‘खदान@1982’ पुस्तक प्रसिद्ध कहानीकार एन आर श्याम का सद्यप्रकाशित नाटक है. यह नाटक सिंगरेनी कोयला खदानों में 1982 में 56 दिनों का जो लम्बा ऐतिहासिक आंदोलन चला था उसी पर आधारित है. लेखक ने स्वयं इंडस्ट्रियल लाइफ गुजारा है। इसलिए खदान कामगारों की समस्याओं और संघर्षों को गहराई में जाकर अध्ययन करने की उन्हें सुविधा रही है. और इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि उन्होंने उनकी समस्याओं और संघर्षो को सफलता पूर्वक इस नाटक में उकेरा है. कामगारों के घर-परिवार में खदान किस तरह प्रवेश करती है, उनके आपसी रिश्तों में किस तरह दरार लाती है, किस तरह परिवार टूटते चले जाते हैं, इस नाटक में एक क्रम में बखूबी से दर्शाया गया है.
कोमरय्या एक कोयला खदान कामगार है. उसकी पत्नी एक सीधी-सादी गृहणी हैं. दोनों का आरम्भिक वैवाहिक जीवन बहुत ही हंसी-ख़ुशी से गुजरता रहता है. खदान को वे एक सोने का अंडा देने वाली मुर्गी समझते हैं. पर धीरे-धीरे उनका भ्रम टूटता चला जाता है. खदान के कोयला ढोने के काम का भार और वहां की असह्यनीय परिस्थितियों के कारण वह बहुत ही थका-हारा घर पहुंचता रहता है. उसके स्वाभाव में चिड़चिड़ापन आ जाता है. अपना सारा गुस्सा वह पत्नी पर निकलने लगता है. शराब पीना आरम्भ कर देता है. समस्या से डाइवर्ट होने के लिए वेश्यागमन का आदी हो जाता है. ड्यूटी पर भी बराबर नहीं जाता है. वेश्या को रखैल बना हर वक्त नसे में धुत वहीँ पड़ा रहता है. वह नरसम्मा को डाइवर्स भी दे देता है.
एन आर श्याम
नरसम्मा को अकेला और बेसहारा पा कोलियरी के गुंडे बदमाश जब-तब छेड़-छाड़ करने से बाज नहीं आते हैं. उनसे बचने के लिए मजबूरी में नरसम्मा का बूढ़ा बाप उसकी शादी उम्र में उससे बहुत ही बड़े एक अमीर विधुर के साथ कर देता है. वहां सब तरह की सुविधा रहती है, पर वह बहुत ही निर्दयी स्वभाव का रहता है. शादी के बाद नरसम्मा को पता चलता है कि उसकी पहली पत्नी अचानक जलकर नहीं मरी थी, बल्कि उसने उसके इसी निर्दयी स्वभाव से तंग आकर आत्महत्या की थी. नरसम्मा अपने आपको वहां व्यवस्थित करने का हर संभव प्रयास करती है, परन्तु जब स्थिति बरदास्त के बाहर हो जाती है तो वह फिर से वापस आ जाती है.
जब वह वापस आकर अपनी झोपड़ी में रहने लगती है तो एक दिन दो खदान कामगार युवक भागते हुए आकर उसकी झोपड़ी में छुप जाते हैं. पुलिस उन्हें ढूंढते हुए आकर न मिलने पर- ‘नक्सलाइट साले आँखों के सामने ही कहाँ गायब हो जाते हैं पता ही नहीं चलता है. लौंडिके लोग भी उन्हें अपने घरों में आराम से शेल्टर दे देते हैं’ कहते वापस चले जाते हैं.
दोनों में एक युवक रहीम है जो नरसम्मा का परिचित रहता है. जब वह खदान में नया-नया भर्ती हुआ था तो खदान में कोयले के भरभराकर गिरने से उसके साथ काम कर रहे साथी की ढेर के नीचे दबकर मृत्यु हो गयी थी. बहुत ही नर्वस हो चुका था. नरसम्मा के सामने गिड़गिड़ाते हुए उसने कहा था ‘दीदी खून के दाग सूखे भी न थे कि मुझे उसी जगह फिर से काम पर भेज दिया’ उस समय वह बहुत ही टूट चुका था. उस समय नरसम्मा ने ही उसे धैर्य साहस दिया था.
रहीम से वह पुलिस के पीछे पड़ने का कारण पूछती है तो रहीम बतलाता है कि पिछले 51 दिनों से वे लोग अपनी मांगों को लेकर हड़ताल कर रहे हैं. सारे खदान बंद पड़े हुए हैं. इसलिए पुलिस पीछे पड़ी हुई है. वह कहता है- ‘दीदी कोई आकर हमारी परिस्थिति को सुधारने वाला नहीं है. अपने हक़ के लिए अपनी लड़ाई हमें ही लड़ना है. कुछ अंतराल के बाद पुलिस फिर से आती दिखलाई देती है. दोनों वहां से भागते हैं. पीछे-पीछे पुलिस भी भागती है. पार्श्व से गोली चलने की आवाज और यहीं आकर नाटक समाप्त होता है.
इस तरह सिंगरेनी कोयला खदानों में 1981 में बिना किसी यूनियन के केवल कामगारों द्वारा ही 56 दिनों की जो लम्बी ऐतिहासिक हड़ताल चली थी उसकी एक झलक इस नाटक में है. यही नहीं इसमें प्रवासी मजदूरों की समस्या पर भी एक दृष्टि डाली गयी है। पटेल एक गुजराती खदान कामगार है. परिस्थितियों के चलते अपने बीबी बच्चों को गांव में ही छोड़ अकेला कोलियरी में पड़ा हुआ है. उसकी पीड़ा इस संवाद में व्यक्त होती है- “ये पेट सब करवाता है, पेट वतन से दूर करता है, बीबी बच्चों से दूर करता है, साल डेढ़ साल में बस दस-बारह दिनों के लिए उनकी सूरत देख आता हूँ. लोग कहते हैं ‘देखो ये गुजराती दो-तीन साल में एक बार घर जाता है पर, हर साल बीबी का खत जरूर आता है कि लड़का पैदा हुआ है, लड़की पैदा हुई’ कहकर और न जाने क्या क्या कहते है बस मन मसोसकर सुनते रहते हैं.
एक जगह उसका संवाद है- “घर से चिट्ठी आयी है लिखा है बेटा आवारा बन गया है. पी-पीकर मोहल्ले में मारपीट करता रहता है. रात-रात भर घर से गायब रहता है. बेटी का गर्भ ठहर गया है. मैं यहाँ परदेस में पड़ा हुआ हूँ. देखने वाला कोई नहीं है. फिर बच्चे बिगड़ेंगे नहीं तो और क्या करेंगे?” इस तरह नाटक में प्रवासी मजदूरों की समस्यावों को भी बखूबी से उभारा गया. इस नाटक की यह समस्या केवल एक गुजरती प्रवासी की ही नहीं है बल्कि रोजी-रोटी की तलाश में देश में ही एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में काम की तलाश में जाने वाले हर प्रवासी की है. यह प्रवासी छत्तीसगढ़ का हो सकता है, झारखण्ड का हो सकता है, पंजाब का हो सकता है, केरल का हो सकता है, तमिलनाडु का हो सकता है या फिर रोजी रोटी की तलाश में खाड़ी देशों की तरफ भागने वालों की भी हो सकती है.
इस नाटक में एक पागल भी है जो “खदान सबको खा रहा है… . खदान सबको खा रहा है कहता जहाँ-तहाँ घूमता रहता है. वह खदान में जब नया-नया आया था तो एकदम हट्टा-कट्टा नौजवान था. फिर कोमरय्या की तरह उसने भी शराब पीना आरम्भ कर दिया था. पीकर नशे में जहाँ-तहाँ पड़ा रहता. घर वाले किसी तरह उसे उठाकर ले आते. कभी ड्यूटी करता कभी नहीं करता. अंत में उसे नौकरी से निकाल दिया जाता है. घर वाले भी उसे छोड़कर कहाँ चले जाते हैं कोई पता नहीं रहता है. “खदान सबको खा रहा है… . खदान सबको खा रहा है” कहता वह अपने आप में ही बड़बड़ाता हुआ कोलियरी में घूमता रहता है और एक दिन गटर में गिरकर मर जाता है. कुछ ऐसे लोगों का हर कोयला खदान में दिखना सहज है.
इस तरह कोयला खदानों की इन असह्यनीय परिस्थितियों के कारण जहाँ एक तरफ परिवारों का टूटना, कामगारों का हताश-निराश होना, पी-पीकर नशे में धुत होते चला जाना बतलाया गया है, वही पर दूसरी तरफ इन परिस्थितियों को बदलने के लिए संघर्ष करते लोगों को भी बतलाया गया है. छोटे-छोटे प्रभावी संवादों के द्वारा इस नाटक का ताना-बाना बुना गया है. मेरी दृष्टि में कथानक अंत तक पाठकों को बांधे रखने में सफल है. तेलंगाना के सिंगरेनी कोयला खदानों का परिप्रेक्ष्य होने के बावजूद इसका फलक केवल यहीं तक सीमित नहीं है. यह भारत के किसी भी कोयला खदान की कहानी हो सकती है. कहीं भी परिस्थितियां इससे भिन्न नहीं है.
पुस्तक का नाम- खदान@1982(नाटक), लेखक एन आर श्याम
प्रकाशक: न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन नई दिल्ली
मूल्य 175 रुपये. मो: 8750688053
(यह अमेजान पर भी उपलब्ध है)
समीक्षक- लेखक, कवि और साहित्यकार देवाप्रसाद मायला, 9849468604