ऑथर्स गिल्ड ऑफ इंडिया: कोरोना महामारी का बच्चों पर मानसिक प्रभाव विषयक परिचर्चा व राष्ट्रीय कवि-गोष्ठी

हैदराबाद : ऑनलाइन दिल्ली पुस्तक मेला के अवसर पर ऑथर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के तत्वावधान में दो सत्रों में कार्यक्रम आयोजित हुए। प्रथम सत्र में कोरोनाकाल में बच्चों की मानसिक स्थिति में परिवर्तन पर चर्चा की गई। देशभर के चिकित्सकों और मनोवैज्ञानिकों ने अपने-अपने वक्तव्य में व्यक्तिगत, सामाजिक तथा शैक्षणिक स्तर पर लोगों, विशेषकर बच्चों में क्या-क्या परिवर्तन आए और भविष्य में जीवन को सुखद रूप में कैसे जीया जाए, इसपर विमर्श किया गया। अपने प्रारंभिक वक्तव्य में डॉ शिव शंकर अवस्थी ने कहा कि आज अगर बीते इस कोरोना के दौर को लिखा जाए तो कलम में जो स्याही होगी, वह आँसुओं की होगी। हम अचानक कैद कर दिए गए। इस कोरोना महामारी का बच्चों पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा है।

कार्यक्रम के मुख्य अतिथि और मेवाड़ विश्वविद्यालय के कुलपति आदरणीय डॉ केएस राणा ने कहा कि इस वैश्विक महामारी ने पूरी मानवता को प्रभावित किया, जिसमें बच्चे मुख्य रूप से रहे और उसमें भी उनकी शिक्षा। हमें अपनी शिक्षा के साधनों का गरीब मेधावी छात्रों को फोकस करते हुए इस्तेमाल करना होगा। इस महामारी में हम अपने पुराने तौर-तरीकों से हटकर जीने को जान पाए। इसका नकारात्मक प्रभाव बच्चों की मानसिकता पर पड़ा। वे बाहर खेलने-कूदने आदि नहीं जा सके।

अगली वक्ता के रूप में अन्नू जी थीं, जिन्होंने अपने दस साल के बच्चे के साथ इस कोरोना महामारी में बिताए अपने अनुभव और उसमें आए बदलावों पर बात करते हुए कहा कि बच्चों का बर्ताव बहुत बदला है, उनके सोने और जागने की आदतों में परिवर्तन आया है। सबसे ज्यादा प्रभावित बच्चों की पढ़ाई हुई है। खासतौर से ग्रामीण क्षेत्रों में, जहाँ न इंटरनेट की सुविधा है, न ही बच्चों के पास एंड्रॉइड फोन। उन्होंने इसके लिए गैर-सरकारी संस्थाओं का आह्वान किया कि वे सब इस कार्य के लिए आगे आएँ।

डॉ वीरेंद्र स्वरूप स्कूल, कानपुर की प्राचार्या सुश्री सुषमा डी सक्सेना ने कहा कि इस कोरोनाकाल में स्कूल जानेवाले बच्चे सर्वाधिक प्रभावित हुए हैं। उनका मोबाइल फोन के साथ लगाव (एडिक्शन) बढ़ा है। जिसके लिए हम पहले रोका करते थे, आज हम खुद उन्हें इसका प्रयोग करने को कह रहे हैं। जिन बच्चों ने अपने माता-पिता, अपने अभिभावक खोए हैं, वे खुद को ही दोषी मानने लगे हैं, उनके अंदर हीनता बोध आ गया है। ऐसे बच्चों को सामान्य करने के लिए उनकी काउंसलिंग करने की आवश्यकता है। वहीं इसका सकारत्मक पहलू ये भी सामने देखने को मिलता है कि बच्चों में आत्म-विश्वास भी बढ़ा है, उनमें रचनात्मकता आई है।

इसके बाद वक्ता भारतीय मनोविज्ञान संस्थान के अध्यक्ष डॉ गौतम साहा ने पीपीटी के माध्यम से विस्तृत रूप में कोरोना की उत्पत्ति से लेकर उसके विभिन्न प्रभावों की चर्चा की, विशेषकर बच्चों के संबंध में। उन्होंने कहा कि सार्स और मर्स की अपेक्षा कोविड-19 में मृत्यु-दर कम है, पर इसका डर अधिक रहा, जिसके कारण लोग मनोवैज्ञानिक रूप से अधिक परेशान रहे। इस दौरान मानसिक अस्थिरता (मेंटल डिसऑर्डर) अधिक देखने को मिला। इसके आगे उन्होंने मेंटल इश्यू रिलेटिड टू कोविड-19′ शीर्षक से बताया कि किस तरह की समस्या मानसिक स्तर पर आज देखने को मिल रही है। इसके आगे उन्होंने भारत में बच्चों के तथ्यों को ‘चिल्ड्रेन इन इंडिया-फैक्ट’ के अंतर्गत रखा।

उन्होंने बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य का ध्यान लॉकडाउन के दौरान कैसे रखा जाए, इस संबंध में बताया कि बच्चों को अधिक-से-अधिक सुनें, उन्हें उनके दोस्तों से ऑनलाइन माध्यमों से जोड़कर रखें, अधिक-से-अधिक उनको समय दें, उनके अवसाद को नियंत्रित और कम करें आदि-आदि। इसके आगे डॉ. साहा ने बताया कि बच्चों को “मीडिया जानकारी” प्रदान करने की बात की। उन्होंने तनाव-प्रबंधन की बात करते हुए कहा कि हमें अपनी जीवन-शैली, दिनचर्या पर फोकस करना चाहिए। इससे मानसिक स्वास्थ्य अच्छा रहेगा। उन्होंने आगे कहा कि तनाव कोई रोग नहीं है। ये कोविड-19 का दौर दुनिया का पहला सबसे बड़ा सोशल मीडिया का इतना बड़ा ब्लास्ट है, इसे इन्फोडेमिक कहा जाता है। उन्होंने इसको कैसे नियंत्रित और इसका प्रबंधन कैसे किया जाए, इसपर भी प्रकाश डाला और अंत में सारांश प्रस्तुत किया।

अगले वक्ता फोर्टिस हेल्थकयर के निदेशक डॉ समीर पारिख ने कोविड-19 के सकारात्मक पक्षों पर चर्चा करते हुए कहा कि कोविड से सीखने को भी बहुत कुछ मिला है। कोविड ने सीखाया है कि क्या करना चाहिए और क्रा नहीं करना चाहिए। उन्होंने आगे कहा कि बच्चे रोल मॉडल रहे इस पूरे महामारी के दौरान। हमारे बच्चों और बुजुर्गों ने इससे बड़ी ताकत से लड़ा। उन्होंने आगे कहा कि इससे रिश्तों की अहमियत का पता चला। ‘टूगेदरनेस कंपोनेंट’ बहुत खास रहा इस दौरान। कैलाश हॉस्पिटल, नोएडा के न्यूरो-सर्जन डॉ. वरुण भार्गव ने कहा कि बच्चों ने इस कोरोना महामारी और उसके भय को अपने अभिभावकों और परिवार की स्थिति के अनुरूप देखा है। उनके ऊपर अलग तरह का मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ा है। उन्होंने ऐसे में स्वयं से स्वयं को सँभाला है। गरीब परिवार के बच्चों पर इसका ज्यादा असर हुआ है। पर हमारी भारतीयता ने हमें इस महामारी से बचाया है।

अगली वक्ता पीजीडीएवी कॉलेज, दिल्ली से जुड़ीं मनोविशेषज्ञ डॉ हिमांशी खन्ना ने कहा कि हमारी ‘समन्वयात्मक’ संस्कृति हमारी शक्ति है। इससे हमें कोरोना से लड़ने में मदद मिली है। उन्होंने आगे कहा कि बच्चों के मानसिक स्तर को जानकर उसके अनुरूप उनका ध्यान रखना होगा, क्योंकि वे खुद इसका ख्याल नहीं रख सकते। एक प्रश्न कि ‘बच्चों को कैसे इंटरनेट के दुरुपयोग से बचाया जाए?’ के जवाब में उन्होंने आगे कहा कि इसके लिए बच्चों में ‘इंटरनेट लिटरेसी’ की समझ जरूरी है, ताकि वे समझ सकें कि इसका प्रयोग कैसे करना है। क्या उनके लिए सही है और क्या गलत। इस सत्र में डॉ अहिल्या मिश्रा ने धन्यवाद-ज्ञापन किया। यह सत्र पद्मश्री डॉ. श्याम सिंह शशि के सान्निध्य में संपन्न हुआ।

दूसरे सत्र में बहुभाषी राष्ट्रीय काव्य-पाठ का आयोजन किया गया, जिसकी अध्यक्षता डॉ सरोजिनी प्रीतम ने की और मुख्य अतिथि थे हिंदी अकादमी, दिल्ली के सचिव डॉ जीतराम भट्ट। दोनों सत्रों का सफल संचालन ऑथर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के महासचिव डॉ शिवशंकर अवस्थी ने किया। प्रारंभ में श्री वीरेंद्र शेखर के ग़ज़ल-संग्रह ‘कब तक आखिर कब तक’ का लोकार्पण किया गया। कवियों ने अपनी-अपनी कविताओं में समाज-जीवन के अनेक भाव-बोधों का वर्णन-चित्रण किया गया। दिल्ली की प्रमिला नैयर ने कहा, ‘पलक  झपकूँ नहीं,/यादें अश्रु बन बिखर न जाएँ/जीने की चाहत इसी में है/रखूँ सँजोए/कहीं खो न जाएँ/पथ कठिन था,/मार्ग भी था काँटों भरा/सहज ही तुमने दिखाया/मार्ग जो था फूलों भरा।’

हैदराबाद की वरिष्ठ कवयित्री डॉ अहिल्या मिश्रा ने अपने गीत में कहा कि ‘आसमाँ के तल में जब-जब चाँद मुस्काए,/सागर के झूले में तब-तब मन भरमाए,/मौसम के डाकिए ने फूलों के सब डाक बाँट दिए,/ख़ुशबू की कोई हाट न आया सूने द्वार हमारे।’ डाॅ. शिवशंकर अवस्थी ने शृंगार की अपनी कविता में प्रेम का खुला आमंत्रण दिया, ‘कांति कहती है चेहरे की/शृंगार करो या न करो/उर्वशी धरा पर आ पहुँची/अब जितना चाहे प्यार करो।’ अजमेर के डॉ नवल भावड़ा ने कहा, ‘हर कोई अनजान है क्या करें/और पथराई पहचान है क्या करें।’

हैदराबाद की युवा कवयित्री और ‘पुष्पक साहित्यिकी’ की संपादक डॉ आशा मिश्रा ‘मुक्ता’ ने पुरुष-सत्ता में नारियों की उपेक्षित दशा पर चिंता व्यक्त की, ‘ढो रही है सभ्यता/वर्षों से/निष्प्राण संस्कृति के बोझ को/अपने कोमल कंधों पर/सुलझाने की कोशिश में/अबूझ पहेली/तब से/ जब से/ कहा मनु ने/ यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता/और साथ में यह भी कि/वजूद नहीं स्त्री का/वग़ैर पुरुष के।’ ज्योति नारायण ने हिंदी की महत्ता को वर्णित करती कविता प्रस्तुत की, ‘छू लिया है जिसने हिमालय/उस हिमालय का है ताज हिंदी/कंठ है, सुर है, है साज हिंदी/है करोड़ों की आवाज हिंदी।’

डॉ अर्चना झा ने नारी की द्रौपदी-सी दशा पर क्षोभ प्रकट किया, ‘जँघा को थपथपाते हुए/मेरे संपूर्ण अस्तित्व को/अपने पौरुष के कीचड़ में/लिथेड़ने को तैयार।/दु:शासन के हुंकार ने/स्त्री के लय-ताल और लज्जा को/चीरहरण में बदल दिया था।/थरथराते विश्वास,/कँपते मूल्य/आवाज दे रहे थे/फिर एक पुरुष को।/उनके पीतांबरी/लज्जा को ढक लें।’ दिल्ली की कवयित्री अंजलि अवस्थी ने प्रेम में समर्पण को महत्त्व देते हुए कहा कि ‘जब कोई अपनापन माँगे/तू अपना सर्वस्व लुटा दे।’

डॉ जीतराम भट्ट ने अपनी कविता में  विधेयात्मक पहलू पर अपनी अभिव्यक्ति की, ‘घावों पर संजीवनी की बारिशें जारी रहेंगी।/तमस पर जीवन के जय की कोशिशें जारी रहेंगी।/यदि हुआ नुकसान फिर भी, हौसला तुम कम न करना।/विषभरे, अतिसूक्ष्म दुश्मन हैं मगर फिर भी न डरना।’ नागपुर के बालकृष्ण महाजन ने अपनी क्षणिका में गाँव के लोगों का शहर वाला बनने पर व्यंग्य किया, ‘वे गाँव की/शानदार कोठी बेचकर/शहर में/वन रूम कीचन/फ्लैट खरीदकर/तरक्की का/अनुभव कर रहे हैं।’ डॉ सरोजिनी प्रीतम ने अपनी रचना से सबको गुदगुदाया, ‘उन्होंने मुझे कहा/उनका जीवन खुली किताब है/और वे मुझे पुस्तक मेले में मिले थे।’ आगरा की श्रुति सिन्हा ने जीजिविषा की रचना कही, ‘मैं रहूँगी जीवित/ जैसे/जिंदा रहते हैं शब्द/ हाँ! उन्हीं मृत्युंजय शब्दों की भाँति/मैं रखूँगी जीवित सदैव अपने आपको।’

इनके साथ ही मोना वर्मा, रमा देवी, नेहा अग्रवाल, डॉ नवल भावड़ा, जय बहादुर सिंह राणा, डॉ युवराज सिंह, बी कामकोट्टि, श्याम मनोहर सिरोठिया, दीपक तिवारी, डॉ शैलबाला अग्रवाल, डॉ सुदेश भाटिया, कृष्णकुमार द्विवेदी, सरोजा मेटी, लक्ष्मण प्रसाद डेहरिया, डॉ कीर्तिवर्धन अग्रवाल, सीजे प्रसन्नाकुमारी, मीरा रायकवाड़ इत्यादि ने अपनी-अपनी कविताओं का पाठ किया। कार्यक्रम में देशभर के अनेक साहित्यकार जुड़े थे, जिनमें डॉ मुकेश अग्रवाल, डॉ ऋतु सूद, डॉ अशोक कुमार ज्योति, चेतन बाछोतिया, संदीप शर्मा, भूपेंद्र कुमार भगत इत्यादि महत्त्वपूर्ण थे। इस सत्र में वरिष्ठ साहित्यकार डॉ हरिसिंह पाल ने धन्यवाद-ज्ञापन किया।

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