दीपावली दीपों का त्यौहार होता है। गरीब और अमीर सभी के लिए दीपावली त्यौहार का एक विशेष महत्व होता है। पुराने समय में हाथ की कारीगरी का नमूना दीपावली पर देखने को मिलता था। आज भी मिलता है। पर हम तड़क, भड़क में फंस गए हैं और मशीनी युग की और बढ़ रहे हैं। दिवाली एक ऐसा त्यौहार है जिसमें कोई अमीर हो या गरीब सभी अपनी हैसियत के हिसाब से दीपावली को रंगीन बनाने की कोशिश करते हैं। त्यौहार पर कुछ न कुछ जरूर खरीदते हैं। आज आवश्यकता से अधिक दिखावे का प्रचलन हो गया है। बाजार अनेक प्रकार के सामानों से पट गए हैं। जिसमें मशीनी सामान सस्ता सुंदर दिखाई देता है, जो बड़े उद्योगों को बढ़ावा देने वाला होता है, पर छोटे दुकानदारों का भी ध्यान रखा जाना चाहिए, छोटे दुकानदारों से सामान खरीदा जाए।
हमें अपनी पुरानी परम्परा नहीं भूलनी चाहिए मिट्टी के दीए, मिट्टी की मूर्तियां, तेल बाती का प्रयोग करके दिवाली को मनाना चाहिए, जिनका एक प्रकार से वातावरण के लिए वैज्ञानिक महत्व भी है। छोटे-छोटे कारीगर अपना सामान बनाकर बाजार में लाते हैं। उनकी बिक्री अच्छी होगी तो उनकी दीपावली भी अच्छे से मन पाएगी। हम कहीं घूमने जाएं या स्थानीय बाजारों में घूमें तो हमें वहां के कारीगरों द्वारा तैयार किया गया सामान अवश्य खरीदना चाहिए, ताकि उनका उत्साह वर्धन हो सके और वह अधिक से अधिक सामान तैयार कर सकें। इस खरीदारी को केवल दिवाली तक ही न सीमित किया जाए इसको बराबर बनाये रखा जाए और इसका भुगतान भारत की शान यूपीआई से किया जाए तो बेहतर रहेगा।
हालांकि देखने में आया है कि हर जगह छोटे दुकानदार छोटे-छोटे रेडी ठेले वालों पर यूपीआई मौजूद है जिससे भुगतान करना आसान हो गया है। हम एक पुरुष या एक महिला से जब दीए खरीदने जाते हैं तो दीए बेचने वाले से मोल भाव करते हैं। पर जब हम बड़े-बड़े मॉल में बड़ी-बड़ी दुकानों पर जाकर सामान खरीदते हैं, तो हम किसी भी प्रकार का मोल भाव उनसे नहीं करते हैं, तो इन छोटे ठेले वाले, रेड़ी वाले, या सड़क पर दुकान लगाकर बेचने वालों से क्यों मोलभाव करें। यह कारीगर बड़ी मेहनत से सामान बनाकर बाजार में इस उम्मीद से लाते हैं कि उनकी अच्छी बिक्री होगी तो उनके घर भी दिवाली शान से मन सकेगी।
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उन कारीगर के तन की मेहनत को हमें समझना चाहिए। उनकी मजबूरी का लाभ नहीं उठाना चाहिए और उनका अधिक से अधिक पोषण भी करना जरूरी होता है। हम एक ही देश के नागरिक हैं। हमें कभी यह नहीं भूलना चाहिए। मेहनतकश कारीगर को उनकी बनी चीजों का उचित दाम दे। तभी हमारी सच्ची दिवाली होगी। स्थानीय बनें सामानों को लेकर हम उनको आत्मनिर्भर बनने में मदद करें। मिट्टी के दीए, सरसों का तेल, हटरी, खील, बताशे, खांड के खिलौने, मिट्टी के लक्ष्मी गणेश जी आदि परंपरा को न भूले। इनको जीवित रखें और आने वाली पीढ़ी को भी इनका महत्व समझाएं। चकाचौंध की इस दुनिया में सच्ची और अच्छी दिवाली का स्वरूप न बदलें।
के पी अग्रवाल हैदराबाद