विशेष : महाशिवरात्रि और महर्षि दयानंद सरस्वती

[नोट- इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के है। लेखक के विचार से संपादक का सहमत होना आवश्यक नहीं है]

महर्षि दयानंद सरस्वती का असली नाम मूलशंकर था। इनका जन्म 12 फरवरी 1824 को गुजरात राज्य के टंकारा, मोरबी जिला में धार्मिक एवं ब्राह्मण परिवार में हुआ। उनके पिता का नाम करशनजी लालजी तिवारी जी और माता का नाम यशोदाबेन था। उनका परिवार पौराणिक ईश्वर शिव के कट्टर भक्त थे। सन् 1838 की शिवरात्रि के दिन उन्होंने टंकारा के अपने पैतृक गांव में पिता की प्रेरणा व आदेश पर शिवरात्रि का व्रत यानी उपवास किया था। पिता ने उन्हें व्रत के बारे में जो-जो बात कही थी, उसका उन्होंने पूरी सत्यनिष्ठा से पालन किया। उन दिनों वहां की परंपरा के अनुसार लोग शिवालय में जाकर रात्रि जागरण करते थे।

मूलशंकर अपने पिता के साथ मंदिर गये और वहां जागरण, भजन, कीर्तन व पूजा-पाठ में भाग लिया। देर रात को सभी भक्त निद्रा के आगोश में आकर सो गये। स्वाभाविक रूप से निद्रा तो मूलशंकर को भी आई होगी। बालक होने के कारण औरों से जल्दीआई होगी। रात्रि जागरण का पूर्व का अभ्यास भी नहीं था। बौद्धिक दृष्टि से भी वह एक तकशील बालक था। इसीलिए अधिक आयु में जो प्रौढता, समझदारी, अनुभवीय ज्ञान होना चाहिए था, वह कम आयु होने के कारण उनमें नहीं था। कथा का जो महात्म्य पिता ने सुनाया था, उस पर विश्वास करके उन्होंने निद्रा पर विजय प्राप्त की थी।

आलस्य आने पर आंखों पर जल के छींटे मारकर व पुराणों की कथा के शिव को अपने मानस में उपस्थित कर वह जागृत अवस्था में पूरी तरह से सावधान बैठे। शिव के पिंडी पर अपने नेत्र जमाए हुए था। देर रात्रि जब सभी लोग प्रायः निद्राधीन हो चुके थे, तब मंदिर में एक छोटी सी घटना घटी परंतु उस छोटी सी घटना का परिणाम बहुत बड़ा हुआ। देखते ही देखते मंदिर के बिलों में से कुछ चूहे निकले और शिव की पिंडी पर चढ़ कर उछल – कूद करने लगे। वहां जो अन्न आदि पदार्थ भक्तों की ओर से चढ़ाए गये थे, उसे खाने लगे। संभव है वहां चूहे मल – विसर्जन भी किया हो। मूलशंकर ने जब यह दृश्य देखा तो उनके विश्वास को गहरी ठेस लगी।

उन्होंने सोचा कि शिव बलवान व सर्वशक्तिमान ईश्वर है। वह साधुओं की रक्षा व दुष्टों का संहार करते हैं। वह भक्तों की सभी मनोकामना को पूरा करते हैं और उनके भक्तों व उपासकों को सुख व शांति प्राप्त करते हैं। शिव से बड़े – बड़े बलवान राक्षस व शत्रु भी डरते व कंपायमान होते हैं। ऐसे स्वरूपवाला शिव उन क्षुद्र चूहों को अपने मस्तक पर क्यों उछल – कूद करने दे रहा है? क्या वह वास्तव में उन्हें भगाने में सक्षम है भी या नहीं ? यदि है तो भगा क्यों नहीं रहा है? क्या वह शिव – लिंग सच्चा शिव है या नहीं? यदि वह चूहों को भगा ही नहीं सकता तो फिर कथा के अनुसार जो लाभ भक्तों को प्राप्त होने की बात कही जाती है वह भी क्योंकर पूरी हो सकती है? इस प्रकार के ऊहापोह से वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि यह वह शिव नहीं है जिसका वर्णन पिता ने शिव पुराण की कथा में सुनाया था।

यह निश्चय हो जाने पर उन्होंने सो रहे अपने पिता को जगाया और उन्हें चूहों का वह दृश्य दिखाकर कई प्रश्न किये? पिता इस बात से मूलशंकर को संतुष्ट नहीं कर सके कि वह शिव अपने ऊपर से उन क्षुद्र चूहों को भगा क्यों नहीं रहे हैं? इस घटना से मूलशंकर का शिव- पूजा से विश्वास समाप्त हो गया। अपनी आशा व अपेक्षाओं के खंडित होने से निराश मूलशंकर पिता की आज्ञा लेकर देर रात्रि को शिवालय से घर पहुंचे और पिता की आज्ञा के व्रत न तोड़ना, को विस्मृत कर माता से भोजन लेकर अपनी क्षुधा शांत की और सो गए।

इस दिन की घटना से सच्चे शिव को जानने व उसकी प्राप्ति के लिए उनके मन में जिज्ञासा व संकल्प ने जन्म लिया। इसके कुछ समय बाद उनकी एक बहन व चाचा की मृत्यु हुई। इससे उन्हें संसार दुखमय व निस्सार लगने लगा। शिवरात्रि की घटना का ही प्रभाव था। वह लगभग 4 वर्षों बाद उनका विवाह होना था। वह अपने माता – पिता, भाई – बन्धु, परिजन, सखा – मित्र, घर व स्थान को छोड़कर सच्चे शिव को जानने व प्राप्त करने के लिए गृह – त्याग कर निकल पड़े।

भक्तराम, चेयरमैन स्वतंत्रता सेनानी पण्डित गंगाराम स्मारक

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