विशेष लेख: यज्ञकुण्ड की धूम्र लहरियाँ हैं- रामचरितमानस

बात माह नवंबर 2023 की 20वीं तारीख की है, हम दो मित्र रेलगाड़ी मे दिल्ली से वाराणसी तक की यात्रा करते हुये समसामयिक प्रसंग के रूप में समाचार-पत्रों मे छपे रामचरितमानस पर उंगली उठानेवाले (स्वामी प्रसाद मौर्य प्रकरण) पर आपस में कुछ चर्चायेँ कर रहे थे, तभी सामने की सीट पर बैठे एक सज्जन को शायद हमारी बातें पसंद नहीं आई। उन्होने कुछ रोषपूर्ण शब्दों मे मुझसे पूछा- क्या मानस पढ़ी है आपने?

मैंने कहा- किसकी? तुलसीदास की? या स्वामी प्रसाद की?

सज्जन ने कहा– मज़ाक मत कीजिए। इसे हास-परिहास का विषय मत बनाइए। किसी व्यक्ति के मानस पटल की बात नहीं कर रहा, मैं ग्रंथ की बात कर रहा हूँ। बात कर रहा हूँ तुलसीदासजी की, उनके विश्वप्रसिद्ध कृति ‘रामचरितमानस’ की।

मैंने कहा- हाँ, हाँ, महोदय! पढ़ी है, गुनी भी है और क्षमतानुरूप अपने विवेकानुसार कुछ न कुछ समझा भी है; अब जैसा भी समझ पाया उसे… ।

यह भी पढ़ें:

वे मुस्कुराकर बोले- तो क्या समझा है अभी तक? कुछ विचित्र ही समझा होगा, उसमे दर्शनशास्त्र और मनोविज्ञान की तरह कुछ अटपटा भी अवश्य ही घुसाया होगा, फिर भी बताओ तो क्या–क्या समझा है?

मैंने कहा- यही कि ‘रामचरितमानस’ तो ‘तुलसीदास’ से कहीं अधिक ‘रत्नावली’ है, हवनकुण्ड है… सार्वभौमिक योनिकुण्ड है…। और ‘रामचरितमानस’ है इस यज्ञ कुण्ड से उठती हुई धूम्र की लहराती – बलखाती धूम्र-लहरियाँ। सचमुच यह मानस तो ‘यज्ञपुरी’ ही है, एक ऐसी यज्ञपुरी जिसमे काया-नगरी, माया-नगरी, भाव-नगरी, भोग-नगरी, योग-नगरी की अनेक छोटी-बड़ी वेदियाँ हैं, उपकुण्ड और लघुकुण्ड के रूप में। इन हवनकुण्डों से उठता हुआ सघनतम-विरलतम धुआँ, धूम्रलहरियाँ, धुआँ की कुछ सरल-सी, कुछ टेढ़ी-सी कुछ लकीरें, कुण्डों को समर्पित आहुतियाँ… विभिन्न प्रकार की समिधाएँ… समवेत स्वर-लहरियों, मंत्र-तंत्र-यंत्रों की अनुगूँज… निरंतर… अनवरत… लगातार दिखती हैं, कभी-कभी क्षणिक विराम और अवकाश के साथ-साथ पुनः-पुनः गतिमान रूप में। और उसी रूप में जन मानस को प्रभावित भी करता है यह ग्रंथ, यही दिखता है मुझे इस रामचरितमानस में, यत्र-तत्र-सर्वत्र। विभिन्न प्रकार की भौतिक-आध्यात्मिक भावों, संवेदनाओं की सरस, सरल सी अनुभूति अपनी अभिव्यक्ति के साथ-साथ, प्रथम अध्याय से लेकर अंतिम अध्याय तक।

प्रथम अध्याय ‘बालकाण्ड’ के प्रारम्भ मे ही दक्ष-यज्ञ है। अहंकार-यज्ञ है यह; वैभव प्रदर्शन, विभिन्न प्रकार की आहुतियाँ, एक से बढ़कर एक, सौन्दर्यपरक, भावपरक, दुर्भावपरक, अभिमानपरक, स्वाभिमानपरक और माया की आहुति… सती-काया की आहुति… और अंततः यज्ञ ध्वंश-विध्वंश। भीषण कलह, भयानक कोलाहल… भयंकर नाश-विनाश… देखते ही देखते। यज्ञ अधूरा…। लेकिन यज्ञ हो या मिशन, नहीं रहता देर तक अधूरा…। होता ही है यह जैसे-तैसे किसी न किसी रूप मे पूरा। दक्ष मुख्य यजमान था… कैसे हो सकता था उसका नाश, सर्वनाश, सत्यानाश…? आचार्यगण साथ में थे अस्तु उसे जीवित करना पड़ा, आचार्यों ने ही मार्ग ढूंढा, दक्ष को पुनर्जीवित होना पड़ा, मान-अभिमान त्यागकर उस निरा-अहंकारी भौतिकता के प्रतीक को विनयी-विनीत होना ही पड़ा। अध्यात्म का शरणागत अंततः होना ही पड़ा उसे। सार्वभौमिक ‘योनिकुण्ड’ मे जब सनातन ‘ज्योतिर्लिंग’ की आहुति पड़ी, तब ‘दक्ष-यज्ञ’ पूर्ण हुआ… । मैं… मैं… करने वाला मेमना, वह अज (दक्ष) दिव्य मंत्रोच्चार करने लगा… पशुता ने मानवता को धारण किया, इस मानवता ने प्रगति की, देवत्व की प्राप्ति की।

दूसरा यज्ञ अवध नरेश दशरथ का पुत्रेष्टि-यज्ञ है, मानवीय अभिलाषा, मानवीय पुरुषार्थ के रूप मे। परिणाम स्वरूप चत्वारि पुरुषार्थों (धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष) की उन्हे प्राप्ति हुई। राजा की कामना-मनोकामना पूर्ण हुयी।

तृतीय यज्ञ महर्षि विश्वामित्र का ‘निष्काम-यज्ञ’ है। यह समष्टि के कल्याण के लिए है, सर्वसमाज के उत्कर्ष के लिए है। विश्व के उत्कर्ष के लिए ‘विश्व के सच्चे मित्र’ ही ऐसी याज्ञिक-क्रियाए संचालित करते रहते हैं, लेकिन बाधाएँ उत्पन्न होती हैं इसमे। बाधाओंका नाश ‘धर्म और अर्थ’, ‘अध्यात्म और भौतिकता’ के संयुक्त शक्ति, सम्मिलित प्रयास द्वारा ही हो सकता है… और ऐसा ही होता भी है। लेकिन सत्कर्म के लिए धर्म और अर्थ को भी शोधित करना पड़ता है, दोनों को ही आध्यात्मिक-ज्ञान और दार्शनिक-विवेक से प्रशिक्षित होना पड़ता है।

चौथ यज्ञ‘धनुष-यज्ञ’ है, यह विदेह-नगरी (ज्ञानियों की नगरी) मे सम्पन्न होता है। ज्ञानी के पास ही भक्ति हो सकती है, कहीं अन्यत्र नहीं। सीता भक्ति है, भक्ति को पाने के लिए अहंकार की अकड़ रूपी धनुष को तोड़ना पड़ता है। कोई भी अहंकारी अहंकार को भला कैसे तोड़ सकता था? इसीलिए अहंकारी राजा इसे तोड़ क्या पाते, हिला-डुला भी नहीं पाये। अकड़-अहंकार तोड़ने के लिए अनिवार्यता है ज्ञान की, गुरु कृपा की। अहंकार गलाने का, तोड़ने का अधिकार धर्म का है। धर्म संत के दिशा-निर्देशों का पालन करता है, संत निर्देशन के अभाव मे यही धर्म शब्दानुगामी बनकर, शब्दजाल में फँसकर संप्रदाय -पंथ-कुपंथ भी बन जाया करता है, यह ऐतिहासिक सत्य है। संत का निर्देश हुआ- ‘उठहु राम भंजहु भव चापा’ और धनुष की अकड़ता भंग हुयी…। ज्ञान और भक्ति का मिलन हुआ… महामिलन… अद्भुत मिलन…।

पंचम यज्ञ है सुंदरकाण्ड में- ‘उपहास-यज्ञ’, जो लंका विध्वंश के पूर्व लंका-दहन के रूप मे सामने आता है। इसके लिए कोई हवनकुण्ड नहीं है, बाल ब्रह्मचारी के लिए कैसा हवनकुण्ड? और कैसा योनिकुण्ड? उपहास और विकृत परिहास भी कैसा विनाश लता है, इसका आभास उपहास कर्ताओं को नहीं होता। यदि उन्हे इसका थोड़ा सा भी आभास होता तो क्यों लाते अपने ही विनाश सामग्री के रूप मे समिधाएँ- अपने वस्त्र, तेल, घी… इस महाविनाश के लिए? क्यों पढ़ते मंत्रों की जगह व्यानवाणी और कर्कश वचनों के छंद? इस सुंदरकाण्ड को ब्रह्मचारी दूत की बात मानकर सुंदर बनाया जा सकता था। दूसरी बात यज्ञाग्नि तो अरणि-घर्षण से उत्पन्न होती है, लगाई नहीं जाती। जिस यज्ञ में वाहरी अग्नि से कुण्ड प्रज्वालित किया जाता है, वह अपना ही घर, अपनी ही नगरी जलाती है; होतागणों का सत्यानाश कर देती है। यज्ञ वही उत्तम होता है जिसमे जनकल्यणार्थ आहुतियाँ पड़ें। विनाशक यज्ञ प्रायः सफल होते भी नहीं, ये प्रतिकूल प्रभाव दिखलाते हैं, लेकिन रामायण परिचर्चा करने वाले कुछ तथाकथित तत्वज्ञानी भी ये सब कहाँ सीख पाते है, आये दिन आरोप उनपर लगते रहते हैं। श्वेत वस्त्रों मे दाग वैसे भी गाढ़ा और दूर से दिखाई देता है। कथावाचकों को अत्यंत सजग-सतर्क रहने की आवश्यकता है।

लंकाकाण्ड मे दो यज्ञ हुये हैं क्रमशः ‘मेघनाद’ और ‘रावण’ के द्वारा। ये दोनों ही आचार्य विहीन यज्ञ थे, इनमे मुख्य यजमान स्वयं ही यज्ञाचार्य भी था। भटकाव… ध्वंश… मे पुनर्स्थापित-पुनर्जीवी नहीं हो पाया। फलतः यज्ञ अधूरा-अपूर्ण रहा… यजमानों का ही विनाश हुआ।

अंतिम अध्याय ‘उत्तरकाण्ड’ में ज्ञान-यज्ञ के अनेक दृश्य हैं, अनेक आचार्य हैं, प्रवचन अनवरत चल रहा है, शंकाओं का शमन हो रहा है… मानव को मानवता और मानवत्व से देवत्व प्राप्ति का मार्ग समझाया जा रहा है। ज्ञान-यज्ञ मे हवन कुण्ड की अनिवार्यता नहीं होती, ये तपाग्नि से प्रज्ज्वलित होते हैं, इसमे धूम्र नहीं निकलता, ज्ञान-प्रकाश की प्रखर ज्योति-वर्षा होती है। मन की कालिमा और काम की उद्दाम लालिमा भी ज्योतिर्मय हो उठती है।

सचमुच, मानव के पास प्रकृति का सर्वश्रेष्ठ उपहार है बुद्धि, बुद्धि ज्ञान चाहती है, प्रमा-पिपासु है लेकिन यह बुद्धि प्रमाण चाहती है। बुद्धि को विश्वास तभी होता है जब वह परख लेती है, सम्यक परीक्षण कर लेती है। परीक्षित पर ही उसे विश्वास है। यही परीक्षण कार्य आज भी हो रहा है, विज्ञान के क्षेत्र में भी और अध्यात्म क्षेत्र में भी। हवनकुण्डों का प्रचलन सदा से ही रहा है।

हिरण्यगर्भ में यह हवनकुण्ड ही मनसो रेतः है। मन ही हवनकुण्ड है, उपनिषदों में यही पंचाग्नि विद्या है, जहां पांचवी आहुति से मनुष्य का जन्म होता है, यह कामनाओं की आहुति है, कर्मों की आहुति है और उसी से सृष्टि का विकास हुआ है। हवनकुंडों का प्रचलन सदा से ही रहा है, कभी प्रधानता ‘यज्ञशाला’ की रही है, कभी ‘प्रयोगशाला’ की। आज समाज में हवन कुण्ड (योनि-कुण्ड) की मर्यादा नहीं रही, अब पूजा नहीं, उसका घोर अपमान हो रहा है… लिव इन रिलेशनशिप का प्रचलन बढ़ रहा है। इतिहास साक्षी है, जब-जब इन हवन कुंडों का दुरुपयोग हुआ है, सड़ी-गली विकृत भावनाओं की आहुतियाँ पड़ी हैं, मांस के लोथड़ों की समिधाएँ डाली गयी हैं, तब-तब नाश हुआ है, सत्यानाश हुआ है…। आज महती आवश्यकता है पवित्रता की, विवेक की; क्षेत्र चाहे यज्ञशाला की हो, प्रयोगशाला की हो या परिवारिक, समाजिक संस्कारशाला की।

मैंने तो बस यही समझा है श्रीमान, अब आपने चाहे जो समझा हो। क्या आप भी कुछ प्रकाश डालेंगे? उन्होने कनिष्ठा उंगली उठाई… अभी आते हैं कहकर जो गए वाराणसी स्टेशन पर ही लौटे। तबतक परितोषिक यह मिला कि हमलोग सो भी न पाये, उनके सामान की रखवाली और उनके दिव्य ज्ञान की प्रतीक्षा ही करते रहे हैं।

डॉ. जयप्रकाश तिवारी
ग्राम पोस्ट – भरसर
जिला बलिया, उत्तर प्रदेश

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Recent Posts

Recent Comments

    Archives

    Categories

    Meta

    'तेलंगाना समाचार' में आपके विज्ञापन के लिए संपर्क करें

    X