संत गाडगे महाराज की जयंती पर विशेष: त्याग और सादगी की प्रतिमूर्ति, भीमराव आंबेडकर ने माना अपना आदर्श

त्याग और सादगी की प्रतिमूर्ति थे गाडगे बाबा “धर्मपंथ हो या धर्मग्रन्थ, इन तमाम ढोंगी-पिशाचों का दृढ़ता से विरोध करने वाला, देश-काल-परिस्थिति के अनुसार जनता को इंसानियत का नया व्यवहार, धर्म सिखाने वाला साधु पुरुष, संत या महात्मा गाडगे महाराज जैसा इससे पहले कोई भी नहीं हुआ और आगे उनकी अद्वितीय परंपरा को कोई जारी रखेगा, ऐसा लगता भी नहीं है।”- प्रबोधनकार के एस ठाकरे प्रबोधनकार

स्वच्छता अभियान

ठाकरे के जी का यह कथन आज भी प्रासंगिक है और रहेगा भी। भले ही किसी को कोई भी उपाधि दे दी जाये। आज गाडगे बाबा के उपदेशों की विरासत को आगे बढ़ाने की दृढ़ इच्छाशक्ति वाले लोग दिखाई नहीं देते भले ही बहुत से लोग उनके शिष्य के तौर पर सामने आ रहे हों। स्वच्छता अभियान की शुरुआत गांधी जी के नाम से शुरू जरूर किया गया लेकिन वह सिर्फ अभियान बनकर कागजों तक ही सीमित रह गया। सरकारों ने भी पंचवर्षीय योजनाओं के जरिए सामाजिक परिवर्तन की कोशिश तो बहुत की परंतु सामाजिक परिवर्तन का जो कार्य गाडगे महाराज जी ने किया था उसके आगे फीका ही लगता है।

जीवन और कार्य

आज के साधू-सन्यासियों का जीवन और कार्य क्या होना चाहिए यह गाडगे महाराज से सीखने की जरूरत है। गाडगे बाबा त्याग की एक मिशाल थे फिर भी उनके अतुलनीय कार्यों का मूल्यांकन देश के तत्कालीन तथाकथित लेखकों, साहित्यकारों, इतिहासकारों ने नहीं किया। इसका एक बड़ा कारण यह रहा कि हमारे देश के मुख्यधारा के साहित्यकार, इतिहासकार, पत्रकार जातीय पूर्वाग्रहों और दुराग्रहों से ग्रस्त थे जिसके कारण उन्होंने जान-बूझकर दलित समाज सुधारकों को हाशिए की तरफ धकेल दिया। तभी तो गडगे बाबा की मृत्यु के काफी समय बाद तक महाराष्ट्र के बाहर लोगों को उनके बारे में पता नहीं चल सका जब तक कि माननीय कांशीराम जी ने लोगों को अवगत नहीं कराया। यदि ऐसा नहीं रहा होता तो एक साधारण से धोबी, जिन्हें ब्राह्मणों ने शूद्र ठहराया था, परिवार में 23 फरवरी 1876 को जन्में गाडगे बाबा, जिन्होंने दीन-दुखियों और गोर-गरीबों के बहुत बड़े-बड़े कार्य किए, जैसे असाधारण इंसान से लोग इतने लंबे समय तक कैसे अनजान रह पाते?
गाडगे बाबा ने कभी अपने आपको विशेष दर्जा नहीं दिया और न ही कभी अपने को किसी का गुरु और किसी को अपना चेला माना।

मिट्टी का पात्र

उनका मानना था कि न मैं किसी का गुरू न मेरा कोई चेला। उन्होंने कभी कोई योगी, तपस्वी, सन्यासी, धर्मगुरू आदि होने/बनने का दिखावा नहीं किया। कभी गेरुआ या भगवा वस्त्र नहीं पहना और न ही किसी विशेष रंग के कपड़ों को महत्व दिया अपितु विभिन्न रंगों वाले कपड़ों के टुकड़ों को जोड़कर बनाया हुआ वस्त्र धारण किया और समावेशी होने का प्रमाण दिया और सभी वर्गों को अपने बच्चों की शिक्षा पर ध्यान देने को कहा। कभी भी उन्होंने आजकल के संन्यासियों की तरह रुद्राक्ष, कंठी आदि की माला भी नहीं पहनी और न ही कभी तिलक या टीका लगाया, न ही कभी शरीर पर राख, भभूत या भस्म ही लपेटा। उनके शरीर पर विभिन्न रंगों वाला कपड़ा, जो अनेकता में एकता को प्रदर्शित करता था, और हांथ में लाठी व गडगा ही हुआ करता था। यही उनकी संपत्ति थी। जबकि वे चाहते तो उनके एक इशारे पर तमाम संसाधन एकत्र हो जाते लेकिन वे उसी गडगा (मिट्टी का पात्र) में खाना खा लेते और उसी में पानी पी लेते और जब धूप लगती तो उसी को अपने सिर पर रख लेते। वे कभी किसी से खाने के लिए विशेष पकवान की इच्छा नहीं करते जो मिल जाता वही खा लेते। जहां रात हो जाती वहीं लोगों से मिला हुआ खाना खा कर पेड़ के नीचे या खुले आसमान के नीचे सो जाते पर किसी के घर न जाते जबकि लोग उन्हें अपने घर ले जाने के लालायित रहते। पैर छूने और छुआने की परंपरा का उन्होंने कभी निर्वाह नहीं किया। उन्होंने हांथ जोड़कर ही अभिवादन किया और करने के लिए कहा।

लोकोपकारी कार्य

वे मानवीय मूल्यों को स्थापित करने वाले महान व्यक्तित्व थे और इस हेतु आजीवन प्रयासरत रहे। भोग विलास तो उनके पास कभी फटकने ही नहीं पाया। उन पर भरोसा कर जिन लोगों ने लोकोपयोगी कार्यों हेतु दान दिया, उनके पैसे को कभी हांथ नहीं लगाया और न ही कभी बंदर-बांट होने दिया। वे लोकोपयोगी संस्थाओं व लोकोपकारी कार्यों की देखरेख आजीवन एक ट्रस्टी की तरह करते रहे और अपने लिए कभी एक कुटिया तक नहीं बनवाई। तमाम बड़े-बड़े धन्नासेठों और अनुयायियों के होते हुए भी वे स्वयं श्रमदान करते, दिए गए पैसों का प्रबंध स्वयं करते। रुपया-पैसा एक तरफ से आता और दूसरी तरफ से जनसेवा के कार्य में चला जाता। वे जिस तरह से मज़दूरों के साथ मजदूर की तरह ही काम करते और उनका खयाल रखते, धन्नासेठों के साथ भी उसी सहृदयता और सहजता से पेश आते।

मानव सेवा ही ईश्वर सेवा

इसीलिए वे मजदूर से लेकर धन्नासेठों और जनता से लेकर मुख्यमंत्री तक को प्रिय थे। स्वयं बेघर रहे पर दूसरों को आश्रय देने हेतु प्रयासरत रहे, जिस रचनात्मक कार्य कि शुरुआत गांधी जी 1941 में करते हैं उसकी शुरुआत गाडगे महाराज पहले ही कर चुके थे। वंचित समाज में व्याप्त कर्मकाण्ड और भेदभावपूर्ण व्यवहार का सफाया उन्होंने अपने भजन, गीत व कीर्तन से किया। वे किसी पल श्रमदान कर श्रम की महत्ता को प्रतिष्ठित करते, तो अगले ही पल प्रबंधक और अर्थशास्त्री का काम करते, उसके अगले ही पल वे कुष्ठ रोगियों की सेवा, मूक प्राणियों की सेवा तो अगले ही पल एक स्वच्छता कर्मी, कुशल मार्गदर्शक आदि की तरह कार्य कर रहे होते। उनके लिए ‘मानव सेवा ही ईश्वर सेवा’ थी। उन्होंने अपने जीते जी कई शिक्षण संस्थाओं सहित कई लोकोपयोगी संस्थानों का निर्माण कराया एवं प्रबंधन संभाला।

खुलकर दान

गाडगे बाबा ने लोगों में यह विश्वास पैदा किया कि लोगों ने उन्हें खुलकर दान दिया जिसके जरिए उन्होंने धर्मशाला, छात्रावास, विद्यालय, गौशाला, अस्पताल, कुष्ठ आश्रम और जलाशयों आदि के निर्माण कराया और ‘पे बैक टू सोसायटी’ की अवधारणा प्रबल हुई जिस पर अम्बेडकर साहब ने भी जोर दिया।

सच्चे सामाजिक कार्यकर्ता

गडगे बाबा ने हर काम को बुद्धि की कसौटी पर रखकर कसना सिखाया। उन्होंने लोगों के समक्ष उपदेश नहीं अपितु अपने जीवन का उदाहरण रखा। वे कोई चमत्कारी व्यक्ति नहीं थे अपितु सामाजिक क्रांति का बीज बोने वाले एक असाधारण व्यक्ति थे जिनके गुणों के कारण ही साहित्यकार, फिल्मकार, सन्त, राजनेता, समाज वैज्ञानिक आदि उनको चाहने वालों में थे। उन्होंने एक सच्चे सामाजिक कार्यकर्ता की तरह लोगों को अपनी मदद अपने आप करने हेतु सक्षम बनाया जिसके लिए उन्होंने कीर्तन का सहारा लिया।

कर्मकाण्डवाद और पाखंडवाद

एक साथ कई भूमिकाओं का निर्वहन करते हुए भी उन्होंने कर्मकाण्डवाद और पाखंडवाद सहित तमाम कुरीतियों को दूर करने हेतु कार्य किया और अंत में 20 दिसंबर, 1956 को नदी बहती भली, सन्यासी चलता भला की तर्ज पर वलगांव में पेढ़ी नदी के पुल पर अपने प्राण त्याग दिए। उनकी मृत्यु के बाद पूरे महाराष्ट्र में सनसनी फैल गई और तमाम समकालीन लोगों ने गाडगे बाबा को अपने श्रद्धा सुमन अर्पित किए।

भीमराव आंबेडकर ने अपना आदर्श माना

उनकी महानता का पता इसी से चलता है कि विश्वविख्यात विद्वान एवं राष्ट्र निर्माता बाबा साहब भीमराव आंबेडकर जी ने जिसे अपना आदर्श माना वह कोई साधारण व्यक्ति हो ही नहीं सकता। गाडगे महाराज के तर्क और उपदेश हमारे विज्ञान की जरूरत हैं और आज भी तमाम सामाजिक कुरीतियों से लड़ने के लिए ऊर्जा पुंज के रूप में हमें प्रेरित करते हैं और करते रहेंगे, आवश्यकता है तो बस हमें उनके उपदेशों और आदर्शों को अपनाने की। आज महान संत गाडगे महाराज की 146वीं जयंती के इस सुअवसर पर हम उन्हें कोटिशः प्रणाम करते हैं।

लेखक नरेन्द्र दिवाकर (मोबाइल नंबर 9839675023 सुधवर, चायल, कौशांबी, उत्तर प्रदेश)

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