महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती जी का जन्म गुजरात के टंकारा नामक ग्राम में 12 फरवरी 1824 को एक धनाढ्य और धर्मात्मा ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनका बचपन का नाम मूलशंकर था। इसने सुन रखा था कि योग द्वारा सच्चे शिव के दर्शन होते हैं, मृत्यु को जीत सकते हैं। अतः घर से निकलते ही सच्चे योगी की खोज में घूमते फिरते हुए चाणोद पहुंचे। यहां एक संन्यासी से इनकी भेंट हुई जिनका नाम पूर्णानन्द सरस्वती था। स्वामी पूर्णानन्दजी से इन्होंने संन्यास की दीक्षा ली और स्वामी दयानन्द सरस्वती कहलाने लगे। इस समय इनकी आयु 23 वा 24 वर्ष की थी।
निरन्तर 12 वर्षों तक तीर्थ स्थानों, जंगलों, गुफाओं और पहाड़ों में इस नए संन्यासी ने योगियों की खोज की। इन्होंने ऊंचे – ऊंचे शिखर पर और हिमाच्छादित प्रसिद्ध अलकनन्दा पर तक चढ़कर देखा, कहीं सच्चा योगी नहीं मिला। फिर स्वामी जी नीचे उतर कर घूमते फिरते स्वामी विरजानन्द सरस्वती (दण्डीजी) का नाम सुन 1858 ई. में मथुरा पहुंचे। महर्षि दण्डी जी का द्वारा खटखटाते हैं। गुरु चरणों में नमस्तक हो तीन-चार वर्षो में ही पाणिनिय – व्याकरण, महाभाष्य, उपनिषद, मनुस्मृति, ब्रह्म सूत्र, पातंजल – योगसूत्र, वेद और वेदंगों का पाठ कर 1861 ई. में दीक्षान्त लेते हैं। दण्डीजी ने कहा, “मैं चाहता हूं कि तुम संसार में वेदों का सच्चा ज्ञान फैलाएं।”
स्वामी जी ने विनम्र भाव से निवेदन किया, “परम पूजनीय गुरुवर ! दयानन्द अपने तन – मन को अर्पण करता है। ईश्वर आपका एक-एक अक्षर सच्चा करे।” गुरुवर स्वामी विरजानन्दजी के आशीर्वाद को ले स्वामी जी आगरा, ग्वालियर, जयपुर, अजमेर आदि स्थानों में पहुंचकर अनेक संप्रदायों के साथ तर्क – युद्ध करने लगे। इस युद्ध में शंकाएं भी कई प्रकार की उत्पन्न होती रहीं। अपने मूल सिद्धांतों को निश्चित करने और शंकाओं का समाधान पाने स्वामीजी 1867 ई. में फिर गुरुचरणों में उपस्थित हुए। स्वामीजी की अपने गुरु से यह अन्तिम भेंट थी।
स्वामी दयानन्द जी महाराज हरिद्वार पहुंचे। दैव योग से वहां कुम्भ का प्रसिद्ध धार्मिक मेला भी उसी वर्ष था। स्वामी जी वहां पहुंचकर देखते क्या हैं कि सभी साधु, संन्यासी, गृहस्थी, वैरागी, पंडित आदि मिथ्या मत मतान्तरों के जाल में फंसे हैं। सत्य की किसी को चाह नहीं थी। वेद रक्षक ही वेद विरोधी थे। लाखों करोड़ों हिन्दू, ईसाई और मुसलमान हो चुके थे और नित्य हो रहे थे। लाखों विधवाओं का आर्तनाद सुन स्वामीजी का कलेजा फटा जा रहा था। अबलायें वेश्या बन रही थी। वेद दुष्प्राप्य हो गए थे। स्वामीजी केवल अपनी मुक्ति न चाहकर, समस्त संसार को दुखों से मुक्त करने का निश्चय करते हैं। कितना त्याग है उस महान आत्मा का! जिसके कारण ही आज हमारा भाग्योदय हो रहा है। स्वामी जी मुंबई नगर के गिरगांव में आर्यसमाज की पहले पहल स्थापना 7 अप्रैल 1875 ई. में की थी।
महर्षि दयानन्द बड़े ही अद्भुत और महान थे। ऋषि ने मूर्ति पूजा का खण्डन इसलिए नहीं किया कि राम, कृष्ण आदि की मूर्तियां पत्थर की बनी हुआ करती हैं, इसलिए नहीं की गुण्डे इन मन्दिरों को तोड़कर देवताओं को अपमानित करते हैं, बल्कि इसलिए कि लोग सच्चे ईश्वर को जानें, सच्चे ईश्वर का अनादर और अपमान ना हो, सभी लोग ईश्वर की आज्ञा, वेदमत का पालन करें। “वेदों की ओर लौटो।” ज्ञान कराया। समस्त संसार के लोग उस एक सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, निराकार परमात्मा की, स्तुति, प्रार्थना और उपासना करें। ऋषि की उत्कट इच्छा थी और इसी के लिए वे दिन-रात एक कर रहे थे।
महर्षि दयानन्द ने गौरक्षा हेतु “गोकरुणानिधि” पुस्तक लिखकर गो – पालन के सहस्त्रों लाभ बताये। स्वामीजी ने विधवा विवाह पर बल दिया, इसे शास्त्रों के मर्यादानुसार है ऐसा सिद्ध किया। इसका परिणाम यह निकला कि देश की लाखों विधवाएं अब विवाहित जीवन व्यतीत कर रही हैं। महर्षि के शुद्धि ने तो हमारी जाति के लिए एक नवजीवन उत्पन्न कर दिया। यह ऋषि की ही कृपा थी जिन्होंने बतलाया कि प्रत्येक मनुष्य को वैदिक धर्म ग्रहण करने का अधिकार है, चाहे वह मुसलमान हो या ईसाई या किसी देश व जाति का हो। संसार की सारी जातियां पहले वैदिक धर्मी ही थीं।
स्वामीजी की देशभक्ति अनुपम थी। वह अपने देश को विशेषकर और साधारण तया सभी राष्ट्रों को स्वतन्त्र देखना चाहते थे। “स्वराज” शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग स्वामी जी ने ही किया। “नमस्ते” अभिवादन के लिए उन्होंने ही बताया और देश में सभी के लिए एक ही अभिवादन पर जोर देकर एक सूत्र में बांधा। हिन्दी (आर्य भाषा) के महत्व को समझा और अपने सभी ग्रन्थों की रचना हिन्दी में लिखकर देश को एक भाषा में पिरोकर एक होने का मंत्र दिया। आओ, उस महान आत्मा के 200 वीं जयन्ती पर उन्हें नमन करते हैं और उनके बताए हुए पद पर चलकर संसार को श्रेष्ठ बनाएं और वेदों की ओर लौटते हैं।
भक्त राम, प्रधान, स्वतन्त्रता सेनानी पंडित गंगाराम स्मारक मंच