डॉ बी आर अम्बेडकर जयंती पर विशेष : “शिक्षा शेरनी का दूध जैसा है, जो पियेगा वह दहाड़ेगा ही”

आज (14 अप्रैल 2024) डॉ बी आर अम्बेडकर की 133 वीं जयंती है। यदि कहा जाए कि बाबा साहेब अंबेडकर के व्यक्तित्व की व्याख्या भारतीय जनमानस में अब एक नया विमर्श है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। आपको जानकर हैरानी होगी कि जिस देश में डॉ अंबेडकर जैसा मसीहा पैदा हुआ और अपने कर्मों, संघर्षों व विद्वता से भारत के संविधान निर्मात्री सभा का अध्यक्ष बना उसे व उसके इतिहास व विचारों को भुला नहीं बल्कि जानबूझकर दबा दिया गया ताकि डॉ अंबेडकर की ज्ञान आभा के सामने कई चमचमाते चेहरे धूमिल न हो जाएं।

“शिक्षा शेरनी का दूध जैसा है, जो पियेगा वह दहाड़ेगा ही।”

आज से 40-45 वर्ष पहले तक डॉ अंबेडकर के जीवन, उनके दर्शन आदि पर किताबें भी नहीं मिलती थीं। क्योंकि बहुत कम लोग डॉ अंबेडकर को जानते थे और जो जानते थे, वे भी बहुत कम डॉ अंबेडकर के बारे में जानते थे। डॉ अंबेडकर के आज जो उभार आया है। उनके उपर जो विचार-विमर्श किए जाने लगे हैं वे अभी मात्र 40-45 वर्ष के अंतराल के हैं। डॉ अंबेडकर के व्यक्तित्व को सामाजिक पटल पर विचार-विमर्श के लिए प्रस्तुत करने वालों में कुछ समाजसेवियों, कम्यूनिस्टों, साहित्यकारों, शिक्षाविदों, वैज्ञानिक विचारकों, वंचित-शोषित-अल्पसंख्यक वर्गों के विद्वान शामिल हैं, जिन्होंने डॉ अंबेडकर के व्यक्तित्व एवं विचारों को जिंदा रखा। डॉ अंबेडकर के विचारों एवं उनके कृतित्व एवं व्यक्तित्व में अचानक उभार 1980 के बाद आया। जब आजाद भारत के अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों व अन्य पिछड़े वर्गों के पहली पीढ़ी के लोगों में शिक्षा का संचार हुआ। उनके अंदर ज्ञान व स्वतंत्र चिंतन का विस्तार हुआ। यहां बाबा साहेब का एक कथन प्रस्तुत करना चाहती हूँ। बाबा साहब अक्सर कहा करते थे- “शिक्षा शेरनी का दूध जैसा है, जो पियेगा वह दहाड़ेगा ही।”

अधिकारों का परिणाम

बाबा साहेब द्वारा संविधान में दिए गए अधिकारों का परिणाम अब भारत के सामाजिक पटल पर दिखने लगा था। समाज के सभी वंचित वर्गों में अपने अधिकार को हासिल करने की लालसा जागने लगी। समाज के हाशिए पर पड़े लोगों के साथ-साथ महिलाओं, मजदूरों, किसानों, सरकारी कर्मचारियों, किन्नरों आदि ने अपने अधिकारों के लिए आवाज बुलंद करना आरंभ कर दिया। अर्थात भारत वास्तव में एक आजाद लोकतांत्रिक देश बनने की दिशा की ओर बढ़ने लगा।

मान्यवर कांशीराम

राजनीतिक रुप से डॉ अंबेडकर के विचारों का प्रचार-प्रसार जितना मान्यवर कांशीराम जी ने किया उतना किसी और ने नहीं किया। यदि कहा जाए कि ‘मान्यवर कांशीराम जी ने बाबा साहेब डॉ अंबेडकर की विचारधारा को प्रांजल और प्रखर बनाया’ तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। क्योंकि कांशीराम ने पूरे देश में डॉ अंबेडकर के विचारों उनके व्यक्तित्व व कृतित्व का प्रचार-प्रसार किया व अपने समर्थकों से कराया। कांशीराम का जिक्र विशेष रुप से यहाँ इसलिए किया जा रहा है कि कांशीराम के आंदोलन से पीड़ित व वंचित वर्गों को अपने वोट की ताकत पता चला। जिसके कारण भारतीय राजनीति में भारी बदलाव आया। सभी राजनीतिक पार्टियाँ वंचित वर्गों एवं डॉ अंबेडकर के आदर्शों को अपनाने की नाटक करने लगीं।

लोकतांत्रिक समाजवाद

लेकिन बाबा साहब अंबेडकर व उनके विचार राजनीतिक नाटकों से बहुत उपर हैं। उनका मानना था कि भारत के पिछड़ेपन का मुख्य कारण भूमि वितरण-व्यवस्था की खामियाँ है। वे चाहते थे कि खेती की जमीन पर सरकार का आधिपत्य हो और भारत में भूमि का वितरण एक प्रणालीबद्ध तरीके से हो ताकि लोकतांत्रिक समाजवाद आए और उससे देश की आर्थिक कार्यक्षमता एवं उत्पादकता में वृद्धि हो तथा ग्रामीण अर्थव्यवस्था का कायापलट हो। जैसा कि हम देखते है आज भी गांवों में बड़े-बड़े किसान जिनके पास खेती की जमीन इतनी अधिक है कि वे अपनी खेती वैज्ञानिक तरीकों से नहीं करा पाते। इससे देश की प्राकृतिक संपदा का उपयोग सुचारू ढंग से नहीं हो पाता। यदि खेती को एक को-ऑपरेटिव की तरह किया जाता और उसके साथ औद्योगिक संगठनों जैसा दर्जा दिया जाता तो आज किसान आंदोलन जो देश में दिख रहा है, वह शायद नहीं होता। किसान या उसकी को-ऑपरेटिव अपनी उपज की कीमत स्वयं तय करते। लेकिन आज तक ऐसा नहीं हो सका है। यदि ऐसा हुआ होता तो बहुत हद तक ग्रामीण जनता खुशहाल होती। क्योंकि लोगों को गांव में काम मिल जाता और शहरों में जनसंख्या का विस्फोट भी नहीं होता। डॉ अंबेडकर का यह विचार महात्मा गाँधी जी का विचारों कि ‘भारत गावों में बसता है।’ एवं ‘भारत की अर्थव्यवस्था कुटीर उद्योगों पर आधारित होनी चाहिए।’ के बहुत करीब था। डॉ अंबेडकर खेती में भी वैज्ञानिक चिंतन का समावेश चाहते थे।

मानव जीवन के स्वाभिमान के लिए ताउम्र लड़ा

जब भी भारत के सामाजिक एवं आर्थिक मुद्दों की बात हो और डॉ. बी आर अंबेडकर का जिक्र न हो, इसका अर्थ है कि हम विषय के साथ न्याय नही कर रहे हैं। बिना बाबा साहेब को पढ़े व जाने हम भारत के सामाजिक एवं आर्थिक मुद्दों को न समझ सकते हैं और न ही उस पर तर्क कर सकते हैं। मनुष्य जब अपनी समस्याओं को समझने की क्षमता हासिल कर लेता है, तब अपनी समस्याओं का हल शीघ्र ढूँढ लेता है। बाबा साहेब में समस्याओं को समझने की समझ बेमिसाल थी। उन्होंने अपनी समस्याओं को अपनी कमजोरी कभी नहीं बनने दी। बल्कि उन्होंने बड़ी कुशाग्रता व शीघ्रता से समस्याओं को समझ लिया। इसलिए समानता के लिए अपने संघर्ष में उन्होंने कभी बदले की भावना नहीं बल्कि समस्याओं के निराकरण करना चाहा। उन्होंने पूरी जिन्दगी सामाजिक संघर्ष किया एवं मानव जीवन के स्वाभिमान के लिए ताउम्र लड़ा।

सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक-लैंगिक रूप से मजबूत

हालांकि अर्थशास्त्र उनका पसंदीदा विषय था। वे विधार्थी जीवन से ही अर्थशास्त्र विषय से प्रभावित थे। उन्होंने अपनी स्नातक से लेकर पीएचडी तक की पढाई अर्थशास्त्र विषय में ही की और वह भी दुनिया के श्रेष्ठतम विश्वविद्यालयों से। अर्थशास्त्र के विभिन्न पहलुओ पर उनके शोध उल्लेखनीय है, लेकिन डॉ. अंबेडकर को केवल दलितों एवं पिछड़ों के मसीहा तथा भारतीय संविधान निर्माता के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, उनके अर्थशास्त्रीय पक्ष को उभारने का प्रयास बहुत कम किया गया। डॉ. अंबेडकर की पहचान यदि एक अर्थशास्त्री के रूप में नही बन पाई तो इसका कारण यह है कि 1923 में भारत लौटने के बाद वे देश की सामाजिक एवं राजनीतिक व्यवस्था को बदलने के लिए समर्पित हो गए और अर्थशास्त्र विषय तथा आर्थिक मुद्दों पर अपना शोध जारी नही रख पाए वे भारत आने के बाद भारत में व्याप्त सामाजिक कुरुतियों की समाप्ति के कार्य में लग गए। सामाजिक मुद्दों पर काम करते हुए भी उनके कार्य को देखा जाए तो ये कहीं ना कहीं आर्थिक पक्ष के साथ भी जुड़े हुए दिखाई देते हैं, जब वे महिलाओं को उद्यमी बनाने की बात करते हैं या फिर दलितों को उद्यमी बनाने में सरकार की सहायता की बात करते हैं, तो इससे स्पष्ट होता है कि वे समाज को सिर्फ सामाजिक रूप से ही मजबूत नहीं बनाना चाहते थे, बल्कि वे देश के सभी क्षेत्रों के नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक-लैंगिक रूप से मजबूत बनाना चाहते थे। इसका प्रमाण उनके द्वारा लिखे गए संविधान में भी स्पष्ट दिखाई देता है।

आर्थिक उत्थान के बिना कोई भी सामाजिक एवं राजनीतिक भागीदारी संभव नही

उनका मानना था- “आर्थिक उत्थान के बिना कोई भी सामाजिक एवं राजनीतिक भागीदारी संभव नही होगी।” डॉ. अंबेडकर ने भारतीय मुद्रा (रुपए) की समस्या, महंगाई तथा विनिमय दर, भारत का राष्ट्रीय लाभांश, ब्रिटिश भारत में प्रांतीय वित्त का विकास, प्राचीन भारतीय वाणिज्य, ईस्ट इंडिया कम्पनी का प्रशासन एवं वित्त, भूमिहीन मजदूरों की समस्या तथा भारतीय कृषि की समस्या जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर शोध ही नहीं किया बल्कि इन मुद्दों से सम्बंधित समस्याओं के तर्किक एवं व्यावहारिक समाधान भी दिए। 20वीं सदी के शुरुआत में विश्व के लगभग सभी प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने डॉ अंबेडकर के अर्थशास्त्र विषय की समझ तथा उनके योगदान को सराहा और उनके शोध पर महत्वपूर्ण टिप्पणी भी की। नोबेल पुरस्कार से सम्मानित भारतीय अर्थशास्त्री आमर्त्य सेन ने अपने एक साक्षात्कार में कहा- “डॉ. अंबेडकर अर्थशास्त्र के विषय में वे मेरे पिता हैं।” इससे इस बात की पुष्टि होती है कि डॉ अंबेडकर एक महान अर्थशास्त्री रहे हैं। वे सन 1917 में पी एच डी का शोध कार्य पूरा कर पाए, उनकी एमए की थीसिस का विषय ‘प्राचीन भारतीय वाणिज्य’ (Ancient Indian Commerce) था, जो कि प्राचीन भारतीय वाणिज्य के प्रति उनकी समझ को दर्शाता है। इस थीसिस में उन्होंने प्राचीन भारतीय वाणिज्य की समस्याओं को रखा तथा उनके संभावित कारगर समाधान भी बताया है।

“The Problem of the Rupee – Its origin and its solution”

डॉ अंबेडकर ने आर्थिक एवं सामाजिक असमानता पैदा करने वाले पूंजीवादी व्यवस्था को ख़त्म करने की पुरजोर वकालत की। सन 1923 में वे लन्दन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स से डीएससी (अर्थशास्त्र) की डिग्री प्राप्त की। अपने डीएससी की थीसिस “The Problem of the Rupee – Its origin and its solution” में उन्होंने रुपए के अवमूल्यन की समस्या पर शोध किया, जोकि उस समय के शोधों में सबसे व्यवहारिक तथा महत्वपूर्ण शोध था। बाबा साहब ने 1923 में वित्त आयोग की बात करते हुए कहा कि हर 5 वर्षों के अंतर पर वित आयोग की रिपोर्ट आनी चाहिए। भारत मे रिजर्व बैंक की स्थापना का खाका तैयार करने और प्रस्तुत करने का काम बाबा साहब अंबेडकर ने किया (1925 Hilton Young Commission) इसे रिज़र्व बैंक आफ इंडिया ने माना और अपनी स्थापना के 81 साल होने पर बाबा साहब के नाम पर कुछ सिक्के भी जारी किये गये।

देश में बड़े उद्योगों की स्थापना करने पर बल

डॉ. अंबेडकर ने देश में बड़े उद्योगों की स्थापना करने पर बल दिया। लेकिन संपूर्ण भारत के समन्वित विकास के लिए कृषि को समाज की रीढ़ की हड्डी भी माना। औद्योगिक क्रांति पर ज़ोर देने के साथ-साथ उनका यह भी कहना था की कृषि को नज़र अंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि कृषि से ही देश की बढ़ती आबादी को भोजन और उद्योगों को कच्चा माल मिलता हैं। जब देश का तेज़ी से विकास होगा तब कृषि वह नींव होगी, जिस पर आधुनिक भारत की इमारत खड़ी की जाएगी, इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अंबेडकर ने कृषि क्षेत्र के पुनर्गठन के लिए क्रांतिकारी कदम उठाने की वकालत की। जैसा कि मैंने ऊपर कहा है कि वे कृषि योग्य भूमि के राष्ट्रीयकरण के प्रमुख पैरोकर थे।

भारतीय अर्थव्यवस्था को एक न्यायसंगत अर्थव्यवस्था के रूप में स्थापित करना

डॉ. अंबेडकर भारतीय अर्थव्यवस्था को एक न्यायसंगत अर्थव्यवस्था के रूप में स्थापित करना चाहते थे, जिसमें समानता हो, गरीबी, बेरोजगारी और महंगाई ख़त्म हो, लोगों का आर्थिक शोषण न हो तथा सामाजिक न्याय हो। कई बार तो लगता है कि डॉ. अंबेडकर ने यदि केवल अर्थशास्त्र को ही अपना कॅरियर बनाया होता तो संभवत: वे अपने समय के दुनिया के बहुत प्रसिद्ध अर्थशास्त्रियों में से एक होते। हालांकि भारतीय अर्थव्यवस्था को एक मजबूत दिशा देने में डॉ. अंबेडकर का योगदान किसी भी अर्थशास्त्री से कहीं ज्यादा है।

औद्योगीकरण और शहरीकरण

जैसा कि मैंने कहा डॉ अम्बेडकर की बौद्धिक ऊर्जा आर्थिक विश्लेषण के बजाय राजनीति और सामाजिक परिवर्तन के लिए अधिक समर्पित थी, लेकिन राजनीति पर उनके लेखन और भाषणों में भी आर्थिक मुद्दों और राजनीतिक अर्थव्यवस्था के सवालों के साथ गहरा जुड़ाव झलकता है, ऐसी राजनीतिक धारा सदैव समय की मांग है और डॉ अंबेडकर का यह आर्थिक चिंतन हमेशा प्रासंगिक है। जिस तरह आज उनकी राजनीति को सभी प्रकार के राजनेताओं द्वारा हथियाया जा रहा है, उसी तरह उनका अर्थशास्त्र आज वामपंथ और दक्षिणपंथ के बीच युद्ध का मैदान बन गया है, जिसमें दोनों पक्ष दावा कर रहे हैं कि वह वास्तव में उनके पक्ष में हैं। लेकिन अंबेडकर के लेखन को ध्यान से पढ़ने से यह धारणा खारिज हो जाती है कि वह या तो अहस्तक्षेप अर्थव्यवस्था के चैंपियन थे या क्रांतिकारी समाजवादी थे। वे औद्योगीकरण और शहरीकरण के पक्ष में बात करते थे, लेकिन साथ ही पूंजीवाद की बुराइयों के बारे में भी चेतावनी देते थे और तर्क देते थे कि निरंकुश पूंजीवाद उत्पीड़न और शोषण की ताकत में बदल सकता है, जो आज दिखाई देने लगा है।

श्रमिक वर्ग के हित में महत्वपूर्ण भूमिका

अब आते हैं डॉ अंबेडकर के श्रमिकों के लिए किए गए प्रयासों के मुद्दे पर। यहाँ हमें यह जान लेना चाहिए कि बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर आजादी से पहले वॉयसरॉय की परिषद के श्रम सदस्य के रूप में काम कर चुके थे जिसे हम श्रम मंत्री भी कह सकते हैं। डॉ. अम्बेडकर ने श्रम मंत्री के रूप में 1942-1946 तक अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। इस सीमित कालखंड में बाबा साहेब ने श्रमिक वर्ग के हित में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। उन्होंने खुद भी मजदूर संगठनों के बीच काम किया और उनकी समस्याओं को करीब से समझा। हालाँकि कतिपय राजनीतिक पार्टियों के बहकावे में आकर किए जाने हड़तालों का उन्होंने आलोचना भी की और श्रमिकों को उनसे दूर रहने के लिए कहा। इसके लिए राजनीतिक पार्टियों ने उनकी आलोचना भी किया। उनका मानना था कि बार-बार हड़ताल से संगठन व श्रमिक दोनों को नुकसान होता है। सामान्यतया श्रमिक गरीब होते हैं और हड़ताल से उनकी आर्थिक स्थिति और खराब होती है और संगठन कमजोर होता है। लेकिन जायज मांगों का वे समर्थक थे। श्रमिकों की समस्याओं के समाधान के आन्दोलन के कारण सन 1934 में वे बम्बई म्युनिसिपल कर्मचारी संघ के अध्यक्ष चुने गए और 15 सितम्बर 1938 को जब बम्बई विधानसभा में मजदूरों द्वारा हड़ताल करने से रोकने के लिए इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट बिल लाया गया तो उन्होंने इसका जमकर विरोध किया था। उन्होंने उस समय के मजदूर संगठनों के साथ मिलकर इस बिल के विरोध में आन्दोलन चलाया और अपने भाषण में मजदूर संगठनों से हड़ताल पर जाने की अपील भी की। उसके बाद उन्हें सफलता भी मिली और यह श्रमिक विरोधी बिल रद्द हो कर दी गई।

मजदूरों को रोटी, कपड़ा और मकान और निरोगी जीवन

रेलवे मजदूरों के एक सम्मेलन में 1938 में अध्यक्षीय भाषण करते हुए डॉ अंबेडकर ने कहा कि यह बात सच है कि अभी तक हम अपनी सामाजिक समस्याओं को लेकर ही संघर्ष कर रहे थे, किन्तु अब समय आ गया है जब हम अपनी आर्थिक समस्याओं को लेकर संघर्ष करें। बाबा साहेब की श्रमिक वर्ग के अधिकारों एवं कल्याण के प्रति चिंता उन शब्दों में परिलक्षित होती है जो उन्होंने 9 सितम्बर 1943 को लेबर परिषद के उद्घाटन के समय औद्योगिकीकरण विषय पर बोलते हुए कही थी। उन्होंने कहा था कि पूंजीवादी संसदीय प्रजातांत्रिक व्यवस्था में दो बातें जरूर होती हैं। पहली, जो लोग काम करते हैं उन्हें गरीबी में रहना पड़ता है और दूसरी जो काम नहीं करते उनके पास अथाह दौलत जमा हो जाती है। इससे एक ओर राजनीतिक समता तो आती है लेकिन दूसरी ओर आर्थिक विषमता बढ़ जाती है। बाबा साहब की उस बात को आज हम 2024 में महसूस कर रहे हैं। बाबा साहेब मानते थे कि जब तक मजदूरों को रोटी, कपड़ा और मकान और निरोगी जीवन नहीं मिलता एवं विशेष रूप से जब तक सम्मान के साथ अपना जीवन-यापन नहीं कर सकते, तब तक स्वाधीनता कोई मायने नहीं रखती। हर मजदूर को सुरक्षा और राष्ट्रीय सम्पत्ति में सहभागी होने का आश्वासन मिलना जरूरी है।

समुचित संगठन, कानून में आवश्यक सुधार, श्रमिकों के न्यूनतम वेतन

बाबा साहेब का जोर इस बात पर हमेशा रहा कि श्रम का महत्व बढ़े, उसका मूल्य बढ़े। उन्होंने दिसम्बर, 1945 में श्रम आयुक्तों की एक विभागीय बैठक बम्बई सचिवालय में आयोजित की थी। इस बैठक में दिया गया उनका उद्घाटन भाषण अदभुत है। उन्होंने कहा कि औद्योगिक झगड़ों को निपटाने के लिए तीन बातों का ध्यान रखना बहुत जरूरी है- समुचित संगठन, कानून में आवश्यक सुधार, श्रमिकों के न्यूनतम वेतन का निर्धारण।

सामाजिक दूरियां और अशुद्ध भेदभाव

डॉ अंबेडकर का साफ तौर पर मानना था कि जिस तरह से कार्ल मार्क्स ने मालिक तथा मजदूर के नाम से दो वर्गों में समाज को विभाजित किया है, भारतीय परिस्थितियों में यह विभाजन नितांत गलत है। इस तरह का स्पष्ट विभाजन भारत में नहीं हो सकता। सभी मजदूरों को मिलाकर एक वर्ग समूह बन जाता है। परन्तु भारत में ऐसा करना सम्भव नहीं है। भारत की सामाजिक संरचना अलग है। मजदूरों के अन्दर सामूहिक एकता लाने के लिए उन्हें यह समझना होगा कि उनके आपस की जो सामाजिक दूरियां और अशुद्ध भेदभाव हैं वे दूर होने चाहिए। उन्होंने आगे कहा कि मैंने किसी भी श्रमिक नेता को इस सामाजिक भेदभाव के विरोध में बोलते हुए नहीं सुना।

श्रमिक, मालिक और सरकार का त्रिपक्षीय संगठन का सम्मेलन

डॉ. अम्बेडकर के विशेष प्रयासों के कारण ही श्रमिक, मालिक और सरकार का त्रिपक्षीय संगठन का सम्मेलन अगस्त 1945 को आयोजित हुआ। इस सम्मेलन के बाद मजदूर-श्रमिक असहाय नहीं रहे। सरकार को उनके समर्थन एवं सुरक्षा में खड़ा होना पड़ा एवं सरकार को उनके हितों के संरक्षण में कानून बनाने पड़े। श्रम मंत्री के रूप में उन्होंने 9 दिसम्बर, 1943 को धनबाद के कोयला खदान मजदूरों की कॉलोनी का दौरा किया। वहां उन्होंने कोयला खदान मजदूरों की दयनीय दशा को बहुत करीब से देखा था। इस सम्मेलन में डॉ. अम्बेडकर ने ऐतिहासिक वक्तव्य दिया। उन्होंने साफ कहा कि मजदूरों और मालिकों के उद्देश्य समान हैं। इस सम्मेलन के भी मुख्य रूप से निम्न उद्देश्य हैं- मजदूरों के लिए कानून बनाना, औद्योगिक विवादों को निपटाने के लिए एक पद्धति का निर्माण करना, पूरे भारत के मजदूर-मालिक सम्बन्धों की चर्चा करना। बाबा साहेब चाहते थे कि सरकार की राष्ट्रीय श्रम नीति निश्चित होनी चाहिए और उसे बनाने में मजदूरों को बराबर का सहयोगी होना चाहिए।

मजदूरों के न्यूनतम वेतन की चर्चा

सरकार की श्रम नीति का व्यापक स्वरूप बनाने के लिए उनके श्रम मंत्री के कार्यकाल में कुल चार त्रिपक्षीय सम्मेलन आयोजित किए गए। इन सम्मेलनों में मजदूरों के न्यूनतम वेतन की चर्चा हुई। कम्पनी अधिनियम के आधार पर काम के घण्टे तय किए गए। मजदूरों के लिए भविष्य निधि की चर्चा हुई। अधिक समय काम के बदले अलग से मेहनताना अर्थात ओवर टाइम की व्यवस्था हुई। सस्ते मूल्य पर अनाज देने की व्यवस्था हुई। कम्पनी के अंदर सस्ते दर के जलपान गृह एवं अस्पताल की व्यवस्था की गई। विश्राम स्थल की सुविधाएं उपलब्ध कराने पर चर्चा हुई। यहाँ हमें एक बात का ध्यान रखना चाहिए कि बाबा साहेब ने आजादी से पहले अंग्रेज सरकार से इन सुविधाओं का प्रावधान कराया। बाबा साहेब ने अपने श्रम मंत्री के कार्यकाल के दौरान श्रमिकों के हित में लगभग 25 कानूनों का निर्माण किया और उनका क्रियान्वयन करवाया। सातवें भारतीय श्रम सम्मेलन में 27 नवम्बर 1942 को डॉ. अम्बेडकर ने आठ घण्टे काम का कानून रखा था। इस कानून को बनाते समय उन्होंने कई महत्वपूर्ण बातें कही थीं. उन्होंने कहा था कि काम के घण्टे घटाने का मतलब है रोजगार बढ़ना है। इस कानून के मसौदे को रखते हुए उन्होंने जोर देकर कहा था कि कार्य अवधि 12 से 8 घण्टे किए जाते समय किसी भी स्थिति में वेतन कम नहीं किया जाना चाहिए।

महिला और पुरुष मजदूरों की मजदूरी को समान

उन्होंने महिला और पुरुष मजदूरों की मजदूरी को समान कराया। नहीं तो महिला मजदूरों को पुरुषों की अपेक्षा आधी मजदूरी मिलती थी। महिलाओं के प्रति डॉ. अम्बेडकर का दृष्टिकोण उस समय के कई राष्ट्रीय नेताओं से अधिक व्यापक था। श्रम मंत्री के रूप में उन्होंने महिला मजदूरों के हितों को संरक्षित करने के लिए भी कानून बनाए। ये कानून ही बाद में चलकर बिना किसी लैंगिक भेदभाव के समान काम के लिए समान वेतन सम्बन्धी कानून का आधार बने। उन्होंने खदान मातृत्व लाभ कानून, महिला कल्याण कोष, महिला एवं बाल श्रमिक संरक्षण कानून, महिला मजदूरों के लिए मातृत्व लाभ एवं मातृत्व अवकाश कानून के साथ-साथ कोयला खदान में महिला मजदूरों से काम न कराने सम्बन्धी कानून बनाए।

कृषि क्षेत्र में कार्यरत मजदूरों के लिए भी कई कानून बनाए

मजदूरी के एक अन्य दूसरे पक्ष अर्थात ग्रामीण मजदूरों के सम्बन्ध में भी डॉ. अम्बेडकर का दृष्टिकोण काफी व्यापक था। वे यह अच्छी तरह जानते थे कि भारत एक कृषि प्रधान देश है और यहां के श्रमिकों का अधिकांश हिस्सा खेतिहर मजदूर के रुप में कार्यरत है। खेतिहर मजदूरों के शोषण से वे भलीभांति परिचित थे इसलिए उन्होंने कृषि क्षेत्र में कार्यरत मजदूरों के लिए भी कई कानून बनाए। वे कृषि मजदूरों के हितों के संरक्षण के लिए भूमि सुधारों को भी जरूरी शर्त मानते थे। इस मामले में वे राजकीय समाजवाद के पक्षधर थे इसीलिए उन्होंने भूमि सुधारों और आर्थिक गतिविधियों में राज्य के हस्तक्षेप का जोरदार ढंग से समर्थन किया। उन्होंने कृषि को राजकीय उद्योग की मान्यता देने की बात कही। बाबा साहेब के प्रयासों के कारण ही मुख्य श्रम आयुक्त, प्रोविंशियल श्रम आयुक्त, श्रम निरीक्षक जैसे सरकारी पद सृजित किये गए। ये अधिकारी श्रमिकों के हितों के संरक्षण का काम करते हैं और श्रमिक उनके पास अपनी समस्याओं के समाधान के लिए जाते हैं। इस तरह श्रम मंत्री रहते हुए डॉ अंबेडकर ने अपनी सूझ-बूझ और अनुभव के आधार पर ऐसे कई कदम उठाए जिनके द्वारा कई श्रम कानून अस्तित्व में आए और प्रभावपूर्ण ढंग से क्रियान्वयन हो सके।

जाति और महिला समस्या को जोड़कर देखा

अब मैं महिलाओं के पक्ष में कुछ बातें कहना चाहती हूँ, आजादी मिलने और संविधान लागू होने के पहले भारत में सवर्ण विचारकों ने जाति और महिला आंदोलन को अलग-अलग करके देखा है और इसे कोई समस्या ही नहीं माना। लेकिन बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर ने भारत में जाति और महिला समस्या को जोड़कर देखा और इसे देश के विकास में सबसे बड़ी बाधा के रुप में परिभाषित किया। मैं उनके एक कथन का यहां उल्लेख करना चाहती हूं, उन्होंने कहा था- “मैं किसी समाज के विकास का मापदंड उस समाज की महिलाओं की शिक्षा के स्तर को मानता हूं।”

नारी राष्ट्र की निर्मात्री है

भारतीय सामाजिक व्यवस्था पितृसत्तात्मक है। जो महिला शोषण को प्रोत्साहित करती है और पुरुष को प्रधानता प्रदान करती है। महिला का स्थान उससे नीचे हैं। बेटी को हीन नज़र से देखा जाता है। धार्मिक ग्रंथों, कथाओं और मुहावरों तक में उसे बोझ बताया जाता है। उसे पराया धन माना गया। नर्क का कारण बताया गया। ऐसी धारणा क्यों बनी? बाबा साहेब इसका विरोध करते हैं और कहते हैं “नारी राष्ट्र की निर्मात्री है।” उसके गोद में पलकर राष्ट्र का निर्माण होता है। फिर वह शोषण का शिकार क्यों बनती है? बाबासाहेब मानते थे कि इस तरह की परंपरा दलितों, पिछड़ों एवं महिलाओं का शोषण के लिए बनाई गई है। डॉ. आंबेडकर ने भारत में जाति और महिला समस्या को जोड़कर देखा, जैसा कि मैंने अभी कहा है। उन्होंने 1916 में कोलम्बिया यूनिवर्सिटी में एक प्रपत्र प्रस्तुत किया जिसका शीर्षक था– ‘भारत में जातियां–संरचना, उत्पत्ति और विकास’। इसमें उन्होंने दिखाया कि जाति की मुख्य विशेषता अपनी ही जाति में शादी करना है। कोई अपनी इच्छा से जाति से बाहर शादी न कर सके। इसलिए प्रेम करने पर भी रोक लगाई गयी है। यह अमानवीय एवं विभाजन करने वाली व्यवस्था है।

सती प्रथा, बालिका विवाह, विधवा विवाह पर रोक, प्रेम पर रोक

इस प्रपत्र में बाबा साहेब लिखते हैं– भारत में ऐतिहासिक रूप से अनुलोम संबंध बनते रहे हैं। अर्थात तथाकथित अपर कास्ट आदमी नीची जाति की औरत से यौन संबंध बनाता रहा है और इसे शास्त्रीय मान्यता भी है। जबकि प्रतिलोम यौन संबंध की अनुमति नहीं है। यानी अपर कास्ट की महिला अपने से नीची जाति के पुरुष से यौन संबंध नहीं बना सकती। भारत में महिला समस्याएं जैसे सती प्रथा, बालिका विवाह, विधवा विवाह पर रोक, प्रेम पर रोक आदि इसी से उत्पन्न हुई हैं। इनमें से काफी कुप्रथाएं ऐसी हैं, जो भारतीय समाज में अभी भी जारी है।

किसी भी समाज में स्त्री-पुरुष अनुपात लगभग समान

बाबा साहेब की व्याख्या है कि किसी भी समाज में स्त्री-पुरुष अनुपात लगभग समान होना चाहिए। यदि अनुपात समान नहीं होगा, तो पुरुष या महिला अतिरिक्त (सरप्लस) हो जाएंगे और उनका विवाह नहीं हो पाएगा, जिससे वे अवैध संबंधों के प्रति आकर्षित होंगे और समाज का संतुलन बिगड़ सकता है। इसलिए स्त्री-पुरुष दोनों के अधिकार समान होने चाहिए ताकि समाज निर्माण में दोनों का योगदान व अहमियत बनी रहे। बाबा साहेब ने विधवा विवाह, सती प्रथा, बाल विवाह, देवदासी प्रथा आदि जैसी अनेक कुरीतियों से बहुत नाखुश रहते थे। इसलिए उन्होंने संविधान में भी महिलाओं के हकों का भरपूर रक्षा की है। उन्होंने संविधान लागू होने के बाद भी महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई जारी रखा और हिंदू कोड बिल जैसे बिल को माध्यम से महिलाओं को और सशक्त करना चाहते थे। और जब वह बिल पास नहीं करा सके तो उन्होंने अपने मंत्रीपद से इस्तीफा दे दिया। हालाँकि उस बिल को पंडित नेहरू ने धीरे-धीरे उसके टुकड़े करके पास करा लिया।

मसीहा बाबा साहेब अंबेडकर

आज मैं दावे के साथ कह सकती हूँ कि यदि भारत में बाबा साहेब अंबेडकर जैसा मसीहा पैदा नहीं होता तो शायद मैं यहाँ यह बात कहने में सक्षम नहीं होती। हाल ही में आपने सुना होगा महामहिम राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मु जी ने कहा था- “बाबा साहब ने जरूर कुछ ऐसा किया है, जिसके कारण मैं आज यहाँ हूँ।” यही बात मैं भी दोहराना चाहती हूँ।

प्रांजल और नि:स्वार्थ जीवन

बाबा साहब का जीवन बिल्कुल प्रांजल और नि:स्वार्थ रहा है। उन्होंने जो कुछ किया समाज के हित को देखते हुए किया। अब जल्द ही लोकसभा का चुनाव होने वाला है। आप सभी अपने-अपने मताधिकार का उपयोग करके केंद्र में नई सरकार चुनने वाले हैं। आप को बाबा साहेब के प्रति शुक्रगुजार होना चाहिए कि उन्होंने व्यस्क मताधिकार का अधिकार देश के सभी नागरिकों को दिलाया। अन्यथा अनेक नेता चाहते थे कि वोट देने का अधिकार केवल पढे-लिखे लोगों या कुछ संभ्रांत लोगों तक ही सीमित रहे। बाबा साहेब ने इसके लिए बहुत लड़ा। तब जाकर यह अधिकार हमें मिला है। हमें इसे जाया नहीं करना चाहिए और बहुत सोच-समझकर अपना वोट जरूर देना चाहिए। यह हमारा लोकतांत्रिक अधिकार व दायित्व भी है।

लोकतंत्र के प्रबल समर्थक

बाबा साहेब लोकतंत्र के प्रबल समर्थक थे, उनका मानना था कि तानाशाही त्वरित परिणाम दे सकती है लेकिन वह सरकार का मान्य रूप नहीं हो सकती। लोकतंत्र श्रेष्ठ है क्योंकि यह स्वतंत्रता में अभिवृद्धि करता है। इसीलिए उन्होंने लोकतंत्र के संसदीय स्वरूप का समर्थन किया। उन्होंने ‘लोकतंत्र को जीवन पद्धति’ के रूप में महत्त्व दिया। अर्थात् लोकतंत्र का महत्त्व केवल राजनीतिक क्षेत्र में ही नहीं बल्कि व्यक्तिगत, सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में भी है। इसके लिए उन्होंने- “एक व्यक्ति–एक वोट” की बात कहीं ताकि लोकतंत्र की विचारधारा का निरंतर विकास होता रहे और लोग अपने अधिकारों के लिए सरकारों अथवा लोकसेवकों से प्रश्न कर सकें और समाज में साकारात्मक विचारों का निरंतर समावेश किया जा सके।

श्रेष्ठ भारत का निर्माण

अंत में एक बात कहना चाहती हूँ कि बाबा साहेब अंबेडकर के विचारों, सिद्धांतों की मूल बात यह है कि वे एक ऐसे भारत का निर्माण करना चाहते थे, जिसमें हर नागरिक चाए वह स्त्री हो या पुरुष या अन्य कोई, बिना जातिवाद, वर्गवाद, संप्रदायवाद, ऊंच-नीच आदि भेदभावों से रहित होकर अपनी बौद्धिक से अपने दायित्व के अनुसार देश की लोकतांत्रिक शक्ति को मजबूत बनाए और एक श्रेष्ठ भारत का निर्माण करें।

प्रोफेसर शकीला खानम, पूर्व डीन, फैकल्टी ऑफ आर्ट्स, डॉ बी आर अम्बेडकर ओपन यूनिवर्सिटी, हैदराबाद

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