अथर्व इंडिया अंतरराष्ट्रीय शोधसंस्थान की बड़ी पहल, ‘गांधी और उनके आदर्श’ परिचर्चा को इन वक्ताओं ने किया संबोधित

हैदराबाद/लखनऊ (उत्तर प्रदेश) : 2 अक्तूबर को अथर्व इंडिया अंतरराष्ट्रीय शोधसंस्थान के तत्वावधान में “गांधी और उनके आदर्श” विषय पर गांधी जी के बहु आयामी व्यक्तिव पर परिचर्चा हुई। इस परिचर्चा में संस्थान के प्रबंध निदेशक डॉ वी बी पांडेय, कार्यक्रम अध्यक्ष डॉ करुणा पांडेय, मुख्य अतिथि डॉ जयप्रकाश तिवारी, मुख्य वक्ता डॉ शारदा प्रसाद, डॉ तारकेश्वर नाथ, संयोजक अनिशा कुमारी, संचालक अपर्णा सक्सेना उपस्थित थे। कार्यक्रम के अन्य वक्ताओं मे डॉ. हेमलता रानी दिल्ली विश्वविद्यालय, आशीष अम्बर दरभंगा (बिहार), अंजू सुंदर (लखनऊ), डॉ प्रभात पाण्डेय, ललिता कृष्ण (दिल्ली), कासम आजाद (हरियाणा), डॉ छाया शर्मा (राजस्थान), अर्चना सिंह महाराजगंज (उत्तर प्रदेश) डॉ जनार्दन तिवारी आदि विद्वज्जन थे। सभी ने अपने अपने उपयोगी विचार प्रस्तुत किए।

वक्ताओं ने कहा कि महात्मा गांधी जी की 155वीं जन्म जयंती पूरे देश में मनाई जा रही है और अनेक जीवन दर्शन पर अबतक बहुत कुछ गया है। विचारणीय प्रश्न है कि उनके जीवन में “सत्य” और “अहिंसा” का संप्रत्यय आया कैसे? इसके सम्यक उत्तर के लिए हमें गांधी जी के संपूर्ण व्यक्तित्व को दो भागों में विभाजित कर देखना होगा – (i) मोहनदास करमचंद गांधी जो एक संपन्न परिवार से थे और विलायत बैरिस्टर की पढ़ाई करने गए थे। उस समय न ब्रह्मचारी थे न पूर्ण शाकाहारी। वे पाश्चात्य सभ्यता/परंपरानुसार मांसाहारी भी थे। (ii) बैरिस्टर गांधी जो दक्षिण अफ्रीका में समाज और न्याय के लिए कानूनी लड़ाई लड़कर नाम कमाकर भारत लौटने वाले गांधी जिन्हे बिना श्रम के सहज ही स्वाधीनता संग्राम में एक सम्मानित नायक के रूप में स्वीकृति और ग्राह्यता मिल गई।

अब गांधी जी ने भारतीय संस्कृति की ओर भी उन्मुख हुए। उन्हें इतना तो पता चल ही चुका था की पाश्चात्य ढंग, पाश्चात्य विधि से इन गोरे फिरंगियों से नहीं निपटा जा सकता। उन्हें परास्त करने के लिए हमे सनातन संस्कृति से ही साहस, संबल और आत्मबल प्राप्ति करनी होगी। सनातन संस्कृति में उन्होंने आध्यात्मिक पुस्तकों का अध्ययन प्रारंभ किया। नजरबंद और कारागार के एकांतवास ने यह सुअवसर प्रदान किया और उन्हें प्राप्त हुआ अष्टांग योग के सिद्धांत और सूत्र। “यम” और “नियम” ने उन्हें गहराई तक प्रभावित किया। “यम” पांच है- सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। “नियम” भी पांच हैं- शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधानि। स्वाध्याय को स्वीकार कर उन्होंने “श्रीमदभगवदगीता” का नियमित पाठ प्रारम्भ कर दिया। गीता क्या है, उपनिषद रूपी गाय का दुग्धामृत, “सर्वापनिषदो गावो दोग्धा गोपाल नंदन: …”।

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उपनिषदों ने उन्हें सत्य की परिभाषा दी- “जो त्रिकाल सत्य है, त्रिकालती सत्य है, अर्थात भूत, वर्तमान, भविष्यत किसी कल में कोई विकृति न आवे, सदा एकरस, एकरूप हो। और वह सत्य कहां है? यत्र, तत्र, सर्वत्र, (ईशावास्य इदम सर्वम…)। और यहीं से मिला सत्य का सामर्थ्य, सत्य की क्षमता “सत्यमेव जयति नानृतम” (मुण्डक उपनिषद 3.1.6)। सत्य की ही सर्वदा विजय होती है, अनृत, असत्य की कभी नहीं। और जब ईश्वर ही सत्य है, सर्वम है तो कोई अछूत, अश्पृष्य क्यों? यही से उन्हें अश्पृष्यता निवारण का सूत्र मिला, तब उन्होंने अछूतों को एक नया नाम दिया “हरिजन”, ईश्वर का ही जन। अब सभी बराबर हैं, कोई छोटा या बड़ा नहीं।

अब ईश्वर की एक नई परिभाषा उन्हें प्राप्त हो चुकी थी- “सत्य ही ईश्वर है”। ईश्वर की सत्ता को नकारते सुना गया है, देखा गया है किंतु सत्य को भला कौन नकार सकता है। गांधी जी ने दृढ़ संकल्पित होकर इसे स्वीकार किया, अपनाया और आजीवन पालन किया। सनातन संस्कृति के इस तत्वज्ञान ने गांधी जी के आचार, विचार और व्यक्तित्व में एक अनुपम दिव्यता उत्पन्न कर दी। उनकी वाणी में अब सम्मोहन था, राष्ट्र को स्वाधीन करने की ललक थी। तत्व ज्ञान ने उन्हें अलौकिकता प्रदान की और इसमें आश्चर्य भी क्या यदि सुभाष बाबू जैसे क्रांतिवीर ने उन्हें “राष्ट्रपिता” शब्द से संबोधित कर दिया।

अब वह केवल सुभाषचंद्र बोस के लिए राष्ट्रपिता नहीं थे, पूरे राष्ट्र ने इस संबोधन को स्वीकार कर लिया और इस प्रकार गांधी जी “मोहनदास करमचंद गांधी” से “राष्ट्रपिता महात्मा गांधी” के रूप में रूपांतरित हो चुके थे। यम और नियम उनके आचरण मे तदरूप हो चुके थे। एक मांसाहारी व्यक्ति, शुद्ध शाकाहारी, ब्रह्मचारी बन चुका था, अब वाह सहस्रबाहु, सहस्रपात बन चुका था। “चलपडे जिधर दो पग डग में चल पड़े कोटि पग उसी और…”। ऐसे महामानव को उनकी जन्म जयंती पर शत शत नमन, कोटिश: प्रणाम।

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