‘विश्व हिंदी दिवस’ एक सुअवसर है हिंदी की वर्तमान दशा और दिशा पर, इसके अतीत और वर्तमान पर अपने मन की बात प्रस्तुत करने का। सूत्रधार का जागृत मन बोल रहा है। विमर्श की मधुरिम वेला में आओ मिलजुल कर हम करें विचार, जब चर्चा छिड़ी है हिंदी की तब हिंदी पर ही अब करें विचार। इस आह्वान पर मन के संवेदी साहित्यकार ने अपना पक्ष प्रस्तुत किया कि अक्षर की मूल ध्वनि ‘ॐ’ है, प्रणव है, अक्षर ही स्वर और नाद है, ओंकार है। इसके अवयव अकार, उकार और मकार से ही तो वर्ण, लिपि, भाषा का उद्भव और विकास हुआ। यह भाषा ही वाक् है, वाणी है; भाषा ही मन का स्पंदन है। इसी स्पंदनमय सांकेतिक और लिपिकीय भाषा से हम सब जुड़े हैं एक दूसरे से। यह भाषा ही मन का रंजन है, लोकरंजन है, विचार विनिमय का वह साधन है जिसे मनोरम, हृदय ग्राह्य और उपयोगी बनाते रहे हैं हमारे सत्साहित्य।
हमारे सुकोमल हृदय की संवेदनाओं की समसामयिक प्रस्तुति ही होते है किसी भी भाषा के साहित्य। कविता और साहित्य तो है अन्यतम साधना वाक् की, शब्द हैं आराधना भाव की ध्वनि की, अक्षर की, नाद की, निनाद की। सनातन संस्कृति में इस वाक्, वाणी की गहन विवेचना की गई है। वेदों में वाणी के द्वारा ही सृष्टि सृजन की बात कही गई है – “तदेतदक्षर ब्रह्म स प्राणस्तदु वांगमनः” (मुण्डक उप.) तथा स तया वाचा तेनात्मना इदं सर्वसृजत (बृह. उप.)। इसी प्रकार शास्त्र वचन है कि जिस प्रकार से चलनी सत्तू को शुद्ध करती है, उसी प्रकार विद्वान ज्ञान से वाणी को शुद्ध कर उसका सदुपयोग करते है, इसी कारण सुधी जनों की वाणी और भाषा में लोकमंगलकारी, कल्याणमयी रमणीयता भी अंतर्निहित रहती है- सक्तुमिव तितउना पुनंतो यन्न धीरा मनसा वाचमक्रतु (ऋकसंहिता 10/61/2)। महाकवि कालिदास ने वागर्थाविव संपृक्तौ में भी वाणी और अर्थ, शब्द और विचार के आपसी संबंध की बात की है। इसीलिए इन कल्याणकारी ध्वनियों, वर्णों, अक्षरोँ, वाक्यों के युग्मों ने ही लोकमंगल की भावना से रच डाले हैं कितने ही अमूल्य, बहुमूल्य, उपयोगी- “सदग्रंथ”।
यदि बात हिंदी की करें तो अपनी “हिंदी भाषा” सनातन संस्कृति की संवाहिका संस्कृत भाषा की दुलारी, लाडली बिटिया है। आध्यात्मिक संस्कृति के अनेकानेक तत्त्व इसमें भरे पड़े हैं। मानवमन इसे भलीभांति मनन कर स्वीकारता भी है। तभी तो सगर्व वह बोल उठता है कि पंच महाभूतों ने ही घुल-मिलकर सृजित किया है- “सृष्टि ग्रन्थ”। हिंदी की वर्णमाला अब बोल उठती है- “अ” से अग्नि, “आ” से आकाश, “ग” से गगन, “ज” से जल, “स” से समीर और “प” से प्रकाश, अरे इन्ही से तो हुआ है सृष्टि का भी विकास। इसी से रचा है सृष्टि ने मानव को, किंतु मानव का अपना अलग ही है सृजन संसार, एक अलग ही है विशिष्ट सृष्टि। यह अपनी अपनी व्याख्या है और परख परख की अपनी दृष्टि।
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अब बात जब हिंदी भाषा, साहित्य की हो रही है तो यह कहकर बचा नहीं जा सकता कि जग की बातें जगती ही जाने, साहित्यिक बात, ‘साहित्य’। कविता को पहचाना किसने? कविता ही जाने कविता का मर्म। क्योंकि यह पलयन वादित होगी, वर्तमान से मुंह मोड़ना होगा। ठीक इसी बिंदु पर साहित्य को जानने की ललक और उत्कंठा तीव्र रूप में जागृत हो उठती है। और अंततः प्रश्न बनकर मन पूछ ही बैठता है-
“जिसे मोह सका न रूप-लावण्य
जिसे मोह सकी न कोई सुरबाला,
मोह सके जिसे न, ये ऊँचे महल
मर मिटा वही, एक कविता पर।
कविता में आखिर क्या है ऐसा?
न रूप-लावण्य, नहीं कोई पैसा.
फिर मन है क्यों इतना दीवाना?
फिरे मस्ती में अब यह मस्ताना.
चिंता नहीं किसी बात की उसको,
जग चाहे जो कह ले अब उसको .
मिल गया उसे – ‘संवेदना कोष’,
निछावर जिसपर सब राज-कोष।
सालोक्य – सारूप्य की चाह नहीं,
न अभिलाषा सार्ष्टि – सायुज्य की।
चारों जिसकी नित करे परिक्रमा,
इस कविता की देखो ऐसी महिमा”।
अपनी बुद्धि, विवेक से जब वह किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाता है तब सीधे – सीधे साहित्य से ही प्रश्न करता है- हे काव्य! तुम्हारा गुरु है कौन? कुछ तो बोलो, क्यों हो तुम मौन? कहाँ से पायी सूक्ष्मतर दृष्टि यह? अतल-वितल तेरे रहता कौन? कैसे करती शब्द श्रृंगार तुम? यह विरह कहाँ से लाती हो? रहस्य रोमांच का सृजन कैसे पल भर में तुम कर जाती हो? कभी लगती तुतलाती बच्ची, कभी किशोरी बन जाती हो, क्षण भर में रूप बदलती कैसे? कैसे कुलाँच भर जाती हो? तेरी एक झलक पा जाने को, कुछ नयन ज्योति बढ़वाते हैं। कुछ तो हैं इतने दीवाने, नित नए लेंस लगवाते हैं। नजर नहीं आती फिर भी तुम, क्या इतनी भी सूक्ष्म रूप हो? दिखती फिर तुम सूर को कैसे? तुलसी घर चन्दन क्यों घिसती हो?
हिंदी का विचारक जब सीधे सीधे सघन मनन मंथन से किसी सर्वमान्य बिंदु पर नहीं पहुंच पाता तब वह भी संस्कृति और अध्यात्म की ही शरण में जाता है। उसे विश्वास है कि हिंदी साहित्य इतना अलौकिक, दिव्य और ऊर्जस्वी यदि है तो क्यों है? इसका मूल सतातन संस्कृति से चेतना ग्रहण करता है। विश्व के किसी और भाषा का साहित्य इतना ऊर्जस्वी, तेजस्वी नहीं? अंधेरे से प्रकाश की ओर गति में इतना प्रेरक क्यों नहीं, जितनी हिंदी है। अब तो हिंदी से पूछना ही पड़ता है उसे – क्या तुम महेश की मानस पुत्री? अथवा विरंचि की भार्या हो? या हो वाग्दत्ता बाल्मीकि की? या हिंद की लाडली आर्या हो?
और जब तुम देवपुत्री हो तो अपने संकल्प को भी तो एकबार पुनः स्मरण करो। याद करो! तू ने ही कहा था- “सन्देश नहीं मै स्वर्ग लोक का लाई, इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आई”। समाज कहां जा रहा? श्रेष्ठ समाज निर्माण का यह संकल्प तेरा क्यों टूट रहा है? यह कौन सी रीति तुने अपनाई है? सोचा बहुत पर सोच न पाया, बात क्या तेरे ह्रदय में समायी है? जान न पाया तुम्हे अब भी मैं, गुरूद्वारे का अब तो मार्ग बताओ। हे काव्य तुम्हारा गुरु है कौन? कुछ तो बोलो, क्यों हो तुम मौन…?
हिंदी क्या बोले? उसकी भी कुछ अपनी शिकायतें, उपालंभ हैं जो अनुचित कदापि नहीं। कोई संवेदनहीन क्या इस उपलम्भ को सुन पाएगा? जी नहीं, कोई संवेदनशील मन ही “हिंदी भाषा – साहित्य” की इस पीड़ा समझ सकता है। वही सुन भी सकता है हिंदी के आर्तनाद को- “अब छोड़ो परिचय की बातों को, माँ-बाप बिना कोई परिचय क्या? मैं क्या बोलूँ? मैं क्यों बोलूँ ? तेरे आगे अपना मुँह क्यों खोलूँ”? भारत भूमि का नाम भूल गए, इंडिया – इंडिया अब जपते हो। भूल गए जब प्यारे हिंद को, हिंदी को अब क्यों पहचानोगे? अरे! वेलकम – वेलकम तो खूब करते हो, सु-स्वागतम भी कभी कहते हो? मैं क्या बोलूँ? मैं क्यों बोलूँ? तेरे आगे अपना मुँह क्यों खोलूँ? किंतु जब पूछा है तो कुछ कहना है, पड़ रहा है मुझे देना परिचय। आह! गृह में ही अपना परिचय, क्या परिचित को भी देना होगा परिचय? परिचय यह, क्या सजा से कम है? बदल गए घर वाले, यही बड़ा गम है। जैसे रही न सदस्य इस घर की, क्या यह देश निकाले से कम है? सॉरी – सॉरी कह करके फिर दिन-रात वही सब करते हो। मैं क्या बोलूँ? मैं क्यों बोलूँ? तेरे आगे अपना मुँह क्यों खोलूँ ? अरे वर्तनी ही चुनरी है भाषा की, तूने लहंगा चुन्नी विदीर्ण कर डाला। क्या किया तूने, ऐ मेरे बच्चे! अपनी माँ को ही कुरूप कर डाला! अब भी जगी नहीं चेतना उर में कैसा यह कुकृत्य कर डाला? अपने ही घर में हार गयी मैं, मुझे हिंग्लिश तूने ही बना डाला।
अरे, पहचानो मुझे! मैं तो हिंद की ही बेटी हूँ और नाम मेरा है- हिंदी। भाल पर सुशोभित है जो, हूँ मैं वही चमकती बिंदी। यहीं से पाया नेह और दीक्षा, यहीं से पायी प्राथमिक शिक्षा। जन्म हुआ संस्कृत की गोदी, पालि के संग खेली-बढ़ी हूँ। ये प्राकृत और अपभ्रंश तो मेरा अपना ही पुराना चोला है। जब भारत बन गया हिंदुस्तान, नाम मेरा पड़ गया तब हिंदी। जब हुयी सयानी, बड़ी हुयी, ब्रज-अवधी चोला में खड़ी हुयी। आज निखरा जो रूप, वह खड़ी बोली है, पद्य के संग-संग, गद्य रूप चली।
हिंदी की उपालंभ सुनकर यह मन आंकलन / समीक्षा करता है, क्या सचमुच अपनी हिंदी हार गयी? क्या हिंद के गले की ‘हार’ गयी…? मेरे मित्र! होता है कष्ट कहें कैसे? लगता तो यही है कि अपनी हिंदी हिंद में ही हार गयी। यह ‘आह’ – ‘वाह’ की बात नहीं, इस दिल पर भी नया आघात नहीं। दिल भरा – भरा है घावों से, है कष्ट भाषा से क्या प्यार, प्रीति गयी? हर देश की अपनी भाषा है, क्यों भारत में ही निराशा है? एक भाषा के लिए तरसते हैं, बाहर तो खूब गरजते हैं। जब सदन में चर्चा उठती है, हिंदी की ही लुटिया डूबती है। उस हाउस में वे ही शर्माते हैं, जो हिंदी की ही खाते हैं। चुप बैठे क्यों वे रहते हैं, जो बाहर खूब गरजते हैं? क्या भय है अन्दर उनके, जो घुट-घुट कर सहते हैं? सच है, अब आंग्ल भाषा आयी है, दिलों पर सबके छायी है। यह नटखट छैल-छबीली है, यह कटी पूँछ की बिल्ली है। हिंदी के ही घर की खाती है, पर हाय, हेलो करती है। हिंदी को समझती चुहिया सी, अपने पंजों से वार ये करती है…। जब से संगति हुयी इससे, वे बन गए तब से ‘रंगे सियार’। पहले बदले वस्त्र – विचार, फिर बदल गए सारे व्यवहार। जब सूट – बूट में आते हैं, अंग्रेजी में ही गुर्राते हैं…। जब बाँध के पगड़ी आते हैं, तब बैठे – बैठे शर्माते हैं…। इनका आचरण अब एक पहेली है, रहस्यमयी एक हवेली है। है बुढ़िया यह जादूगरनी सी, वे समझे यह नई – नवेली है।
मूल प्रश्न है कि यह पर्दा अब कौन हटाएगा? वह वीर कहाँ से आयेगा? अब भी तुम जगे नहीं भाई! निश्चय ही ‘क्लीव’ कहलायेगा। अब भी जाग जा और बोल! अरे हिंदी हार नहीं सकती, यह लाडली हिन्द की ठहरी। आज डट गयी मैदान में यह, अब तुम सब बाँध लो गठरी। अब जाग उठे हैं भारतीय वीर, लिए हैं थाम कमान और तीर। भाषा को साहित्य तक ही सीमित का करके उसे प्रद्योगिकी तक फैलाया है। इस प्रौद्योगिकी को हथियार बनाकर अपना वांछित दायित्व निभाया है। क्लीव नहीं हैं हम भारतवासी यह प्रमाणित कर दिखलाया है। हमे लेना होगा संकल्प: “भाषा हो हिंदी, देश हिंदुस्तान”। देखो कितना सुंदर पवित्र नाम। धरा है इसकी उर्वरा कितनी? है प्रकृति की क्षमता जितनी। सतत खिले हैं इसी धरा पर प्रज्ञान-विज्ञान के सुमन निरंतर। झाँक लो चाहे गगन में ऊपर या फिर देखो महि के अन्दर। अरे इसने तो सागर को मथ डाला है, ऐसा उदाहरण और कहाँ है? हिमशिखर पर किया आराधना, दूजा मिशाल ऐसी कहाँ कहाँ है? करके सरल इस ज्ञान राशि को, हिंदी अब अलख जगाती है। गहन, गूढ़ उपनिषद् वेदांत को सहज लोक भाषा में समझाती है।
सच है, हर भाषा को उद्भाषित करती, अपने को भी विकसित करती है, फिर भी एक कष्ट बहुत भारी, हिंदी बनी न राष्ट्र भाषा हमारी। कौन उसे समझाएगा अब? वीणा कौन बजायेगा अब? डोर हाथ में अब है जिसकी, जाने क्यों उसकी पैंट खिसकी? हिंदी दिवस मनाते हैं वे, हवा में हाथ लहराते हैं वे, आती है जब हाथ में बाजी तब अंगूठा ही दिखलाते हैं वे। यही विडंबना है, हिंदी पखवाड़ा मनाते क्यों? उसे धूप दीप दिखलाते क्यों? क्या हिंदी भी है कोई मृत भाषा? भोंडा ढोंग दिखलाते क्यों? प्रश्न है, यदि हिंदी से है गहरा नाता, फिर कार्यालयों में क्यों नहीं भाता? जिम्मेदार को प्रेम इंग्लिश से। हिंदी से कैसा उनका नाता..? इतना ही नहीं, हिंदी की बात जो करते हैं, वे झूठी शान क्यों गढ़ते हैं? कसमे खाते जो हिंदी की, औलाद कान्वेंट में पढ़ते हैं। जो अक्षत – पुष्प चढाते हैं और हिंदी से स्नेह दिखलाते हैं। स्नेह, प्यार यदि सच्चा तो आओ हिंदी में ही हम बात करे..। आज से ही एक नयी नयी शुरुआत करे। हिंदी में पत्र व्यवहार करें, हिंदी साहित्य से प्यार करें, मानस का नित पाठ करें। हिंदी समर्थ अपनी है भाषा,जाने फिर भी क्यों है निराशा?
एकल रूप में हम सब भारतवासी एक – एक अक्षर हैं ‘हिंदी वर्णमाला’ के ही, जब जुड़ते हैं सब एक – एक कर नियम से, स्नेह से, तब बन जाते हैं – सुन्दर, प्रेरक, सार्थक – ‘सदवाक्य’। बन जाते हैं – ‘गीत’ और ‘गान’, रच जाते हैं – कहानी और उपन्यास। और सृजते हैं – साहित्य, काव्य और महाकाव्य भी; जिसमे निभाते हैं साथ – ‘विराम चिह्न’, और मात्राएँ धुन बन के, साज बन के; ध्वनि, संगीत मधुर आवाज बन कर, अब उनका पथ करते है ‘प्रशस्त’ संगीत के सप्त स्वर, पाणिनि के नियम और माहेश्वर के प्रसिद्ध सूत्र। जब इन अक्षरों से बनते हैं – शब्द विन्यास, गद्यांश और पद्यांश; तब खिल उठती है हमारी सभ्यता, हमारी संस्कृति, हमारी प्रकृति, हमारे ज्ञान-विज्ञान, धर्म-सत्कर्म। परन्तु यही अक्षर जब भटकते हैं, आपस में एक दूजे की राह रोकते, लड़ते – भिड़ते हैं। शब्द विन्यास के नियमों को तोड़ते हैं, मरोड़ते हैं – तब साहित्य और समाज दोनों, हो जाते हैं – ‘कुंठित’ और ‘विकृत’। फिर क्या होगा? होगा यह कि श्रेष्ठ उपन्यास और श्रेष्ठ काव्य का सृजन – प्रणयन रुक जायेगा। साहित्य के नाम पर विकृत साहित्य परोसा जायेगा और भावी पीढ़ी को भटकाने का सारा दोष वर्तमान पीढ़ी पर जायेगा।
इसलिए निष्कर्ष रूप में समधान यही निकलता है कि आज आवश्यकता है – अक्षर – अक्षर से भिड़े नहीं, श्रेष्ठता – वरिष्ठता की होड़ में पड़े नहीं…। अन्यथा श्रेष्ठ कविता, श्रेष्ठ कहानी, श्रेष्ठ उपन्यास और श्रेष्ठ काव्य का सृजन – प्रणयन रुक जाएगा। हिंदी साहित्य के नाम पर कोई विकृत साहित्य परोसा जायेगा और भावी पीढ़ी को भटकने – भटकाने का सारा दोष हम पर आप पर ही मढ़ा जाएगा।
डॉ जयप्रकाश तिवारी
लखनऊ, उत्तर प्रदेश
संपर्क: 9453391020