पुस्तक समीक्षा: लोक कल्याण की भावना से ओतप्रोत है- ‘हे नचिकेता’

प्रबंध काव्य ग्रंथ ‘हे नचिकेता’ भारतीय संस्कृति के श्रेष्ठतम उदात्त चरित्रों, सर्वश्रेष्ठ बाल महानायकों में सिरमौर एक परम तेजस्वी जिज्ञासु दार्शनिकवृत्ति अद्भुत बालक नचिकेता पर आधारित आध्यात्मिक कथानक है। कठोपनिषद में यह दिव्य आध्यात्मिक प्रकरण विस्तार से वर्णित है। इसके अतिरिक यह कथा महाभारत के अनुशासन पर्व, वाराह पुराण और तैत्तिरीय ब्राह्मण इत्यादि सनातन ग्रंथों में न्यूनधिक रूप में पाई जाती है। इस पर अनेक विद्वानों ने भी प्रासंगिक चर्चा और स्फुट वर्णन हमने अपनी पाठ्य पुस्तकों में भी पढ़ा है, किंतु इस कथानक का जैसा क्रमिक और संपूर्ण वर्णन अपनी आध्यात्मिकता और पूरी दार्शनिक अभिव्यक्ति और सामाजिक संदर्भों की उपादेयता, उपयोगिता साथ एक अद्भुत सामंजस्य रूप में हे नचिकेता प्रबंध काव्य में हुआ है, वैसा अन्यत्र कहीं नहीं दिखता।

प्रश्न है उपनिषद में इस अध्यात्म, आत्मविद्या निहित कथानक को कठोपनिषद की संज्ञा दी है, किंतु कवयित्री माधुरी महाकाश ने इसका शीर्षक हे नचिकेता ही क्यों रखा? कहा जा सकता है कि यह कृतिकार का अपना विशेषाधिकार होता है। अपने कुछ उद्देश्य और निहितार्थ होते हैं। मैं भी इससे सहमत हूं और इस ग्रंथ लेखन का पुनीत उद्देश्य है राष्ट्रनिर्माण हेतु बालपन से ही प्रखर आध्यात्मिक, दार्शनिक, न्यायविद, सर्व कल्याणकारी संपूर्ण व्यक्तित्व, संवेदनशील नागरिक, श्रेष्ठराष्ट्रनायक का निर्माण। विनय उपशीर्षक में कवयित्री लिखती हैं- शब्द समाहित लेखनी कविता है उपहार। अमर कथा को लिख सकूं नित्य करूं गुणगान।।

किंतु यह गुणगान क्यों? इस लेखन का उद्देश्य क्या है? कवयित्री उत्तर देती है- नचिकेता की लिख कथा, करती यही प्रयास। उनके विस्तृत ज्ञान का सबके उर में वास। अमर कथा हो साध्य यह, अमर गायन रख माथ। आत्मसाथ करके लिखूं नचिकेता के साथ।। इस कथानक का महानायक कुमार नचिकेता इतना अधिक उदात्त और लोकोपयोगी है कि वह सबके लिए वंदनीय हो गया है। यमाचार्य भी परस्पर संवाद में उस बाल महामानव के लिए बारंबार हे नचिकेता!, हे नचिकेता! आदर सूचक शब्द का प्रयोग करते हैं। यदि गणना किया जाय तो कवयित्री में इस ग्रंथ में विविध स्थलों पर कुल 48 बार हे नचिकेता! का प्रयोग, इसकी आवृत्ति, एक स्वतंत्र वाक्यांश के रूप में किया है तथा 8 बार विशेषण और क्रियाविशेषण के साथ, जैसे- “हे दृढ़ संयमी नचिकेता”, “हे सुयोग्य कुमार नचिकेता”, “अतः सावधान हे नचिकेता”, “हे नचिकेता योग्य तुम्ही हो”, “हे नचिकेता बालक सुपात्र”, “यही श्रेय है हे नचिकेता”, “हे नचिकेता बड़ी कठिन है”, “अहा नचिकेता”…। छिटफुट जगह केवल ‘नचिकेता’ शब्द भी आया है, किंतु उसे नगण्य माना जाना चाहिए।

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अब यदि गणितीय विधा, अंक विज्ञान की दृष्टि से देखें तो (48 + 08 = 56) कुल 56 बार “हे नचिकेता” शब्द की आवृत्ति हुई है (अब 5+6 = 11)। साहित्य में एक मुहावरा है, “एक और एक ग्यारह”। “नौ दो ग्यारह होना”। एक ब्रह्म और एक माया का युग्म अर्थ सृष्टि। “नौ दो ग्यारह” व्यक्त दशा में “नौ” दृश्य है, दो (प्रकृति और पुरुष) नित्य है। दृश्य में भी, अदृश्य में भी। अव्यक्त अवस्था में अपनी मूलावस्था में व्यक्त अवस्था में सृष्टि रूप, दृश्य नाम रूप अवस्था में। यदि ब्रह्म दृष्टि आ गई तो सृष्टि गायब, केवल ब्रह्म ही है यत्र तत्र सर्वत्र, दसों दिशाओं में व्याप्त, परिव्याप्त। “ईशावास्य इदम सर्वम”, सर्वम “खल्विदं ब्रह्म”।

नचिकेताग्नि और ब्रह्मविद्या के आलोक में हम ग्यारह के निहितार्थ को भली प्रकार जान सकते है। “1” ब्रह्म है और “10” ब्रह्माण्ड। एक के साथ यह दृश्य जगत है और एक के अभाव में अदृश्य। “9” इसका तात्विक रूप है और किसी भी दशा में यह अपना मान, मूल्य नहीं बदलता। यही अहम भी है और इदम भी। अहम और इदम दोनों ही पूर्ण हैं। यहीं से प्राप्त हुआ है अध्यात्म का, वेदांत दर्शन का बीज मंत्र –
पूर्णम अद: पूर्णम इदं पूर्णात पूर्ण उदच्यते। पूर्णस्य पूर्ण आदाय पूर्णमेवा अवशिष्यते।।

‘हे नचिकेता’ शब्द की 56 बार की आवृत्ति ग्रंथ में सयास हो या अनायास, यह भी कथानक की भांति ही रहस्यमय है। यह आवृत्ति बहुत कुछ कहती है। सृष्टि के समस्त रहस्यों का उद्घाटन करती है। इस दृष्टि से ग्रंथ का शीर्षक हे नचिकेता सर्वाधिक उपयुक्त, सर्वोत्तम शीर्षक कहा जाना चाहिए क्योंकि केंद्रीय दिव्यपात्र, परमन्यायशील, परमजिज्ञासु, अडिग, भोगों से अलिप्तमान, लोकेषणाओं से निर्लिप्त, दृढ़निश्चयी आदर्श व्यक्तित्व का उदात्त नायक नचिकेता ही है।

‘हे नचिकेता’ वह तुम ही हो, तुम ही हो, वह तुम ही हो – द्वार बैठ यम के तुमने। जीवन पाठ पढ़ाया है।। जनजीवन कल्याण हेतु।नचिकेताग्नि जलाया है।। तनिक ताप यदि मिले मुझे। ज्ञान शिखर पर चढ़ जाऊं।।

यहां “मैं” को एकवचन में नहीं, बहुवचन में परिगणित करना चाहिए क्योंकि यदि एकल को ज्ञान शिखर चढ़ना होता तो लेखन और अभिव्यक्ति की क्या आवश्यकता? लेखन, प्रकाशन और लोकार्पण का निहितार्थ ही है लोक कल्याण, सर्वकल्याण, समष्टि कल्याण।

कथा का सामाजिक मूल्यांकन:

इस ग्रंथ के कथानक में नचिकेता के प्रश्न और दानप्रकरण पर “दान” के संदर्भ में सामाजशास्त्रीय प्रश्न, अधिकार के प्रश्न, औचित्य के प्रश्न और नैतिकता के प्रश्न उठाए जा सकते हैं –

हे तात यज्ञ का भाग एक।
धन-धान्य समान सम्मिलित था।।
धन, अन्न, वस्त्र, गांवों समान।
मैं भी एक उपस्थित धन था।।

दक्षिणा स्वरूप मुझे हे तात।
किसको अर्पित कर देंगे।।
यज्ञ हुआ है पूर्ण आपके।।
क्या मेरा दान नहीं करेंगे।।

अतः करें यह तात सुनिश्चित।
अब मेरा दान कहां होगा।।

यहां एक प्रश्न उठता है, क्या पुत्र, पुत्री, पति या पत्नी कोई वस्तु है? कोई द्रव्य पदार्थ है? या दुग्ध प्रदायिनी गो वंश की भांति पालतू चौपाया जीव? इस प्रश्न का उत्तर नचिकेता के इस चिंतन में मिल जाता है – होगा कौन गुरु वह मेरा। किसको मेरा अर्पण होगा।। किसको कर यह दान यथोचित। पूरा यज्ञ समर्पण होगा।।

जब नचिकेता पिता से यह प्रश्न करता है तब वह पिता के दायित्व, कर्तव्य बोध और मूल्यवान संपदा के दान की बात कर रहा है। पुत्र और पुत्री, माता पिता की आध्यात्मिक संपत्ति, धार्मिक और सामाजिक उत्तराधिकारी होते हैं, कोई भौतिक संपदा नहीं जिसे भौतिक द्रव्य, वस्तु की भांति किसी को दक्षिणा, उपहार या पारिश्रमिक रूप में दान दिया जाये। यहां स्वयं को नचिकेता द्वारा वस्तु या उपस्थित धन कहे जाने का अर्थ महाभारत के ड्यूत क्रीड़ा में दाव पर लगाए जाने वाली वस्त या संपत्ति के अर्थ में नहीं लेना चाहिए।संतति पिता के लिए उनका अपना ही पुनर्जन्म, अपना ही नवीन स्वरूप होता है। (इस ग्रंथ के पंचाग्नि विद्या शीर्षक में संतति को माता-पिता के आध्यात्मिक जन्म, उत्तराधिकारी प्रक्रिया का वर्णन किया गया है।)

आध्यात्मिक संपत्ति सुयोग्य हाथों में ही दान दी जाती है, “पुत्री वधु” (लक्ष्मी रूप में) “वर” (विष्णु) को और पुत्र सुयोग्य गुरु को; जिसे गुरु उचित समय पर “प्रतिदान” या आधुनिक शब्दावली में “रिटर्न गिफ्ट” के रूप में “सुयोग्य पुत्र” वापस पिता को लौटाता है। इसलिए नचिकेता के “दान कथन” को लक्ष्यार्थ और व्यंजनार्थ रूप में ही लेना चाहिए, भौतिक द्रव्य रूप में नहीं। पिता मुख्य यजमान रूप सर्वस्व दान का संकल्प लेने के बावजूद बूढ़ी, जर्जर, बीमार, कमजोर, प्रजनन क्षमता विहीन गायों (पशुधन) का दान यज्ञ संपादित करनेवाले पुरोहितों को उपहार और पारिश्रमिक रूप में कर रहे थे। कठोपनिषद में उन गायों की दशा कैसी थी उसके बारे में कहा गया है –

पीतोदका जघ्नतृणा दुग्धदोहा नि:इंद्रियां: अर्थात ऐसी गाएं जो अंतिमबार जल ग्रहण कर चुकी थी, जो अब घास भी नहीं खा पाती थी, जिनका दुग्ध अंतिम बार दूध लिया गया था, जिनकी इंद्रियों शिथिल हो गई थी, इतनी जर्जर और बूढ़ी थी। उचित दक्षिणा, पारिश्रमिक पाने का सभी का अधिकार है, पिता उचित पारिश्रमिक नहीं देकर पाप/अपराध कर रहे थे। पुत्र को आदेश देने का अधिकार नहीं होता, अस्तु नचिकेता सीधे पिता की अवमानना न करते हुए भी लक्षणात्मक और व्यंजनात्मक कथन से पिता को उनके उचित दायित्व निर्वहन हेतु लक्ष्य पर संधान कर उनको सचेत कर दायित्व बोध कराकर अपयश, उनको अपकीर्ति और पाप से बचाया जा सकता था और नचिकेता ने यही कार्य तो किया। व्यंजनात्मक कथन होते ही है ऐसे, जैसे “कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना”, और नचिकेता निशाना सटीक लगा था। पुत्र के बारंबार कथन से पिता अपनी त्रुटि समझ तो गए किंतु कृपणवृत्ति के संवाहक होने से वे अत्यंत क्रुद्ध हो उठे… । अब नचिकेता ने बात संभाली –

“होगा कौन गुरु वह मेरा।
किसको मेरा अर्पण होगा।।
किसको कर यह दान यथोचित।
पूरा यज्ञ समर्पण होगा।।

नचिकेता के बार बार के इस कथन से अत्यंत क्रोध में पिता ने कहा, जा! तुझे सूर्यपुत्र यम को सौंपता हूं –

“किंतु कर रहा हठ बारंबार।
वाजश्रवस अनदेखा करते।।
हठ क्रोधाग्नि उद्विग्न कर रहा।
कैसे वह अनदेखा करते।।”

एकमात्र समर्थ सूर्यपुत्र ही।
है लेने में दान तुम्हारा।।
मृत्यु मुख ही है सर्वथा योग्य।
तुमसे तो जीवन है हारा।।”

इस प्रकार अत्यंत क्रुद्ध क्षणों में भी पिता ने सुपुत्र को सुयोग्य हाथों में ही दान दिया। और नचिकेता ने इस दान की सुयोग्यता को सर्वोच्च, सर्वोत्तम रूप में प्रमाणित किया।

नचिकेता की उपादेयता
“तब” और “अब”:

नचिकेता की उपादेयता तब “सतयुग” में क्या थी? और आज वर्तमान “कलियुग” में क्या है? जब इस विंदु पर विचार करते हैं तो निम्न लिखित विंदु दृष्टि पटल पर सहसा छा जाते हैं –

(1) संकल्प का महत्व:

संकल्प का कोई विकल्प नहीं होता, इसलिए संकल्प के पूर्व यथेष्ठ विचार विमर्श कर लेना चाहिए। बा ने यज्ञ का अनुष्ठान और सर्वदान का संकल्प तो ले लिया किंतु उसे निष्ठा से निभाया नहीं। दक्षिणा रूप गोदान के नाम पर वृद्ध, बूढ़ी गाय दान करने लगे। पुत्र नचिकेता ने उन्हें सचेत किया और संकल्प का महत्व बताया।

(2) पुत्र का कर्तव्य:

नचिकेता ने एक सुपुत्र के कर्त्तव्य को परिभाषित किया। पुत्र का कर्तव्य है कि पिता को या परिवार के वरिष्ठ सदस्यों को भी उनके दायित्व का बोध कराए यदि पुत्र को लगता है कि वरिष्ठ सदस्य कर्तव्य पथ से भटक रहा है, विचलित हो रह है। नचिकेत नई पने पिता को न केवल पाप ग्रस्त होने से बचाया और अपनी कुशाग्र बुद्धि से न उनके क्रोध शांत किया और उन्हें अभिसित भोग संपदा भी प्रदान की। आगे चलकर निश्चित ही प्रेय के साथ साथ पिता को श्रेय को भी जोड़ा होगा और उनकी मुक्ति का पथ प्रशस्त किया होगा, ऐसी आश की जानी चाहिए। इससे बढ़कर एक पुत्र और क्या कर सकता है? उसने सुपुत्र की भूमिका निभाई जिस पिता को अपयश मिलता उसे यशस्वी बनाया।

आज वर्तमान में जब संयुक्त परिवार की कौन कहे, एकल परिवार भी दायित्व बोध के अभाव में बिखर रहें है, बच्चे आत्मकेंद्रित होते जा रहे है, पाश्चात्य जीवन शैली के प्रभाव ने परिवार की परिभाषा पति, पत्नी, बच्चे रखी सीमित कर दिया है। सनातन संस्कृति की परिवार और कर्तव्य चेतना को नचिकेता के माध्यम प्रस्तुतुत किया जाए। नचिकेता का आदर्श उन भटके बीच हों को सन्मार्ग दिखा सकता है। इसके लिए अनिवार्य है कि नचिकेता की पितृभक्ति, न्यायप्रियता, लोकभावना को रेखांकित करते हुए उसे पाठ्यक्रम शिक्षा में तथा दृश्य, श्रव्य साधनों से बच्चों को चेतनवित कराया जाए, दायित्व बोध कराया जाये।

(3) न्याय की प्रतिष्ठापना:

यज्ञ की पूर्णाहुति पश्चात उचित दक्षिणा या दान न देना अन्याय है और न्याय की प्रतिष्ठापना के लिए इस अन्याय का विरोध होना ही चाहिए, चाहे न्याय करने वाले माता पिता अथवा निकट संबंधी ही क्यों न हों। नचिकेत ने अपबे पिता के अन्याय का विरोध किया और समय साक्षी है इसका परिणाम अत्यंत ही सार्थक और लाभकारी रहा। न्याय सतत लाभकारी ही होता है। सत्य और न्याय एक दूसरे के पूरक है। सनातन संस्कृति कहती है सत्य की ही विजय होती है, मिथ्या या अन्याय की नहीं – सत्यमेव जयति नानृतं सत्येन पंथा विततो देवयान: (मुण्डक उप. 3.1.6)। नचिकेता ने इसी सनातन संस्कृति के निर्देश का अनुपालन किया जो अन्ततः मंगलकारी सिद्ध हुआ।

(3) पितृ आज्ञा पालन:

अबतक प्रायः दशरथनंदन श्रीरामचंद्र जी को ही पितृ भक्ति और पितृ आदेश के अनुपालन को आदर्श और दृष्टांत रूप में प्रचारित, प्रसारित किया जाता रहा है और रामायण, रामचरितमानस जैसे ग्रंथों के परायण, वचन, गायन ने इसे लोकप्रिय बनाकर घर घर तक पहुंचा दिया है। किन्तु वर्तमान में राजनीतिक कुचक्र, पद्लालसा भोग के कारण इस दोनों रामकथा प्रधान ग्रंथों पर लोभ, लालच या भय या कुचक्र और क्षुद्र मानसिकता से आघात होने लगा तो आरोपों के परिहार के साथ सनातन संस्कृति से ही किसी अन्य चरित्र को आदर्श रूप में प्रतिष्ठापित करने की आवश्यकता अनुभूत होने लगी। संवेदनशील, विदुषी सृजनकारा माधुरी महाकाश ने इस युगीन आवश्यकता को अनुभूत किया और नेपथ्य में चले गए नचिकेता की पितृभक्ति को जनमानस के बीच प्रकाश में लाने का लोकहितकारी कार्य किया है। नचिकेता पर सृजन, प्रकाशन और लोकार्पण कर उसकी पितृभक्ति, न्यायप्रियता, साधक स्वरूप और लोकमंगलकारी आत्मविद्या, मुक्ति, पुरुषार्थ को नए सृजनात्मक संदर्भों में प्रस्तुत किया है। इस सृजन हेतु उनका अभिनंदन और साधुवाद।

(4) भौतिक भोग की सीमा:

यमाचार्य ने यह जानकर कि उसके द्वार पर एक बालक भूखा, प्यासा तीन दिनों से बैठा है, उन्होंने तीन वरदान मांगने का आशीर्वाद दिया – प्रति दिवस और रात्रि अनुसार। तीन वरदान प्रदान करूंगा।। गृह के सब दोष स्वत: मिटेंगे। अपना भी कल्याण करूंगा।। नचिकेता ने अपने प्रथम वरदान में क्रोध की शांति, दोषों से मुक्ति और भौतिक संपदा, सुख और लोकषणाओं के भोग का वरदान मांग लिया – हे देव तात का मैं उद्धार मांगता हूं। पिता हेतु समस्त मै उपकार मांगता हूं।। यमाचार्य ने पितृभक्ति से प्रसन्न हो कहा तथास्तु – करता हूं प्रदान सहर्ष वर। हे मनु संस्कृति विश्वास अमर।। कृत कृत्य हुआ हूं भक्ति देख। अतुलित साहस अदम्य शक्ति।।

वैदिक साहित्य में लोक कल्याणकरी योजनाओं, कृत्यों को “यज्ञ” कहा जाता है। ये यज्ञ अपने उद्देश्य में कैसे फलित हों इसके लिए दूसरे वरदान से ऊर्जा का तकनीकी ज्ञान और ऊर्जा (अग्नि) के सदुपयोग का विशेषज्ञान प्राप्त किया – जरा मरण से मुक्त करे जो। उस दिव्याग्नि का मांगू दान।। मुझको मुझसे युक्त करे जो। मैं मांगू दूजा यह वरदान।। नचिकेता की सत्यनिष्ठा और योग्यता से यमाचार्य ने प्रभावित होकर “विशेष ऊर्जा” नियोजन की शिक्षा दी और उस विद्या को नचिकेता के नाम पर ही “नचिकेताग्नि” नाम रख दिया –
जग में सदा सदा यह अग्नि। तुमसे ही जानी जाएगी।। उद्धार करे भवसागर से। नचिकेताग्नि खिलाएगी।।

(5) आत्म संयम

नचिकेता का आत्म संयम देखने लायक है। जब पिता ने क्रोध में उसे मृत्यु को दान कर दिया तब भी नचिकेता विचलित नहीं हुआ। कवयित्री का यह बिंबचित्र, यह आत्म संयम अदभुत और दर्शनीय है –
निज का दान मृत्यु को सुनकर। नचिकेत शांत यथावत था।। मन में उठते उद्वेग नहीं। निर्विकार खड़ा पूर्ववत थे।। सुनकर ऐसी विचलित बातें। स्थिर रह जाना आसान नहीं।। योगी तक कंपित हो जाते। दृढ़ता है सरल काम नहीं।। प्राप्त जिसे हो उच्च अवस्था। वह ही सच्चा अध्येता है।। सहज निर्विकल्प खड़ा है जो। वह निर्विकार नचिकेता है।।

इसी प्रकार जब तीसरे वरदान के रूप में नचिकेता ने यमाचार्य से “मृत्यु के रहस्य” को पूछा – हे यमाचार्य कह दें मुझसे। क्या है शाश्वतता जीवन की।। क्यों यह अजर अमर अविनाशी। आत्मा एक अबूझ विद्या सी।। आत्मा के अस्तित्व ज्ञान की। वर हेतु याचना करता हूं।। संग लिए आती गूढ़ प्रश्न को। गुह्य की कामना रखता हूं।। यमाचार्य ने पहले तो इस वरदान की ही वापस लेने को कहा और उसके बदले में धरती राज्य, प्रचुर धन संपदा देने का लालच दिया – शतायु पुत्र पौत्रों को दूंगा, हे नचिकेता। धरा के सब भोग मैं दूंगा, हे नचिकेता। असंख्य धेनु हय स्वर्ण होंगे, हे नचिकेता। माही राज्य व्यापक सुदूर होंगे, हे नचिकेता। इन भोग सामग्रियों से अप्रभावित नचिकेता ने प्रत्युतर में कहा यह भौतिक संपदा लेकर मैं क्या करूंगा। आपने ही तो बताया है कि ये सब नश्वर है – नश्वर जगत की परिधि तय है। सुख भोग सभी का ही क्षय है। जब यमाचार्य ने कहा कि मृत्यु के रहस्य को देवता भी नहीं जानते, तुम इसके बदले कुछ और वर मांग लो। विवेकवान नचिकेता ने कहा, यदि इस रहस्य को देवता भी नहीं जानते तब तो हमारे लिए यह विद्या और भी उपयोगी है। इस तरह कई परीक्षा लेने के उपरान्त तत्वज्ञान का अधिकारी मानकर अंततः यमाचार्य ने “मृत्यु के रहस्य” और “ब्रह्मविद्या” की शिक्षा नचिकेता को प्रदान कर दी – हे न इक्कठा योग्य तुम्ही हो। ग्रहणशीलता को लिए साथ। अतः पुत्र निश्चय ही तुमको। दुर्लभ ज्ञान प्रदान करूंगा।। देवों को भी जो प्राप्त नहीं। वह ही अमृत रहस्य कहूंगा।। यह तभी संभव हो पाया जब नचिकेता ने आत्मसंयम बनाए रखा और प्रलोभन में नहीं फंसा। आत्म संयम का गुण सदा मानव के लिए आदर्श और अनुकरणीय बना रहेगा। निष्ठा, आत्म संयम और विवेक का महत्व नचिकेता के दिव्य चरित्र की मानव जगत को अत्यंत अनुपम अप्रतिम भेंट है। पाश्चात्य संस्कृति और भौतिक वस्तु भोगों की ओर आकृष्ट हो रहे युवाओं पर नचिकेता के यह दिव्य चरित्र सार्थक प्रभाव डाल सकता है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि नचिकेता जहां तब परसा जीके थे आज वर्तमान में भी अब भी उतने ही प्रासंगिक हैं। से आकाशदीप की भांति युवा पीढ़ी के पथ प्रदर्शक बन सकते हैं।

(6) जिज्ञासा का महत्व

जीवन में जिज्ञासा का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है। यदि जिज्ञासा का शमन हो जाएगा तो खोजी वृत्ति, अनुसंधान कार्य रुक जाएंगे, प्रगति पथ अवरुद्ध हो जाएगा। नचिकेता में पिता के रोषपूर्ण शाप को भी जिज्ञासा और अनुसंधान का साधन बना लिया था। कवयित्री ने उनकी जिज्ञासा वृत्ति को भी रेखांकित किया है – होगा क्या यमराज प्रयोजन। दान मेरा यदि हो जाएगा।। होगा क्या वह निष्पाप पुण्य। यम द्वार स्वयं यदि जाएगा।। क्या मृत्यु लोक से जीवन को। अब जीवित ही जान होगा।। नव अध्याय रचे जाएंगे। पाठ नया अपनाना होगा।। और सचमुच नचिकेता की जिज्ञासा, उसकी निस्पृहता ने मानवजीवन को अमूल्य निधि प्रदान कर दी। जिज्ञासा के विश्वास की भावना अनुसंधान में एक सार्थकता प्रदान करती है, निराश नहीं होने देती और अनुसंधान को पूर्णता तक पहुंचा देती है। निश्चिन्त में भी यह विश्वासरूपी सकारात्मक सोच का धन, सकारात्मक भाव कूट कूट कर भरा था, तभी तो वह सोच पाता है – सिद्धों के तो क्रोध कभी भी। अकारण नहीं हुआ करते।। होते प्रकट भविष्य में बहुधा। वचनों की गरिमा को रखते।।

(7) लोक कल्याण की भावना

जो यमाचार्य नचिकेता को गुह्य ज्ञान देने को तैयार नहीं हो रहे थे, वे ही अब प्रसन्नचित्त है। इसका एकमात्र कारण यह है कि यह गुह्यविद्या निजी न होकर लोक कल्याण का कार्य करेगी। आप प्रसन्नता को नचिकेता से साझा करते हुए वे कहते हैं – बहुत प्रसन्न हूं हे संयम मूर्ति। मनु संस्कृति के अमर इतिहास।। नव चेतना उदित है तुमसे। तुमसे प्रसारित ज्ञान प्रकाश।। गूढ़ रहस्यों का कर भेदन। जीव जगत पर उपकार किया।। नहीं सी बूंद विराट बनी। सागर सा रूप अथाह लिया।। ज्ञान अग्नि का पर्याय, नचिकेता हुआ अमर। पाई यम की अति कृपा, और प्रज्ञान प्रखर।।

सचमुच लोक कल्याण की भावना और लोक कल्याण के कार्य व्यक्ति को धरा पर यशस्वी, परमार्थी चरित्र के रूप में अमर बना देते हैं। इस प्रकार नचिकेता का दिव्य चरित्र तब की अपेक्षा अब अधिक प्रासंगिक और उपयोगी है। इस प्रस्तुति हेतु कवयित्री माधुरी जी को हार्दिक बधाई और ढेर सारी शुभकामनाएं।

पुस्तक का नाम: ‘हे नचिकेता’
कवयित्री: माधुरी महाकाश, लखनऊ
काव्य विधा: प्रबंध काव्यग्रंथ
प्रकाशन वर्ष: 2024
प्रकाशक: निखिल पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, आगरा
संस्करण: प्रथम
पृष्ठ संख्या: 152
मूल्य: 150 रूपये

समीक्षक: डॉ जयप्रकाश तिवारी, लखनऊ/बलिया, उत्तर प्रदेश

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