वर्ष 2015 में स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर प्रधान मंत्री जी ने कहा था- “आज हम जो आजादी की सांस ले रहे हैं। उसके पीछे लाखों महापुरूषों का बलिदान है। त्याग और तपस्या की गाथा है। जवानी में फांसी के फंदे को चूमने वाले वीरों की याद आती है।”
इसी आजादी को पाने के पीछे बहुत से ऐसे भी सूरमा रहे हैं जिनका नाम आज तक गुमनामी के अंधेरों में गायब है। उन्हें ऐसे अवसरों पर याद करना तो दूर पुस्तकों में भी उनकी कहीं चर्चा नहीं होती है। इसीलिए हमारा समाज अपने समाज के शहीद सपूतों का नाम तक नहीं जान पाया है। आजादी की वास्तविक कुर्बानी तो दलित जातियों के स्वतंत्रता सेनानियों की ही रही है। दलित साहित्यकारों की कलम अब इन गुमनाम दलित शहीदों का नाम जनमानस के सामने लाने का काम कर रही है। 1857 की क्रांति में भी खेतिहर मजदूर से लेकर मोची, धोबी, नाई यानि समाज का हर तबका शामिल था। उसमें शहर प्रशासन के खिलाफ डेरा डाला जाता था तो कई दिन तक चलता था। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से लेकर देश के आजाद होने तक की स्वाधीनता की हर लड़ाई में हमारे समाज के लोगों ने भी अपनी कुर्बानियाँ दी हैं।
आज जलियांवाला बाग की 103वीं बरसी है। 13 अप्रैल 2019 (100वीं बरसी पर) में खूब चर्चा में आया था, जब ब्रिटेन की प्रधानमंत्री टरीजा मे ने 1919 में जलियांवाला बाग हत्याकांड को भारत में ब्रिटिशकालीन इतिहास पर एक शर्मनाक धब्बा करार दिया। इस अवसर पर टरीजा मे ने उस नरसंहार पर गहरा अफसोस जताते हुए कहा, “1919 का जलियांवाला बाग त्रासदी ब्रिटिश-भारतीय इतिहास के लिए शर्मनाक धब्बा है। जैसा कि महारानी एलिजाबेथ द्वितीय ने 1997 में जलियांवाला बाग जाने से पहले कहा था कि यह भारत के साथ हमारे बीते हुए इतिहास का दुखद उदाहरण है।”
जलियांवाला बाग घटना की आज भी बड़े जोर-शोर से चर्चा की जाती है और प्रत्येक वर्ष इस घटना को याद किया जाता है। लेकिन सत्य तथ्य को दर्शाने से गैर-दलित बंगले झांकने लगते हैं या फिर चुप्पी साध कर रह जाते हैं। ये आज भी जानबूझ कर सच्चाई को सामने लाना नहीं चाहते। इसी घटना का यहाँ जिक्र करना चाहूँगा जिसके केंद्र में हमारे धोबी समाज के अमर शहीद रहे हैं। जलियांवाला बाग अमृतसर (पंजाब प्रांत) के स्वर्ण मंदिर के पास का एक छोटा सा बगीचा है जहाँ 13 अप्रैल, 1919 (बैसाखी के दिन) को रौलेट एक्ट का विरोध करने के लिए एक सभा हो रही थी। आजादी के दीवानों की इस सभा का आयोजन करने वाला महान क्रांतिकारी दलित योद्धा नत्थू धोबी था। उन्होंने इस सभा के आयोजन में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इस सभा के आयोजक नत्थू धोबी का जन्म 1839 में अमृतसर शहर के जवाहर धोबी के घर में हुआ था। आजादी दिलाने के खातिर जलियाँवाला बाग में अंग्रेजों द्वारा चलाई गई अंधाधुंध गोलियों में स्वतंत्रता की बलिवेदी धोबी समाज के इस वीर सपूत ने अपने प्राणों की आहुति दे दी।
उस दिन उस सभा में भारी संख्या में जुझारू दलित कार्यकर्ता ही शामिल हुए थे। ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर के नेतृत्व में अंग्रेजी फौज ने गोलियां चला के निहत्थे, शांत बूढ़ों, महिलाओं और बच्चों सहित सैकड़ों लोगों को मार डाला था और हज़ारों लोगों को घायल कर दिया था। इस सामूहिक हत्याकाण्ड में जो लोग शहीद हुए थे उनमें अधिकतर दलित और शोषित समाज के ही थे। इस बात का सबूत जनरल डायर के वे आंकड़े हैं जो यह दर्शाते हैं कि उस कांड में मारे गए 200 लोगों में से 185 दलित समाज के लोग थे। दुलिया धोबी का जन्म पीरू धोबी के घर पर अमृतसर में हुआ था। 13 अप्रैल 1919 को हो रही सभा में दुलिया भी मौजूद थे।
क्रांतिकारी दुर्गादास जब सभा को संबोधित कर रहे थे उसी समय जनरल डायर पुलिस बल के साथ आया और बाग को चारों ओर से घेर लिया। सशस्त्र बलों को देखकर कुछ लोग किसी अनहोनी की आशंका से उठने लगे। दुलिया ने जब यह देखा तो उसे लगा कि सभा में व्यवधान न पड़े इसलिए वह जनता को बैठाने, प्रेरित करने और निर्भीकता से बैठे रहने के लिए मंच की ओर दौड़ कर आए और एक ऊँची जगह पर खड़े हो कर जनरल दायर को ललकरते हुए कहा कि हम तुम्हारी गोलियों से डरने वाले नहीं हैं। हम मर मिटेंगे पर पीछे नहीं हटेंगे। आजादी को प्राप्त करने लिए हंसते हुए सीने पर गोली खाएँगे परंतु भारत माता कि गुलामी कि जंजीरें अवश्य तोड़ेंगे। इस नौजवान की इस तरह कि बातों को सुनकर जनरल डायर क्रोधित हो गया और उसने सिपाहियों को गोली चलाने का आदेश दे दिया। अपने लोगों पर गोलियां बरसाता देख दुलिया धोबी ने एक सैनिक की गन छीन ली थी, लेकिन तभी दूसरे सैनिक ने दुलिया के सीने में कई गोलियां दाग दी और अल्प आयु में धोबी समाज का यह जुझारू और बहादुर नौजवान अपने देश, माता-पिता सहित धोबी सामाज को भी देशभक्ति के लिए गौरवान्वित कर शहीद हो गया।
इस घटना में धोबियों के योगदान का पता इसी से लगाया जा सकता है कि अकेले घूरेम गांव के ही 13 धोबी गिरफ्तार कर लिए गए थे। दिल को दहला देने वाले इस कांड में अंग्रेजी फौज की गोलियों के शिकार हुए दलितों में सभा संयोजक नत्थू धोबी, बुद्धराम चूहड़ा, मंगल मोची, दुलिया राम धोबी आदि थे। पर अब तक कोई ऐसा ग्रंथ नहीं लिखा गया जो जलियांवाला बाग में धोबियों के अमूल्य योगदान का वर्णन पूरी तरह से कर सके। यह भी विदित हो कि इसी दिन नत्थू धोबी और दुलिया धोबी के साथ-साथ बुधराम चूहड़ा, मंगल मोची आदि ने भी देश की रक्षा के लिए क़ुरबान हो गए।
यदि इस घटना को आंकड़ों में देखें तो पाएँगे कि अमृतसर के डिप्टी कमिश्नर कार्यालय में मौजूद आंकड़े के अनुसार इस हत्याकांड में शहीद हुए 484 लोगों की सूची आज भी कार्यालय में लगी हुई है, जबकि जलियांवाला बाग में कुल 388 शहीदों की सूची है। ब्रिटिश राज के अभिलेख इस घटना में 200 लोगों के घायल होने और 379 लोगों के शहीद होने की बात स्वीकार करते हैं, जबकि अनाधिकारिक आंकड़ों के अनुसार इस गोलीकांड में एक हजार से ज्यादा लोग मारे गए और दो हजार से अधिक घायल हुए।
मात्र आकड़ों का अलग-अलग होना किसी घटना की गंभीरता को कम नहीं कर सकता। ध्यान देने वाली बात यह है कि इस नरसंहार को बीते हुए 100 वर्ष हो चुके हैं। पर इस नरसंहार के घाव आज भी हमारे दिलों में ताजा हैं। हम इस घटना को कैसे भूल सकते हैं? हम कैसे भूल सकते हैं उन निर्दोष जाबाजों को जिन्हें ब्रिटिश सरकार की एक सनक ने मौत के घाट उतार दिया था? हम यह कैसे यह भूल सकते हैं कि उस संहार में मरने वाले अधिकांश दलित परिवार से ही थे? हम यह कैसे भूल सकते हैं कि बुधराम चूहड़ा, मंगल मोची आदि वीर देश की रक्षा के लिए क़ुरबान हो गए? हम कैसे भूल सकते हैं कि जलियांवाला बाग में हो रही सभा का नेतृत्व हमारे धोबी समुदाय के जाबांज शहीद दुलिया और नत्थू धोबी ने अंग्रेजों का डटकर मुक़ाबला किया था? हम यह कैसे भूल सकते हैं कि धोबियों ने वहाँ पर हो रही सभा में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था? हम यह कैसे भूल सकते हैं कि अकेले घूरेम गांव के ही 13 धोबी गिरफ्तार कर लिए गए थे? हम कैसे भूल सकते हैं उस ‘खूनी कुएं’ को जिसमें बाग में मौजूद लोगों ने अपनी जान बचाने के लिए छलांग लगानी शुरू कर दी और देखते ही देखते वह कुआं भी लाशों से भर गया? हम कैसे भूल सकते हैं उस घटना को जिसकी ज्वाला शहीद ऊधम सिंह के सीने में धधक रही थी।
जिसका प्रतिशोध उन्होंने 21 वर्ष बाद 13 मार्च 1940 केक्सटन हॉल में इस घटना के जिम्मेदार माइकल डायर को गोली मार कर लिया और कोर्ट के समक्ष अपना पक्ष रखते हुए कहा कि डायर को उन्होंने इसलिए मारा, क्योंकि वो इसी के लायक थे। वो हमारे देश के लोगों की भावना को कुचलना चाहते थे। इसलिए मैंने उनको कुचल दिया है। मैं 21 वर्षों से उनको मारने की कोशिश कर रहा था और आज मैंने अपना काम कर दिया है। मुझे मृत्यु का डर नहीं है। मैं अपने देश के लिए मर रहा हूँ। 31 जुलाई 1940 को शहीद ऊधम सिंह हँसते-हँसते फाँसी के फंदे पर चढ़ गए। ये ‘अग्नि की लौ’ (शहीद होने वालों की याद में बना स्मारक) हमें इस घटना (इतिहास के सबसे बुरे नरसंहार) की याद दिलाता रहेगा। क्योंकि हमारे समुदाय के रणबांकुरे भी देश में ब्रिटिश शासन के अत्याचार के विरोध में अपने प्राणों की आहुति देने से पीछे नहीं हटे। यह घटना हमें यह भी दर्शाती है कि धोबी समुदाय हमेशा से दूसरों पर शोषण और दमन के खिलाफ लड़ता रहा है और लोगों की रक्षा करता रहा है। साथ ही अत्याचार, अन्याय और उत्पीड़न के खिलाफ डटकर मुक़ाबला करता रहा है तथा सामाजिक न्याय की लड़ाई के लिए अपने प्राणों की आहुति देने से कभी पीछे नहीं हटा।
आइए, हम सब मिलकर इस हत्याकांड में शहीद हुए वीरों को उनके 103वें शहीदी दिवस पर अपनी श्रद्धांजलि भेंट करें और यह प्राण लें कि हम अपने गौरवशाली इतिहास को अवश्य दर्ज करेंगे और अपने पुरखों के मार्गों का अनुसरण करते हुए पुनः शासक बनने की ओर अग्रसर होंगे।
इतिहास नहीं जानता वह कभी अपना इतिहास नहीं लिख सकता
डॉ आंबेडकर साहब ने कहा था कि जो समाज अपना इतिहास नहीं जानता वह कभी अपना इतिहास नहीं लिख सकता। अब तक अधिकतर पुस्तकों में दलितों और मजदूरों के आंदोलनों को बहुत अहमियत नहीं दी गई और न ही उन्हें इतिहास में दर्ज किया गया। कुछ दलित इतिहासकारों और साहित्यकारों ने दलितों और मजदूर जातियों के स्वतंत्रता की लड़ाई में योगदान का इतिहास तैयार करने कोशिश की है, जो कि बहुत ही सरहनीय कार्य है। किसी ने सही ही कहा है कि- हम इतिहास में दफन हैं और हमें दफनाने वालों का इतिहास पढ़ाया जा रहा है। इसलिए अब हमें स्वयं अपना इतिहास लिखना होगा और इसके लिए हमें पढ़ना होगा ताकि हम भी हर क्षेत्र में अपना वर्चस्व कायम कर सकें।
किसी ने सच ही कहा है-
शानदार था भूत, भविष्य भी महान है।
अगर संभालें आप उसे जो वर्तमान है॥
– लेखक नरेन्द्र दिवाकर (मोबाइन नंबर 9839675023)