूदकर आत्महत्या कर ली। प्रतापरुद्र का छोटा भाई अन्नमदेवडु जो उनके साथ थे बीच रास्ते में ही भाग गया और दंडकारण्य में छिप गया। अन्नमदेवडु ने स्थानीय जनजातियों की मदद से बस्तर में एक राज्य स्थापित किया। इस दौरान उसने एक सेना खड़ी की और एक के बाद एक राज्यों पर विजय प्राप्त करते हुए आगे बढ़ते गये।

साम्राज्य

अन्नमदेवडु ने शंखिनीडंखिनी नदी के तट पर दंतेश्वरी देवी नामक एक महान मंदिर का निर्माण किया। इस क्षेत्र को अन्य मायनों में भी गौरवशाली माना जाता है। किंवदंती के अनुसार ऐसा माना जाता है कि यह वह जगह है जहां दक्ष यज्ञ में पार्वती देवी नाराज हो गई और योगाग्नि में मौत हो गई। जब पार्वती ने अपनी सती हो गी तो उनका दांत यहीं पर गिर गया, इसलिए इस देवी को दंतेश्वरी भी कहा जाता है। इसीलिए इस क्षेत्र को दंतेवाड़ा कहा जाता है। एक सघन वन क्षेत्र बस्तर प्रांत को दंडकारण्य के नाम से जाना जाता है। यह त्रेता युग के दौरान कोसल साम्राज्य का हिस्सा था। लगभग 450 ईसा पूर्व बस्तर राज्य पर नलवंशराज भावदत्तडु का शासन था। इस बात के ऐतिहासिक प्रमाण हैं कि ईसा पूर्व 440-460 के बीच वाकाटक वंश के राजा नरेंद्र सेनुनी पर भावदत्तडु ने आक्रमण किया था।

शासन

बस्तर में काकतीय वंशजों (कुल) के शासन की बात आती है तो 1223 में दंडकारण्य आकर राज्य को स्थापित करने वाले अन्नमदे के बाद ईसवीं 369 से 1410 तक हमीरदेवडु, ईसवीं 1410 से 1468 तक बैटायदेवुडु, ईसवीं 1468 से 1534 तक पुरुषोत्तमदेवुडु, ईसवीं 1602 से 1625 तक प्रतापराजदेवडु, ईसवीं 1680 से 1709 तक दिक्षालदेवुडु और ईसवीं 1709 राजपालदेवुडु ने शासन किया।

भारत संघ में विलय

राजपालदेव की दो पत्नियां थीं। भाघेला वंश की पहली पत्नी को डकिनसिंह नाम का एक पुत्र था और चंदेला वंश की दूसरी पत्नी के दो पुत्र- दलपतिदेव और प्रतापदेव थे। ईसवीं 1721 में राजपालदेव की मृत्यु के बाद उसकी बड़ी पत्नी ने अपने भाई को राजा घोषित किया। दलपतिदेव भाग निकले और पड़ोसी राज्य जयपुर में दस साल तक रही और 1731 में सिंहासन पर बैठ गया। पहले बस्तर में इनका महल था। उसके बाद उनकी राजधानी जगदलपुर में स्थानांतरित हो गई। 15वीं शताब्दी में कांकर केंद्र में एक राजधानी थी और जगदलपुर केंद्र दूसरी राजधानी थी। दोनों अलग-अलग थे। 18वीं शताब्दी में मराठा साम्राज्य के उदय होने तक यह स्वतंत्र थे। 1861 में नवगठित बीरार मध्य प्रांत का हिस्सा बन गया। 1863 में 3,000 ‘पेश्कस’ का भुगतान करने के समझौते पर कोटपाड क्षेत्र को जयपुर साम्राज्य को सौंप दिया गया। इसके कारण बस्तर का प्रभाव धीरे-धीरे कम हो गया। 1929 से 1966 तक राज करने वाले प्रवीर चंद्र भंजदेव ने बाद में बस्तर को भारत संघ में विलय कर दिया।

आदिवासियों के प्रशंसक

प्रवीर चंद्र भंजदेव आदिवासियों के बहुत बड़े प्रशंसक थे। आदिवासी प्रवीर को चलने वाले देवता माने जाते थे। प्रवीर ने आदिवासी अधिकार संरक्षण आंदोलन का नेतृत्व किया। 25 मार्च 1966 को पुलिस ने उसे उसके ही महल में मुठभेड़ के नाम पर बेरहमी से गोली मारकर हत्या कर दी गई। प्रवीर के साथ कई शाही सेवक और कबीले मारे गए। राजा सहित उसके साथ कई शाही सेवक और कबीले मारे गए। 11 आधिकारिक तौर पर घोषणा की गई राजा सहित 11 लोगों को मौत और 20 लोग घायल हो गये। 61 राउंड फायरिंग की गई। प्रवीर चंद्र के बाद विजय चंद्र भंजदेव 1970 तक, भरत चंद्र भंजदेव 1996 तक और वर्तमान में कमल चंद्र भंजदेव अप्रैल 1996 से राजा के रूप में राज कर रहे हैं।

नाम भंज

बस्तर के शासकों में प्रफुल्ल कुमार देव के बाद आने वाले शासकों का नाम भंज देव पड़ गया। 1891 से 1921 तक शासन करने वाले प्रताप रुद्र देव (रुद्र प्रताप देव) की कोई संतान नहीं थी। उनकी बेटी प्रफुल्ल कुमारा देवी की शादी उड़ीसा के मयूर भंज के राजा प्रफुल चंद्र भंज से हुई थी। तब से यहां के राजाओं का नाम भंज पड़ गया।

दशहरा समारोह

अब भी इस क्षेत्र में दशहरा समारोह काकतीयों के देखरेख में आयोजित किए जाते हैं। इस क्षेत्र के कई आदिवासी काकतीय वंशजों को विशेष सम्मान देते हैं। दंतेश्वरी देवी के साथ, उनकी बहन देवी माओली की भी पूजा की जाती है। दशहरा के दौरान रावण का उत्सव परंपरा के अनुसार बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है। हमारा भगवान शब्द वहां देव बन गया है। दंतेवाड़ा में अभी भी राज प्रतिभा को दर्शाने वाला एक शाही महल है। इस महल में कमल चंद्र बांज देव, राजमाता कृष्ण कुमारी देवी और गायत्री देवी निवास करते हैं।

गर्मजोश के साथ स्वागत की तैयारियां

कमल चंद्र भंजदेव का जन्म 1984 में हुआ था और वो काकतीय वंश के हैं। उन्होंने ब्रिटेन में कॉन्वेंटरी विश्वविद्यालय में अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में स्नातक की पढ़ाई पूरी की और फिर राजनीति विज्ञान में पीजी किया। वर्तमान में प्रवीर सेन एक चैरिटी संस्था के माध्यम से समाज सेवा के कार्य कर रहे हैं। वे बस्तर स्थित सर्व समाज के अध्यक्ष थे। एक युवा और आधुनिक सोच रखने वाले काकतीयों के वंशज के रूप में कमल चंद्र वरंगल और हैदराबाद के दौरे पर आ रहे है। ऐसे महान व्यक्ति का गर्मजोश के साथ लोग स्वागत करने के लिए तैयार हैं।

– कन्नेकंटि वेंकटरमण, संयुक्त निदेशक, सूचना नागरिक संबंध विभाग, तेलंगाना

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