स्मृति दिवस विशेष: गाडगे महाराज का शिक्षा के प्रति ऐसा रहा योगदान, पहले नहीं मिल पाने का अंबेडकर भी है अफसोस

[नोट- यह लेख शिक्षा की ताकत को बताता है। भावी पीढ़ी को संदेश देता है। विश्वास है कि आज का युवा वर्ग को यह लेख प्रेरणा देता रहेगा। उत्तम लेख के लिए लेखक डॉ नरेंद्र दिवाकर के प्रति हम आभारी है।]

आज (20 दिसंबर) एक ऐसे रहनुमा का स्मृति दिवस है, जिसने अशिक्षित होते हुए भी आजीवन शिक्षा के प्रति अलख जगाई। वैसे तो महाराष्ट्र संतों की भूमि है। यहां पर अनेक ख्याति लब्ध संत जन्मे और समाज की बेहतरी और भलाई के लिए उल्लेखनीय कार्य किए। इन्हीं में से एक हैं राष्ट्रसंत गाडगे जी महाराज। संत गाडगे महाराज का जन्म 23 फरवरी 1876 को सखू बाई और झिंगराजी जनोरकर के यहां महाराष्ट्र के अमरावती के तहसील अंजनगांव सुरजी के शेणगांव में हुआ था। जिस समय उनका जन्म हुआ था उस समय समाज अशिक्षा, शराबखोरी, अन्धविश्वास, आडम्बर और साहूकारों के कर्ज से दबा हुआ था।

बचपन (8 वर्ष की उम्र) में ही उनके पिता का साया उनके ऊपर से उठ गया था। उसके बाद का उनका समय मामा के यहां बीता। विवाह भी मामा के यहां से हुआ। यहीं उनके जीवन का महत्वपूर्ण पड़ाव शुरू हुआ। उनके मामा ने एक साहूकार से एज जमीन ली जिसे मामा भांजे ने मिलकर उर्वर बना डाला, तब साहूकार ने धोखे से जमीन वापस लेने हेतु कागज़ात पर अंगूठा निशानी लगवा लिया और जमीन हड़प ली। साहूकार ने गांव के कई लोगों के साथ ऐसा किया था। तदुपरान्त गाडगे जी के मामा का देहान्त हो गया। गाडगे जी को समझ आया कि ऐसा शिक्षा के आभाव के कारण ही हुआ है। इसलिए गांव के निर्धन लोगों को शिक्षित और जागरूक करने का दृढ़ निश्चय किया। वे समाज सेवा में लगकर लोगों को संगठित कर शोषण और उत्पीड़न के के खिलाफ संघर्ष करना शुरू कर दिया।

वे आजीवन समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने में संघर्षरत रहे। वे अपने भजनों और कीर्तनों के माध्यम से गा-गा कर प्रवचन देकर वंचित और पिछड़े समाज को जगाने का काम करते रहे। वे कर्म को आराध्य मानने वाले संतों में थे। 20 दिसंबर, 1956 को उन्होंने अंतिम सांस ली। गाडगे जी समाज की बेहतरी हेतु बहुत से सुधारात्मक कार्य किए। उनके जीवन की प्रत्येक घटना संघर्षपूर्ण और शिक्षाप्रद है, परंतु हम यहां केवल समाज को शिक्षित और जागरूक किए जाने वाले योगदान पर ही चर्चा करेंगे।

समकालीन महान व्यक्तित्वों के शिक्षा पर अनमोल वचन

उनके समकालीन महान समाज सुधारक महात्मा ज्योतिबा फूले ने समाज को शिक्षा के प्रति जागरूक और सावधान करते हुए कहा था- “विद्या बिना मति गई, मति बिना गति गई, गति बिना वित्त गया, वित्त बिना शूद्र गए, इतने अनर्थ एक अविद्या/अशिक्षा ने किए।”

शिक्षा की आवश्यकता को रेखांकित करते हुए बाबा साहब भीमराव आंबेडकर जी ने भी कहा था, “शिक्षित करो, संगठित करो तथा संघर्ष करो।” उन्होंने शिक्षा की महत्ता को रेखांकित करते हुए एक और बात कही थी, “शिक्षा शेरनी का वह दूध है जो पीता है वह दहाड़ता है।”

शिक्षा हेतु उनका महत्वपूर्ण संदेश

चेतना के महान अग्रदूत संत गाडगे महाराज जी ने उस समय की सामाजिक परिस्थितियों का बड़ी बारीकी और गहराई से देखा व समझा था कि शिक्षा तो दूर भरपेट भोजन तक नहीं मिलता था। वे अशिक्षा को सभी समस्याओं की जड़ मानते थे तभी तो वे कहते थे, “यदि पैसे की तंगी हो, खाने के बर्तन बेंच दो, हाँथ पर रखकर खाओ, पत्नी के लिए कम दाम की साड़ी खरीदो, टूटे-फूटे मकान में रहो, रिश्तेदारों की खातिरदारी में कम खर्च करो, लेकिन बच्चों को शिक्षा दिए बिना न रहो।” मानवता के सच्चे हितैषी, सामाजिक समरसता के द्योतक, वंचितों की शिक्षा के पुरजोर समर्थक महान समाज सुधारक गाडगे महाराज ने श्रमदान व जनता से प्राप्त आर्थिक सहयोग से जो कुछ भी इकट्ठा किया। उसी जनता की भलाई में ही लगाया। समाज की बेहतरी हेतु कार्य करना और जनसेवा ही उनका धर्म था।

चोखामेला धर्मशाला बाबा साहब अंबेडकर को सौंपा

शिक्षा के लिए विद्यालय, छात्रावास और पुस्तकालय उनके लिए पहली प्राथमिकता में थे, तभी तो जनता के ही सहयोग से 1920 में लगभग एक लाख रुपए की लागत से निर्मित पंढरपुर की चोखामेला धर्मशाला को गाडगे महाराज ने बाबा साहब अंबेडकर को विद्यालय हेतु तथा शेष राशि अन्य कार्यों के लिए भेंट कर दी और बाबा साहब से कहा- “आप मुझे पहले मिले होते तो मैंने धर्मशालाओं की जगह विद्यालय ही बनवाया होता, ऐसे ही विद्यालयों की जरूरत भी है।”

शिक्षा के लिए अण्णा के समर्थन में बी जी खेर से भिड़ गए

शिक्षा के लिए गाडगे महाराज कुछ भी करने को तैयार थे। वे शिक्षा के लिए किसी भी हद तक जा सकते थे। जब गांधी जी की हत्या नाथूराम गोडसे ने की तो महाराष्ट्र में लोग ब्राह्मणों के खिलाफ उग्र हो गए। तब महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री बालासाहेब खेर ब्राह्मणों के समर्थन में खड़े हो गए। इस पर अण्णा साहब (कर्मवीर भाऊराव पाटिल) सतारा, महाराष्ट्र की सभा में खेर साहब को आड़े हाथों लिया और कहा- “खेर साहब! ब्राह्मणों को तुम कितना बचाओगे? उन्हें बचाने वाले तो ये बहुजन हैं। उन्होंने अगर उन्हें आश्रय दिया तो ही वे बचेंगे, नहीं तो उनकी कोई खैर नहीं और तुम्हारे शरीर में खून कितना है? ज्यादा से ज्यादा 2-3 लीटर, उस खून से कितने ब्राह्मणों की रक्षा होगी?” इस सभा के बाद ब्राह्मण खेर से मिले और भाऊराव के द्वारा कही गई बात बताई तो क्रोध में आकर खेर ने भाऊराव को मुंबई सरकार द्वारा मिलने वाली ग्राण्ट रोक दी।

जब यह बात गाडगे महाराज को पता चली तो भाऊराव से कहा- “भाऊराव घबराओ नहीं मैं तुम्हारी रक्षा करूंगा। कितने भी स्कूल बनवओ, यह गाडगे बाबा जिन्दा है। यह पैसों की कमी कभी नहीं होने देगा। मेरे शरीर की चमड़ी उधेर कर उसके चप्पल वह अण्णा के पैरों में भी डालें तो भी वह कम होंगे। सच्चा कर्मवीर वही है जिसने भैंसों की पूंछ पकड़ने वालों को कलम पकड़ने के लिए मजबूर किया।”

पूना स्थित कांग्रेस भवन के बाहर गाडगे महाराज झाड़ू और लाठी लेकर पहुंच गए और खेर साहब को बाहर बुलवाया। खेर साहब से कहा- “भाऊराव की ग्राण्ट क्यों बन्द की गई? भाऊराव गरीब लड़कों को शिक्षा देता है। उनके पेट पर लात क्यों मारते हो? देखो मैं अब क्या करता हूँ?” तब खेर साहब ने अण्णा की ग्राण्ट पुनः बहाल कर दी।

उनका मानना था कि शिक्षा के द्वारा ही वंचित तबका गुलामी से मुक्त हो सकता है। वे शिक्षा की महत्ता को इस सीमा तक प्रतिपादित करते हैं कि खाने की थाली तक बेंचकर शिक्षा लेने की अपील करते हैं। वे यह भलीभांति समझते थे कि शिक्षा के बिना किसी भी मनुष्य का जीवन अधूरा है। शिक्षा के प्रति उनकी प्रतिबध्दता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने 2 दर्जन से अधिक (31) शैक्षणिक संस्थाओं, छात्रावासों और पुस्तकालयों की स्थापना की थी। वे कपड़े धोने वाले धोबी समुदाय में पैदा होकर कपड़े तो नहीं धोए पर लोगों के दूषित मस्तिष्क को जरूर धोया।

सरकार द्वारा सम्मान

शिक्षा के प्रति उनकी लगन, उनकी प्रतिबद्धता और उनके कार्य के कारण ही महाराष्ट्र सरकार ने 1 मई, 1983 को अमरावती में अमरावती विश्वविद्यालय की स्थापना कर संत गाडगे महाराज के नाम पर रख दिया। भारत सरकार के डाक विभाग ने 1998 में उनकी स्मृतिदिवस को उन पर एक डाक टिकट जारी किया। स्वच्छता के संबंध में उनके कार्यों को देखते हुए महाराष्ट्र सरकार ने 2001 में संत गाडगे बाबा ग्राम स्वच्छता अभियान शुरू किया। बाद में उनके नाम से पुरस्कार भी प्रदान करना शुरू किया।

जीवन-ऊर्जा

गाडगे महाराज के बारे में उनके द्वारा किए गए कार्य और समय के संबंध में गंगाधर बनवरे ने लिखा कि, “आगे की हमारी अनेक नसलों को शिक्षित करने की समृद्ध परंपरा सिखाने वाला यह बुद्ध के समय की विरासत का ही एक हिस्सा है। इसे आम जनता को समझने की जरूरत है। गाडगे महाराज हमारे विज्ञान की जरूरत हैं और गुलामी के विरोध में लड़ने के लिए वे हमारी जीवन-ऊर्जा हैं।”

शिक्षा और विधानमंडल में जाने को लेकर तिलक व गाडगे के बीच संवाद

“स्वतंत्रता प्राप्त करना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है” का नारा देने वाले तिलक जी वंचित और पिछड़ी जातियों की स्वतंत्रता और बराबरी का अधिकार दिए जाने के इस कदर खिलाफ थे कि अपनी पत्रिका ‘केशरी’ में राजनीतिक भागीदारी के विरुद्ध एक वक्तव्य “तेली-तम्बोली, कुनबी आदि जातियां विधानमण्डल में जाकर क्या करेंगी? क्या वे वहां भी हल चलाएंगे? क्या वे वहां तेल बेचेंगे? इनका वहां क्या काम है? वहां पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी ब्राह्मणों को जाना चाहिए” छापा था।

अछूत विधानमंडलों में जाना चाहते हैं

एक बार की बात है जब पंढरपुर (1918) में एक बड़ी सभा को तिलक जी के आग्रह पर संबोधित करते हुए गाडगे महाराज ने तिलक से कहा- “तिलक महाशय! मैं परीट, धोबी, पीढ़ी दर पीढ़ी आपके कपड़े धोना मेरा काम है। मैं आपको क्या उपदेश दे सकता हूँ? क्या मार्गदर्शन दे सकता हूँ? लेकिन मैं आपसे प्रार्थना करना चाहता हूं कि इस देश के तेली-तम्बोली, कुनबी और अछूत विधानमंडलों और शासन-प्रशासन में जाना चाहते हैं। आप उन्हें जाने में मदद करें। आप कहते हैं कि वहां इनका क्या काम है? यह तो ब्राह्मणों का काम है।

गैर ब्राह्मणों को ब्राह्मण बना दो

मैं कहता हूं यह देश हम सबका है। हम सभी को वहां जाना चाहिए। आप कहते हैं केवल ब्राह्मणों को जान चाहिए, तो मैं आपसे आग्रह करता हूँ कि आप हम सब गैर ब्राह्मणों को ब्राह्मण बना दो। हमें तेली-तम्बोली, कुनबी, परीट, महार, चमार नहीं रहने दो। हम विधानमंडलों में जाना चाहते हैं। पढ़ना-लिखना चाहते हैं। देश की तरक्की में योगदान देना चाहते हैं। आप हमारे लिए वह सब करने में मदद करो। इसके लिए सम्पूर्ण गैर ब्राह्मण समाज आपका ऋणी रहेगा।” यह सुनकर बाल गंगाधर निरुत्तर हो गए।

बार-बार लेते थे अंबेडकर नाम

हालांकि, महाराष्ट्र में ही ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले कई वर्ष/दशक पहले ही वंचित वर्ग के विद्यार्थियों के लिए विद्यालय खोला था, फिर भी एक बड़े हिस्से के लिए शिक्षा का द्वार बंद ही था। गाडगे महाराज शिक्षा पर बात करते समय बाबा साहब को आदर्श के रूप में प्रस्तुत करते थे और कहते थे- “देखो बाबा साहब ने अपने बलबूते कितनी पढ़ाई की। शिक्षा पर किसी व्यक्ति या वर्ग विशेष की ठेकेदारी नहीं है। गरीब का बच्चा भी अच्छी शिक्षा ग्रहण कर बहुत सारी डिग्रियां हासिल कर सकता है।”

शिक्षा ग्रहण करना ही पूजा है न कि मंदिर में पूजा करना

गाडगे महाराज बाबा साहब के शिक्षा दर्शन को बखूबी समझते थे कि शिक्षा के बिना मुक्ति सम्भव नहीं। इसीलिए उन्होंने अपने अनुयायियों को बच्चों की शिक्षा पर विशेष ध्यान देने के लिए कहा, क्योंकि बहुत से असामाजिक तत्व नहीं चाहते थे कि वंचित तबके के बच्चे पढ़ें। गाडगे बाबा ने कहा कि “शिक्षा बड़ी चीज है, शिक्षा ग्रहण करना ही पूजा है न कि मंदिर में पूजा करना।” शिक्षा ग्रहण करके ही समाज को गरीबी, अन्याय, अत्यचार और शोषण से मुक्ति दिला सकते हैं।

लोक शिक्षक

गाडगे महाराज के द्वारा शिक्षा के प्रति किए गए कार्य के कारण ही उन्हें लोक शिक्षक कहा जाता है। भले ही उनके पास किताबी ज्ञान नहीं रहा हो, लेकिन उनके पास परिस्थितिजन्य व अनुभवजन्य ज्ञान जो था उससे ही लोगों में चेतना का संचार करते थे। उन्होंने स्वच्छता व श्रमदान के बल पर ही वंचित तबकों के इलाज हेतु अभिनव प्रयास किया।

शिक्षित राजगद्दी और अशिक्षित कुलीगीरी

गाडगे महाराज ने श्रमदान और समाज से मिले आर्थिक सहयोग से विभिन्न प्रकार की संस्थाओं जैसे धर्मशाला, कुष्ठ आश्रम, अस्पताल, अनाथालय, बालवाड़ी, विद्यालय, छात्रावास और पुस्तकालय आदि का निर्माण कराया। इस तरह से उन्होंने समर्पित, प्रतिबद्ध और जुझारू लोगों को समाज सेवा के साथ-साथ शैक्षणिक कार्य करने के लिए आमंत्रित कर उनका सहयोग प्राप्त किया। दर्जनों शिक्षण संस्थाओं आदि का निर्माण कर उन्हें आमजन मानस हेतु उपलब्ध कराया। वे शिक्षा को विकास की कुंजी मानते थे और कहते थे- “शिक्षा के बलपर ही हममें से कुछ लोग दिल्ली की राजगद्दी पर शासन करते हैं और बिना शिक्षा वाले बोरीबंदर स्टेशन पर कुलीगीरी का काम करते हैं।”

करते हैं सरस्वती की पूजा, फिर भी ज्यादा अनपढ़

वे कहते थे- “ज्ञान की देवी सरस्वती की पूजा हमारे देश में सबसे ज्यादा होती है, फिर भी दुनिया में सबसे ज्यादा अनपढ़ हमारे देश भारत में हैं।” समाज सुधारक और स्वच्छता के समाजशास्त्र के प्रणेता होने के साथ-साथ शिक्षा के क्षेत्र में बढ़ावा देने हेतु उनके द्वारा दिए गए योगदान को चाह कर भी नहीं भुलाया जा सकता। इस तरह शिक्षा उनके लिए व उनके कार्यों में प्रमुख स्थान पर रही है। यही कारण था कि आचार्य केते उन्हें चलता-फिरता विद्यापीठ कहते थे।

अनपढ़ होते हुए आजीवन शिक्षा की अलख जगाने वाले

संत गाडगे महाराज की आज हमारे बीच नहीं हैं, पर उनके द्वारा किए गए कार्य सरकार और समाज का आधार बन चुके हैं। उनके कार्य समाज को और हम सबको हमेशा प्रेरणा देते रहेंगे और याद दिलाते रहेंगे। अनपढ़ होते हुए आजीवन शिक्षा की अलख जगाने वाले महान व्यक्तित्व को बारंबार नमन।

डॉ नरेन्द्र दिवाकर
सुधवर, चायल, कौशाम्बी (उ. प्र.)
मो. 9839675023

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